Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/बराबरी-के-हक-की-पुरानी-लड़ाई-एस-श्रीनिवासन-10574.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | बराबरी के हक की पुरानी लड़ाई- एस श्रीनिवासन | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

बराबरी के हक की पुरानी लड़ाई- एस श्रीनिवासन

तमिलनाडु में उत्सवी बयार बह उठी है, क्योंकि यह ‘आदि' का महीना है। तमिल कैलेंडर का चौथा महीना। इसकी शुरुआत जुलाई के मध्य महीने में हो जाती है। मान्यता है कि ‘दक्षिणया पुण्यकाल' आरंभ हो जाता है, यानी देवताओं के लिए रात की शुरुआत। यह महीना जल और प्रकृति से जुड़ी देवियों को समर्पित है। लिहाजा पूरे राज्य में अम्मा और देवी मंदिरों में पूजा-आराधना शुरू हो जाती है। कहा जाता है कि इस महीने में भक्त परमसत्ता के साथ एकाकार होने की कोशिश करता है, अपने पुरखों को श्रद्धांजलि देता है और इसीलिए इस दौरान शादी या इस तरह के दूसरे संस्कार नहीं किए जाते। यह वह महीना है, जब सूरज की तपिश कम हो जाती है और बरसात अपने रंग में होती है। नदियां और तालाब लबलबा उठते हैं। लोग मानसून का जश्न मनाने लगते हैं। आदि बुवाई का महीना है, क्योंकि इस माह में मानसून अपने चरम पर होता है।

पिछले कुछ वर्षों से इस महीने में विभिन्न जाति-समूहों के बीच मंदिरों में टकराव की घटनाएं होने लगी हैं। जाहिर है, ये घटनाएं अमूमन दलितों के विरुद्ध होती हैं, क्योंकि उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने से रोका जाता है। ज्यादातर मंदिर मध्यवर्ती जातियों के वर्चस्व वाली ग्राम-परिषदों के नियंत्रण में होते हैं। कुछ ही दिनों पहले तमिलनाडु के नागपट्टिनम के एक गांव में दलित और अन्य हिंदू जातियां एक ही दिन मंदिर में ‘मंडगपई परंपरा' निभाना चाहती थीं। मध्यवर्ती व सवर्ण हिंदू जातियों का दावा था कि दशकों से वही यह परंपरा निभाती आ रही हैं और वे अपना यह हक नहीं छोड़ेंगी। दलित इसमें हिस्सेदारी चाहते थे, जिसके परिणामस्वरूप दोनों वर्गों में टकराव बढ़ गया। जब जिला प्रशासन सर्वमान्य हल निकालने में नाकाम रहा, तो उसने मंदिर को बंद करने का फैसला किया। अब दोनों पक्ष समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं।

पेरांबलूर जिले के एक गांव में मंदिर के पुजारी ने ‘निचली जातियों' के श्रद्धालुओं की बकरे या मुर्गे की बलि को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। आखिरकार हिंदू धर्मादा विभाग ने दो पुजारियों को बर्खास्त कर दिया। उधर कृष्णागिरी जिले में दोनों पक्षों ने साथ-साथ उत्सव मनाने का फैसला किया, लेकिन जब आतिशबाजी का कार्यक्रम हो रहा था, तब दोनों पक्ष भिड़ पड़े। पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा और चार लोग गिरफ्तार भी किए गए।

शिवगंगई जिले की घटना काफी सुर्खियों में रही। वहां एक राजस्व अधिकारी ने दलितों और मध्यवर्ती जातियों-सवर्णों को दो अलग-अलग दिन पूजा करने का प्रस्ताव दिया। अधिकारी ने अपनी युक्ति से यह समाधान निकाला कि पहले मध्यवर्ती जातियां पूजा करेंगी, फिर उसके अगले हफ्ते दलित पूजा करेंगे। इस आदेश ने वर्र के छत्ते को छेड़ दिया। मध्यवर्ती जातियों के नुमाइंदों की दलील थी कि दलित हावी होने की कोशिश कर रहे है और वे उसी दिन पूजा करने की इजाजत हासिल करने की कोशिश में है, जिस दिन मध्यवर्ती जातियां पूजा करती हैं। दूसरी तरफ, दलित संविधान की दुहाई देते हुए मांग कर रहे हैं कि उन्हें पूजा करने का समान अधिकार चाहिए।

