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बहुत कठिन है खेती की राह..जानिए कैसे

भारत में किसानों की दशा दशकों तक नजरअंदाज किये जाने के कारण अब बुरी तरह बिगड़ चुकी है. सरकार ने खेतिहरों की आय दोगुना करने तथा उपज का उचित दाम दिलाने का वादा किया है, जिसे पूरा करने की दिशा में इस साल कुछ ठोस कोशिश की उम्मीद है. खेती को फायदेमंद पेशा बनाने, फसलों के सही मूल्य दिलाने, कर्ज से राहत आदि की प्राथमिकताएं इस साल हैं. इस संबंध में विभिन्न पहलुओं पर एक नजर...
बढ़ती किसान आत्महत्या


बीते साल मई में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि देश में हर साल 12 हजार से अधिक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं. यह औसत 2013 से है. कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का आकलन है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा का लाभ 20 फीसदी छोटे और सीमांत किसानों तक नहीं पहुंच पा रहा है, जबकि सरकार ने हजारों करोड़ रुपये निजी बीमा कंपनियों के पास रखा हुआ है. विभिन्न सरकारी आंकड़ों पर आधारित इंडियास्पेंड के विश्लेषण के मुताबिक देश के नौ करोड़ खेतिहर परिवारों का करीब 70 फीसदी हिस्सा हर महीने अपनी औसत कमाई से ज्यादा खर्च करता है.


इसका नतीजा यह है कि ऐसे परिवार कर्ज के जाल में फंसते चले जाते हैं. एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि कर्ज के बोझ से दब कर आत्महत्या करनेवाले 80 फीसदी किसानों ने महाजनों से नहीं, बल्कि बैंकों से पैसा लिया था. आत्महत्या की घटनाएं कृषि संकट के निरंतर गंभीर होने का संकेत देती हैं. इस वर्ष सरकार को नीतिगत पहल कर इसे रोकने की महती चुनौती होगी.


किसानों के लिए तय हो न्यूनतम मासिक आय

देविंदर शर्मा
कृषि अर्थशास्त्री


हमारे देश में कृषि को लेकर बहुत सारी चुनौतियां हैं, क्योंकि इस वक्त कृषि क्षेत्र संकटों से जूझ रहा है, जिसके चलते किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं. ऐसा नहीं है कि सुधार की उम्मीद नहीं है, लेकिन यह जरूर है कि ठोस पहल का अभाव है. इसे विस्तार से समझते हैं कि आखिर स्थिति क्या है.


पिछले साल एक बहुत महत्वपूर्ण घटना घटी- एक ‘नये गुजरात माॅडल' का हमारे सामने आना. इस माॅडल में गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भाजपा को वोट नहीं मिले या बहुत कम मिले. वे वोट कांग्रेस को मिले. इस बात से भाजपा को समझ में आया है कि मामला कुछ गड़बड़ है.


मैं इसको ‘नया गुजरात माॅडल' इसलिए कहता हूं, क्योंकि इस साल आठ राज्यों में चुनाव होने हैं, जिनमें चार बड़े राज्यों (कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में अगर ग्रामीण-किसान ‘नये गुजरात माॅडल' को ही अपनाते हैं, तब सरकारों को यह समझ में आयेगा कि ग्रामीण इलाकों में आक्रोश क्यों है और देश की राजनीति ठीक नहीं कर रही है. मैं इस बात की उम्मीद भी कर रहा हूं कि इन चारों राज्यों में भी वोट के माध्यम से किसानों का गुस्सा नये गुजरात माॅडल की तरह ही दिखाई देगा. लोकतंत्र में यही एक बड़ा और बेहतरीन रास्ता है.


ठोस पहल का अभाव


सरकार हमेशा कहती है कि कृषि संकट को दूर करने के उपाय कर रही है. लेकिन, यहां मुख्य बात यह है कि यह संकट है क्या. सरकार कुछ कदम निवेश या इंफ्रास्ट्रक्चर के माध्यम से उठाती है. जैसे कि स्वाइल हेल्थ कार्ड की ही बात करें, तो यह योजना सही है, लेकिन इससे किसानों की आय नहीं बढ़ती है. वहीं 'पर ड्रॉप, मोर क्रॉप' का स्लोगन भी आय बढ़ाने में सहायक नहीं होता है. लेकिन, इन दोनों योजनाओं के लिए बड़ा निवेश चाहिए. मसलन, अगर शहर में फ्लाईओवर बनता है, तो वह लोगों की सुविधा के लिए बनता है, लेकिन उससे स्थायी आय का जरिया नहीं बनता. यही बात हमें खेती के संदर्भ में भी समझना होगा.
आमदनी को बढ़ाने के लिए कोई ठोस पहल करनी होगी.


