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बदलती हवा और गैर-पेशेवर पुलिस-- विभूति नारायण राय

पिछले कुछ दिनों से भारतीय मर्दों या लड़कों के वहशीपन के किस्से मीडिया में छाए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि ये पुरुष अचानक जानवर बन गए हैं। दुधमुंही बच्चियां, छोटी-बड़ी लड़कियां और यहां तक कि बूढ़ी औरतें भी पूरी तरह से भारतीय समाज में कभी सुरक्षित नहीं रही हैं। भारतीय संस्कृति की महानता के कुछ पैरोकारों के इन दावे पर कि इसके लिए तेजी से बढ़ती पाश्चात्य मूल्यों की नकल की प्रवृत्ति, फिल्में या महिलाओं के परिधान यौनिक उच्छृंखलता के जिम्मेदार हैं, सिर्फ हंसा जा सकता है। इस पर कोई गंभीर विमर्श नहीं हो सकता, क्योंकि भारतीय परिवारों, गांवों और कस्बों में जहां इन सब चीजों का दखल कम था, वहां भी महिलाएं बलात्कार से सुरक्षित थीं या हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। कई समाजशास्त्रीय अध्ययनों से स्पष्ट है कि बच्चियां सर्वाधिक असुरक्षित अपने परिवार में या अपने परिचित माहौल में हैं। बलात यौन संबंधों की खबरें पीछे कुछ वर्षों से अधिक सिर्फ इसलिए आ रही हैं, क्योंकि अब मां-बाप, समाज या खुद पीड़िता किसी दुर्घटना को छिपाने की जगह उन्हें खुलकर बताने में गुरेज नहीं करती। पश्चिम में ‘मी-टू' आंदोलन दृष्टिकोण में आ रहे इसी परिवर्तन का एक उदाहरण है। पाकिस्तान में, जो हमसे भी रूढ़ समाज है, हाल में एक फिल्मी सेलिब्रिटी के खिलाफ कई सहकर्मी महिलाओं द्वारा लगाया गया इसी तरह का आरोप उस समाज में भी परिवर्तन की बयार का ही नमूना है। इससे मिलता-जुलता एक आंदोलन भारतीय सोशल मीडिया में भी चल रहा है, जिसमें महिलाएं अधिकार के साथ घोषित कर रही हैं कि बलात्कार पीड़िता अपना मुंह क्यों ढके, मुंह तो शर्म से अपराधी को ढकना चाहिए। भारत में विचलित कर देने वाली खबरों का जो विस्फोट हुआ है, उसे भी इसी सामाजिक साहस का उदाहरण माना जा सकता है।

डर यह है कि कहीं मीडिया के ऐसे तमाम शोर-शराबे सिर्फ वक्ती उबाल बनकर न रह जाएं। यह आशंका कुछ हद तक सरकार की फौरी प्रतिक्रिया से सही भी साबित हो रही है। सरकार ने आनन-फानन मेंअध्यादेश के जरिए 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वालों को फांसी पर लटकाने का प्रावधान लाने का फैसला कर लिया है। तुरत-फुरत के चक्कर में हम यह भूल गए हैं कि अमेरिका, चीन और इस्लामी मुल्कों को छोड़कर ज्यादातर सभ्य समाजों में मृत्युदंड समाप्त किया जा चुका है या क्रमश: किया जा रहा है। भारत धीरे-धीरे इसे खत्म करने के स्थान पर इसके अंतर्गत आने वाले अपराधों की संख्या बढ़ा रहा है, वह भी तब जब हम सबको मालूम है कि हमारी जेलों में बहुत सारे मृत्युदंड प्राप्त कैदी काल कोठरियों में सड़ रहे हैं। दो-चार साल में राजनीतिक कारणों से उनमें से किसी एक को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। अपराध शास्त्र का एक पुराना सिद्धांत है कि दंड की गंभीरता नहीं, बल्कि उसकी सुनिश्चितता से अपराध रुकते हैं। यदि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि बलात्कारी को एक निश्चित अवधि के दंड की सजा अवश्य मिलेगी, तब भी बहुत बड़ा परिवर्तन आ सकता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, बलात्कार के मामलों में दंड पाने वालों की संख्या एक चौथाई से भी कम है। कुछ मानवाधिकार संगठनों ने अभी से आशंका जाहिर करनी शुरू कर दी है कि फांसी का दंड निर्धारित होने के बाद लिखे जाने वाले मुकदमों की संख्या के साथ दंडित अभियुक्तों की संख्या में भी गिरावट आएगी।

