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बराबरी का फलसफा और हम - गोपालकृष्‍ण गांधी

साम्यवाद का भविष्य। यह भी आज किसी लेख का विष्ाय हो सकता है क्या? कांग्रेस का भविष्य, नेहरू-गांधी परिवार का भविष्य, लोकतांत्रिकता का भविष्य, अल्पसांख्यिकता का भ्ाविष्य, स्वतंत्र विचार, स्वतंत्र लेखन, स्वतंत्र चिंतन का भविष्य, इन सब पर सोच वाजिब और लाजिम है। लेकिन साम्यवाद..?

साम्यवाद करके जब कुछ रहा ही नहीं है, उस नाम के दोनों दलों माकपा और भाकपा के जब लोकसभा में सदस्य ही नहीं के बराबर हैं, केरल और पश्चिम बंगाल में जब दोनों दल इतनी बुरी तरह हार चुके हैं, जबकि उनके पुनरुत्थान का कोई नाम नहीं ले रहा, तब साम्यवाद का भविष्य चर्चा का विषय बन सकता है क्या?

बन सकता है। बनना चाहिए।

क्यूंकि साम्यवाद एक दल मात्र नहीं, वह एक विचारधारा है, विचारों का समूह है। लोकचेतना का, लोक-जागरण का, लोक-संगठन का समूह है। अवामी तजरिबे का, अवामी इंतेजामों का दरिया है। श्रमजीवियों का वह प्रतीक है, उनका सहारा है। किसानों-मजदूरों का हमसफर है, उनका हमदर्द दोस्त, उनकी उम्मीदों का सिपाही।

अगर आज रेल स्टेशनों पर 'कुली" को 'कुली" कहना असभ्य और 'पोर्टर" कहना माकूल और शाइस्ता लगता है तो वह साम्यवाद का ही असर है। अगर कारखानों में मजदूर को अपने हक कायदे से मिल रहे हैं तो वह मजदूर यूनियनों की उपलब्धि है, और वह उपलब्धि और कहीं से नहीं, साम्यवादी विचारधारा से मिली है। यूनियन भले अलग-अलग दलों के आश्रय में पनप रही हों, उनका मूल सिद्धांत और कहीं से नहीं, साम्यवाद से मिला है। अंग्रेजी में 'मिनिमम वेज" जिसे कहते हैं, 'इससे कम ना होने वाला वेतन", वह साम्यवाद की ही कोख से जन्मा है। भूमि सुधार, जिससे पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में लाखों किसानों को जमीनी अधिकार मिले और जिससे उनकी बेहाली दूर हुई, वह साम्यवाद ही है, साम्यवादी सोच ही है। बंगाल का 'तिभागा आंदोलन" और केरल का 'मिच्छ भूमि समारम" साम्यवाद के फल थे। साम्यवाद न होता तो जमीनी मिल्कियत पर चोट न लगती, जायदाद-ए-जोर पर रोक न होती।

आज लाल झंडा लहरा नहीं रहा, वह अपनी खुद की तहों में लिपट गया है। लेकिन अगर वह 'तब" हुआ ही न होता, अगर लाल सलाम 'तब" सुना हुआ ही न होता, तो 'आज" हमारी सियासत में इंसाफ और इंकलाब झुका हुआ होता, ऐतबार दबे पांव चलता हुआ होता, इत्तेहाद न होता, मजदूरों-किसानों में इत्तेफाक न होता।

और तो और, गांवों में जालिम सितम इतराता, हर किस्म का इजारा ऐंठता।

साम्यवाद को हम दलों से नहीं, दिलों से देखें तो पाएंगे कि वह हिंदोस्तां का एक अजीबो-गरीब खैरख्वाह है। हां, साम्यवादी दलों से गलतियां हुई हैं। भारी गलतियां। लेकिन और दलों से नहीं हुई हैं क्या? कांग्रेस ही से कुछ कम गलतियां हुई हैं?

केरल में दुनिया की पहली निर्वाचित साम्यवादी सरकार को किसने हटाया था? केरल के कांग्रेस दल के प्रोत्साहन पर, कांग्रेस ही की केंद्रीय सरकार ने। वह कदम असंवैधानिक, अवैध था या नहीं, यह विशेषज्ञ कहें, लेकिन वह अनैतिक जरूर था।

साम्यवादी सरकारों का नाम है कि वे तानाशाही होती हैं। होती भी हैं, जैसे कि रूस, तब के पूर्वी यूरोप में, आज भी चीन में। लेकिन हिंदोस्तां में 'आपात" के नाम से मानवाधिकारों को मिट्टी में मिलाने का काम किसी साम्यवादी सरकार ने नहीं, 'अपनी" ही इंदिरा जी की कांग्रेस सरकार ने किया था।

'अच्छा," पाठक पूछ सकते हैं, 'तो आपका यह सब लिखने-कहने का मकसद क्या है?"