दिलचस्प बात यह है कि इन मध्यवर्ती जातियों को मंदिर बनाने में दलितों के सहयोग से कोई दिक्कत नहीं, बल्कि दलित उनके निर्माण में बाकायदा चंदा देते हैं। लेकिन जब वे मंदिर में पूजा करने के लिए पहुंचते हैं, तो उन्हें भेदभाव का शिकार बनना पड़ता है। कई गांवों में दलितों को मंदिर के तालाब में उतरने की इजाजत नहीं है। लेकिन वही लोग ‘ऊंची जाति' के हिंदुओं के खेतों में कृषि मजदूर के तौर पर काम करते हैं। यहां तक कि मंदिरों की साफ-सफाई कराने से भी कथित ऊंची जातियों को कोई गुरेज नहीं। दलितों के हक के पैरोकारों का कहना है कि सरकार को दखल देते हुए दलितों को उनका सांविधानिक हक दिलाना चाहिए। मध्यवर्ती जातियां ‘परंपरा' की दुहाई देते हुए दलितों पर जान-बूझकर हावी होने की कोशिश के आरोप मढ़ रही हैं। हिंदुत्ववादी ताकतें बचाव की मुद्रा में हैं। सार्वजनिक तौर वे दोनों पक्षों में तालमेल की वकालत कर रही हैं, लेकिन वे इस बात से खासा चिंतित हैं कि दलित नेता उनकी बात मानने को तैयार नहीं हैं।

केरल में 1936 में ही त्रावणकोर के महाराजा ने सभी जाति के हिंदुओं को सभी तरह के बंधनों से मुक्त करते हुए राज्य के किसी भी मंदिर में पूजा-आराधना की छूट दे दी थी। वह एक शुरुआत थी। फिर आजादी के आंदोलन के साथ गुंथे कुछ सामाजिक आंदोलनों ने छुआछूत को समाप्त करने और उन रवायतों को तोड़ने की मांग की थी, जो दलितों को सवर्णों के इस्तेमाल वाले कुओं से पानी लेने या मंदिर के परिक्रमा मार्ग पर पांव रखने से रोकती थीं। त्रावणकोर के राजा के उस क्रांतिकारी कदम के 80 साल बाद भी आज देश के अनेक सुदूर इलाकों में जाति आधारित भेदभाव जारी है। सरकार ने 1955 में ही एक सख्त कानून के जरिये किसी तरह की छुआछूत पर रोक लगा दी थी। लेकिन इस कानून का क्रियान्वयन बेहद ढीला रहा। ‘नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित ऑर्गेनाइजेशन' के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत के 37 प्रतिशत गांवों की स्कूली कक्षाओं में दलित बच्चों को अलग बिठाया जाता है। मंदिर में प्रवेश करने से रोकने के अलावा पुलिस स्टेशनों, राशन की दुकानों और दूध की खरीद-बिक्री में भी दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु से लगातार ‘निम्न जातियों' के लोगों के साथ बुरे बर्ताव की खबरें आती हैं।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मंदिर में प्रवेश को लेकर ही दलितों से भेदभाव होता है, बल्कि उनकी जिंदगी के दूसरे क्षेत्र भी इसके शिकार हैं। उदाहरण के लिए, उन्हें उचित नौकरी नहीं मिलती और उनको बाध्य किया जाता है कि वे सड़क बुहारें या फिर कम आमदनी वाले पेशे को अपनाएं। आखिर क्यों संविधान से संरक्षण मिलने और सख्त कानून के रहते हुए भी दलितों को उनके वैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है?

दलितों की तादाद काफी है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक की 25 और तमिलनाडु की 18 फीसदी आबादी दलितों की है, लेकिन चूंकि वे बंटे हुए हैं, इसलिए राजनीतिक सत्ता में भी उन्हें पर्याप्त नुमाइंदगी नहीं मिली है। वे अब भी संगठित नहीं हैं। उत्तर प्रदेश अपवाद है, जहां मायावती ने कई बार सत्ता का स्वाद चखा है। लेकिन दलितों के साथ भेदभाव अब भी कायम है।
(ये लेखक के अपने विचार है)