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बदायूं, बलात्कार और विकास- चंदन श्रीवास्तव

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यूं तो अपने मौन के लिए जाने गये, तो भी उनका यह वाक्य भारतीय राजनीति के रोजमर्रा के पर्यवेक्षकों को दशकों तक याद रहेगा कि ‘जिस विचार का समय आ गया हो, उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती.’

इसी मिजाज का एक वाक्य साहित्यकार विक्टर ह्यूगो के नाम से भी मशहूर है. ह्यूगो के एक उपन्यास द हिस्ट्री ऑफ ए क्राइम में एक वाक्य आता है- ‘नथिंग इज स्ट्रांगर दैन ऐन आयडिया हूज टाइम हैज कम.’ क्या देश की अर्थव्यवस्था को अधिकाधिक बाजारोन्मुख बनाने की कोशिशों में लगे मनमोहन सिंह को उपयरुक्त वाक्य विक्टर ह्यूगो के साहित्य से अत्यधिक अनुराग के कारण सूझा होगा? कारण, पेरिस में आयोजित पीस कॉन्फ्रेंस (1849) के उद्घाटन भाषण में विक्टर ह्यूगो ने कहा था- ‘एक वक्त ऐसा भी आयेगा जब युद्ध के मैदान नहीं होंगे, उनकी जगह होंगे वाणिज्य के लिए खुलते बाजार और विचारों के लिए खुलते दिमाग.’

अब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं हैं, लेकिन यह खोजना कोई मशक्कत का काम नहीं कि ‘भारतीय राजनीति में किस विचार का समय आ गया चुका है.’ यह राज्य-प्रस्तुत ‘विकास’ का विचार है, लेकिन मुश्किल यह है कि यह दिमाग को विचारों को खोलने की जगह बंद करता जा रहा है. विकास का विचार अपने आप में इतना वर्चस्वशील है कि इस शब्द के सटीक संधान से चुनाव न सिर्फ प्रचंड बहुमत से जीते जा सकते हैं, बल्कि पूरी राज्यसत्ता को विकास की एकमात्र एजेंसी के रूप में तब्दील किया जा सकता है. 

किसी एक विचार की सत्ता अपने चरम पर पहुंचती है, शेष सभी विचारों को अपने व्याकरण के भीतर अनुकूलित करके. फिर सिर्फ उसी विचार का अस्तित्व रहता है. राज्य-प्रस्तुत विकास का विचार फिलहाल यही कर रहा है. कम-से-कम बदायूं (उत्तर प्रदेश) की घटना (बलात्कार) की व्याख्या में स्वयंसेवी संस्थाएं और अखबारी रिपोर्टिग से लेकर राज्य महिला आयोग तक जो सवाल और समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं, उनसे गुजरते हुए यही लग रहा है.

राज्य-प्रस्तुत ‘विकास’ का विचार अपने महा-अवतार में शेष विचारों से उनका स्वायत्त औचित्य छीन रहा है, वरना ऐसा कैसे होता कि बदायूं की घटी बलात्कार की भयावह क्रूरता भरी घटना को एक सवाल के रूप शौचालय की अनुपस्थिति से जोड़ दिया जाता और बलात्कार को रोकने में शौचालय के निर्माण को एकमात्र निदान के रूप में प्रस्तुत किया जाता? यह ठीक है कि बदायूं की दो बेटियां शौच के लिए बाहर जाते समय बलात्कार का शिकार हुई थीं, लेकिन क्या इस एक तथ्य को बलात्कार की व्याख्या और समाधान में निर्णायक माना जा सकता है? क्या विकास (शौचालय) की अनुपस्थिति को बलात्कार का निर्णायक कारण माना जा सकता है? अफसोस बदायूं की घटना के बाद सोच की एक धारा ने कुछ ऐसा ही माना. 

एक अंगरेजी दैनिक ने अपने समाचार में यह खोजा कि कटरा गांव (घटनास्थल) के 3500 परिवारों में से बस 173 परिवारों के पास शौचालय है, जिसमें कुछ तो सिर्फ कागज पर ही बने हैं. कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स एनिशिएटिव ने इस व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ‘यौन हिंसा की इन घटनाओं में एक बात सामान्य है और वह है शौचालय का न होना.’ यूपी के महिला आयोग ने कुछ ऐसा ही समाधान बताया, ‘भारत सरकार की निर्मल ग्राम योजना के तहत शौचालय बनाये जा रहे हैं, लेकिन जिनके पास जमीन नहीं है, वे शौच के लिए बाहर जाने को मजबूर हैं.’ हैरत कीजिए कि महिला आयोग ने इस समस्या को दूर करने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को एक चिट्ठी भी लिख कर मान लिया कि बदायूं कांड में अपनी ओर से उसने कर्तव्य का निर्वाह कर लिया है.

ऐसे समाधान के बीच यह सोचने का अवकाश कहां बचता है कि बलात्कार की घटना कहीं गहरे में शक्ति-संबंध को पुरुष के पाले में बैठाये रखने की युक्ति की तरह काम करती है. पुरुष-सत्ता सार्वजनिक जीवन के शक्ति-संबंधों में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी को नकारने की एक योजना के रूप में बलात्कार का व्यवहार करती है. 

खेत, बाजार, स्कूल और दफ्तर जानेवाली अकेली स्त्री बलात्कार का शिकार शौचालय के अभाव के कारण नहीं होती, बल्कि स्वयं को शक्ति के केंद्र के रूप में देखते आये पुरुष-मन में अपने एकाधिकार के टूटने के खतरे की सूचना के रूप में दर्ज होने की वजह से होती है. पुरुष ‘बलात्कार’ का व्यवहार स्त्री की सार्वजनिकता को दंडित करने के लिए करता है. उसके मन के किसी तल में यह विचार सक्रिय रहता है कि स्त्री सार्वजनिक फैसलों में हिस्सेदारी न करे, घर की चारदीवारी में ही कैद रहे. यूपी-बिहार के ग्रामीण परिवेश में इस व्यवहार का एक पक्ष जातिगत-समुदायगत रूप भी धारण करता है.

विचार के धरातल पर देखें, तो बदायूं की घटना को शौचालय के होने और न होने से जोड़ना दरअसल पुरुष-सत्ता को बलात्कार की जिम्मेवार के तौर पर मुक्त करना है.