साम्यवादी दलों की खुशामद?

वह बदनामी भी मुझे अस्वीकार नहीं, अगर पाठक इतना मेरे साथ समझने का कष्ट करें कि क्यूं, कैसे आज साम्यवाद के भविष्य का उजागर होना हमारे लिए, हमारे स्वाभिमान के लिए जरूरी है।

साम्यवाद आज जरूरी इसलिए है कि समता आज खतरे में है। और समता का दूसरा नाम है अ-तमस, यानी

बे-अंधकारी। रोशनी।

रौनक नहीं, रोशनी।

आज हिंदोस्तां में रौनक का बोलबाला है।

बहुमंजिला दुकानें, जिन्हें 'मॉल" के नाम से जाना जाता है, उनमें रौनक। महानगरों के फ्लाई-ओवरों में रौनक। मंत्रिमंडलों के शपथ-ग्रहणों में रौनक। नेताओं की जन्म-तिथियों में रौनक। खेल-जगत में रौनक। अखबारों-इश्तिहारों में रौनक।

लेकिन रोशनी?

वह रोशनी, जो कि दलितों का सहारा बने, अबलों का बल बने, वह रोशनी?

सुनने में आता है कि महात्मा गांधी नरेगा योजना को सकुचाया जाएगा। क्यूं? उसमें खामियां हैं तो उन खामियों को दूर किया जाए। मर्ज के नाम से मरीज को मारा नहीं जाता। लाखों को मनरेगा ने रोजगारी यानी रोटी दिलाई है। कहते हैं, आलस्य बढ़ रही है मनरेगा से। लेकिन आलस्य कहां नहीं है? सियासी लोग क्या मेहनत के, श्रम-परिश्रम के, अनिद्रा के जीवंत बिम्ब हैं? आलस्य सिर्फ दिखती है गांवों के गरीबों में?

कहते हैं, भ्रष्टाचार है मनरेगा के हिसाब-किताब में। सर्वोच्च न्यायालय से पूछें, भ्रष्टाचार और कहां है, कहां नहीं है। यूपीए सरकार लाई थी मनरेगा को। लेकिन मनरेगा के समर्थन में आज सेवा-समर्पित अरुणा रॉय के साथ साम्यवादियों ही ने आवाज उठाई है। आरटीआई कानून पर जब साम्यवादी दल सत्ता में रहे, कुछ अनुत्साहित ही रहे। आरटीआई कानून से देशभर को कुछ अनोखे अधिकार मिले हैं। हां, उसका बेहद दुरुपयोग भी हुआ है।

छोटे-छोटे अफसरों को, छोटे-छोटे सबक सिखाने, धूल में उनकी नाक रगड़ने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल हुआ है। लेकिन मोटे तौर पर आरटीआई जैसा बुलंद कानून आजादी के बाद से और नहीं बना।

आज अगर आरटीआई कानून पर कोई रोक लगाई जाती है तो मुझे यकीन है कि साम्यवादी विचार के लोग अपनी आवाज उठाएंगे। साम्यवाद की सबसे बड़ी ताकत रही है उसके नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों की ईमानदारी।

साम्यवाद की एक बड़ी कमजोरी रही है उसके नेताओं की आत्म-निर्भरता, जो घमंड का रूप ले लेती है। जैसे कि उनसे ज्यादा गरीबी को कोई नहीं समझता हो। क्या जहां मुर्गा कुकडू-कूं नहीं बोलता, वहां सूरज नहीं उगता? इस ही घमंड ने साम्यवाद से समाजवाद को अलग कर रखा है। यह द्वंद्व, यह द्वैत, अब बंद होना चाहिए। साम्यवाद का भविष्य समाजवाद में है। और समाजवाद का भविष्य संघर्ष में है। अहिंसात्मक, बा-कानूनी, प्रजातांत्रिक संघर्ष।

समता के लिए, सामाजिक न्याय के लिए।

रौनक की झिलमिल से जूझने वाली दीये की रोशनी के लिए।

(लेखक पूर्व राज्यपाल, उच्चायुक्त और सेंटर फॉर पब्लिक अफेयर्स एंड क्रिटिकल थ्योरी में सीनियर फेलो हैं