दरअसल, सरकार यह बात मानती तो है कि किसानों की आमदनी बढ़नी चाहिए, लेकिन वह यह नहीं बताती कि आखिर किसानों की आय अभी है क्या? किसानों की आमदनी को लेकर सिर्फ यह कह देना कि हम पांच साल में किसानों की आय दोगुनी कर देंगे, तो यह कोई रास्ता नहीं है. साल 2018 में कुछ ठोस कदम उठाये जायें, ताकि लगे कि किसानों के लिए सरकार कुछ कर रही है.
किसान आयोग का गठन!


साल 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण यह बताता है कि भारत में एक किसान की औसतन आय 20 हजार रुपये सालाना है. ऐसे में अगर यह दोगुनी हो भी गयी, तो उससे क्या होगा? जहां तक एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को पचास प्रतिशत बढ़ाने की बात है, तो खेती को संकट से उबारने का यह एक तरीका ठीक है.


लेकिन, यह काफी नहीं है. क्योंकि, एमएसपी सिर्फ देश के छह प्रतिशत किसानों को ही मिलता है और बाकी 94 प्रतिशत किसान इसके दायरे में नहीं आते. इसलिए मेरा मानना है कि दस करोड़ किसान परिवारों के लिए एक किसान आय आयाेग के गठन की जरूरत है. इस आयोग का यह काम हो कि पैदावार और भौगोलिक क्षेत्र को लिंक करके किसान आय की व्यवस्था करे. क्योंकि, हिमाचल प्रदेश में खेती करनेवाले और बिहार में खेती करनेवाले किसानों की आय एक-समान नहीं हो सकती. आयोग यह तय करे कि 18 हजार रुपये न्यूनतम मासिक आय एक किसान के लिए निर्धारित हो.


किसानों के लिए न्यूनतम मासिक आय की इसलिए जरूरत है, क्योंकि हमारे किसानों को 12 लाख 80 हजार करोड़ रुपये का हर साल चूना लगता है. यही कारण है कि किसान मर रहे हैं.
इसके लिए मैं अंग्रेजी का शब्द इस्तेमाल करता हूं- 'फार्म थेप्ट' यानी 'कृषि चाेरी'. हर साल सरकारें देशभर के किसानों की जेब से 12 लाख 80 हजार करोड़ रुपये निकाल लेती हैं. यह कुछ उसी तरह है, जैसे 'वेज थेप्ट'. यानी काम करनेवाले को जो तनख्वाह मिलनी चाहिए, वह जब नहीं मिलती, तो उसे 'वेज थेप्ट' कहते हैं.


किसानों के लिए सरकारी मदद
खेती-किसानी के संकट को दूर करने में जब भी किसानों की न्यूनतम आय के लिए सरकारों से बड़े निवेश की बात आती है, तो देश का शहरी तबका यह कहता दिखता है कि आखिर इतना पैसा कहां से आयेगा? लेकिन, मेरा मानना है कि किसानों के लिए भी पैसा वहीं से आयेगा, जहां से सातवें वेतन आयोग के लिए आयेगा. देश के महज एक प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग लागू होगा, तो हर साल 1.02 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च बढ़ेगा.


लेकिन, इस संबंध में एक अध्ययन कहता है कि जब सारे देश में यह सातवां वेतन आयोग लागू हो जायेगा, तब यह अतिरिक्त खर्च 4.80 लाख करोड़ रुपये हो जायेगा. इस अतिरिक्त खर्च के बारे में किसी ने नहीं पूछा कि इतना बड़ा पैसा कहां से आयेगा. महज एक प्रतिशत कर्मचारियों के लिए सरकार इतना खर्च कर सकती है, लेकिन पचास प्रतिशत से ज्यादा की किसानों की आबादी के लिए अगर इतनी ही रकम की मांग की जाये, तो कहा जाएगा कि इससे देश में इससे सरकार पर बोझ बढ़ जायेगा.


इंडस्ट्री के लोग कहते हैं कि सातवें वेतन आयोग के लागू होने से डिमांड बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था सुधरेगी. सवाल है कि क्या किसानों की आय बढ़ने से यह डिमांड नहीं बढ़ेगी? यही एक रास्ता है, कि हम किसानों की आय बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करें और ठोस नीतियां बनायें.


तभी उनकी आत्महत्याएं भी रुकेंगी और उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ महंगाई की समस्या भी दूर होगी. नये साल में हमें किसानों की न्यूनतम मासिक आय तय करने का संकल्प लेना चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)