पिछले दिनों दिल्ली महिला आयोग की एक्टिविस्ट अध्यक्ष स्वाति मालीवाल भी मृत्युदंड के पक्ष में अनशन पर बैठ गईं। सिर्फ उन्हें दोष देना व्यर्थ है, क्योंकि निर्भया कांड के बाद बहुत से मानवाधिकार कार्यकर्ता भी मृत्युदंड के पक्ष में खड़े हो गए थे। यह वही स्थिति है, जिसमें अंध देशभक्ति के ज्वार में बहने वाले आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने की मांग करते हैं। निश्चित रूप यह किसी परिपक्व लोकतांत्रिक समाज की चेतना का लक्षण नहीं। हमें कानूनों और अदालती प्रक्रिया में ऐसे बदलाव पर क्यों नहीं सोचना चाहिए, जो अपराधी को निश्चित दंड दिलाने में समर्थ हों?

इस पूरी बहस में एक और मुद्दा छूटा जा रहा है। यह मुद्दा है भारतीय पुलिस के चरित्र और संगठन में बुनियादी परिवर्तन करने का। उन्नाव और कठुआ, दोनों ही मामलों में पुलिस पेशेवर संगठन की तरह व्यवहार न करके अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने में लगी थी। बलात्कार का आरोपी उन्नाव का विधायक सत्ताधारी पार्टी से संबंधित है। राजधानी से थाने तक जातिगत समीकरण उसके पक्ष में थे, इसलिए यह बड़ा स्वाभाविक था कि पीड़िता साल भर तक बडे़-छोटे दरबारों के चक्कर लगाती रही और उसका मुकदमा तब दर्ज हुआ, जब उसके पिता की विधायक समर्थकों ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। फिर मीडिया में मामला इतना उछल गया कि उसे दबाया नहीं जा सकता था। कठुआ में भी लगभग यही हुआ। सत्ता गठबंधन में शामिल दो दल, सांप्रदायिक कारणों से अलग-अलग पीड़िता और दोषियों के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। मतभेद का सीधा असर कठुआ पुलिस पर दिखाई दे रहा था। पुलिस ने जो चार्जशीट दाखिल की है, उसका फैसला तो अदालत करेगी, पर जिस तरह से विवेचकों को मुख्यमंत्री द्वारा बार-बार बदला गया, उससे मन में संदेह होना लाजिमी है। उन्नाव में आरोपियों द्वारा प्रयास किया गया कि मामला सीबीआई के पास न जाने पाए, जबकि कठुआ में आरोपी मांग कर रहे हैं कि विवेचना सीबीआई को सौंप दी जाए।

यह समय है कि जब वक्ती उबाल के ठंडे पड़ जाने के बाद पुलिस सुधारों पर गंभीरता से विमर्श किया जाए। पुलिस को ज्यादा पेशेवर, विवेचना में दक्ष, बेहतर उपकरणों से सुसज्जित और प्रशिक्षित करके हम कठुआ या उन्नाव की पुनरावृत्ति रोक सकते हैं। बावजूद इसके कि पुलिस और कानून-व्यवस्था राज्यों का विषय है, इसमें कोई हर्ज नहीं है कि उन पर राजनीतिक आकाओं के नियंत्रण में कुछ कमी की जाए। तमाम पुलिस आयोगों की धूल खा रही फाइलों में यही सब अनुशंसाएं तो हैं, जिन्हें लागू करना अब बेहद जरूरी हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने कई निर्णयों में इन्हीं सब पर बल दिया है। दुराचार पर चल रही राष्ट्रीय बहसों के दौरान इस गंभीर मुद्दे की लगभग उपेक्षा हो रही है। आम चुनाव में अब सिर्फ एक वर्ष रह गया है और यदि जनमत तैयार करने वाली कोई सार्थक बहस चल सके, तो संभव है कि हमारे राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्रों में पुलिस सुधारों को भी उनकी वाजिब जगह दे दें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)