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बा-सफा कोई नहीं : गोपालकृष्ण गांधी

‘यह सब राजनीति है’ या ‘राजनीतिज्ञों से आखिर और क्या उम्मीद कर सकते हैं।’ इस किस्म की बातें हम अक्सर सुनते हैं। खुद कहते भी हैं। ‘राजनीति’ और ‘राजनीतिज्ञ’ शब्द आज संकट में हैं। यह संकट खुद उन्होंने पैदा किया है। कुछ अपवाद भी हैं, ऐसे राजनीतिज्ञों के जो न तो परेशानी में हैं और न विवाद में। इसके लिए हम भगवान के शुक्रगुजार हैं। पर ऐसे अपवाद बहुत कम हैं। दुर्लभ भी। वे खतरे में हैं। ‘मानक राजनीतिज्ञ’ अब उसे माना जाता है जो आदर्शो के मामले में बौना है और चालाकी में दिग्गज, कोई ‘कानून’ उस पर लागू नहीं होता, किसी ‘नियम’ से वह शासित नहीं होता। फैज अहमद फैज ने कहा है : ‘शहर-ए-जानां में अब बा-सफा कोई नहीं।’

वह ‘राजनीति का घर’ जिसने कभी दादाभाई नौरोजी और लोकमान्य तिलक जैसे सच्चे इंसानों को कृपापूर्वक शरण दी थी, अब ‘अच्छा’ पता नहीं माना जाता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है उस ‘घर’ के लिए, जिसने स्वतंत्रता के बाद के समय में, यहां तक कि नेहरू, पटेल, राजाजी के बाद के समय में भी आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण जैसे पारदर्शी पुरुषों को कृपा और जगह दी थी।

राजनीति आज एक इलाका बन गई है। ऐसा इलाका जिसमें गाड़ियां खड़ी करने, माल बेचने, मटरगश्ती करने और शयन करने के स्थान या तो भरे हैं या ‘किराये’ पर उठा दिए गए हैं। हां, कोई चाहे तो उन पर अपना दावा और कब्जा कर सकता है। उसके बाद भी वे फिर ‘दावा’ और ‘कब्जा’ करने के लिए उपलब्ध हैं। ऐसा इलाका जिसमें कोई ‘शालीन’ पुरुष या स्त्री प्रवेश करने का साहस नहीं करेगी।

आज राजनीति का मतलब हो गया है इलाके और सत्ता के खेल। दबंगई और ताकत। ऐसी व्यवस्था बना ली गई है जिसमें सभी को अपने हिस्से का फायदा मिल सके। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में इस कदर पैसा उड़ेल दिया गया है कि जीतना या हारना पूरी कवायद का एक हिस्सा भर है, छोटा-सा मामूली हिस्सा। इस खेल का नाम जीतना या हारना नहीं है, खेल का नाम है पैसा बनाना।

पहली लोकसभा में 35 फीसदी सांसद कानून के स्कूल में पढ़कर आए थे। वर्तमान लोकसभा के मात्र 15 फीसदी कानून-निर्माता सांसदों की कानूनी पृष्ठभूमि रही है। उनमें से कितने फीसदी कथित तौर पर कानून तोड़ने वाले हैं, यह मैं नहीं कहूंगा। एक और तथ्य नजर में आता है, जिसे अतियर्थाथवादी ही कहा जा सकता है। पहली लोकसभा में ऐसे सांसदों की गिनती मुट्ठी भर से ज्यादा नहीं होगी, जो ईश्वर को खुश करने के लिए अंगुलियों में अंगूठियां पहनते थे या बुरी नजर से बचने के लिए कलाई पर धागा बांधते थे।

उस लोकसभा के नेता जवाहरलाल नेहरू थे जो खुद न अंगूठी पहनते थे, न धागा बांधते थे। मैं नास्तिक नहीं हूं और एक साधारण मनुष्य होने के नाते अक्सर उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की मेहर पाने के लिए विनती करता रहता हूं। लेकिन किसी को भी अपने राजनीतिक कैरियर के लिए या खुद अपने कर्मो से पैदा अपने भय और कमजोरियों के लिए उस सृष्टिकर्ता को तकलीफ नहीं देनी चाहिए। आज बड़ी संख्या में श्रद्धालु सांसद ऐसे आभूषण पहनते हैं और वे सभी पार्टियों में हैं।

आज एक राजनीतिज्ञ से पूछिए कि वह क्या है, अपने अंतरतम में वह किस चीज में विश्वास करता है और किस चीज के लिए शिद्दत से खड़ा होता है, तो आश्चर्य मत कीजिएगा यह देखकर कि वह सच्ची उलझन में पड़ जाएगा। उसे झटका भी लग सकता है मानो कोई बिजली का तार छू गया हो। लेकिन अगर आप उससे पूछें कि वह किस चीज के लिए लड़ रहा है, वह क्या जीतना चाहता है, तो वह ज्यादा आसानी महसूस करेगा। फिर वह किसी आइकनिक नेता का नाम लेगा। आज आइकन ने विचारों की जगह ले ली है।

क्या आज राजनीतिज्ञों और राजनीति से किसी भी, किसी अर्थपूर्ण चीज की अपेक्षा की जा सकती है? हमें समाधान या मुक्ति की उम्मीद करनी ही चाहिए। ठीक इसलिए कि हमने बेहतर स्थितियां देखी हैं और उस बेहतर समय को बीते ज्यादा समय नहीं हुआ है। लेकिन इसकी शुरुआत राजनीतिज्ञों से नहीं हो सकती है। वे तो अभिनेता हैं। परिवर्तन नाटक की पटकथा से आना चाहिए। दूसरे शब्दों में, बदलाव की शुरुआत गण्राज्य ‘हम भारत के लोग’ की नई पटकथा लिखने वाले लेखकों से होनी चाहिए।

हमें यह मुश्किल सच्चई स्वीकार करनी ही होगी कि हमारी राजनीति में खोट आई है तो इसमें हम भारत के लोगों का भी हाथ है। हमने अक्सर उसे चुना जिसे हम ‘दो बुराइयों में से कमतर’ मानते थे। जब राजनीति ने देश के कानून का अपहरण कर लिया, तब हम चुपचाप बैठे देखते रहे। जब हमें खाल खींच लेनी चाहिए थी, हमने माफ कर दिया। जब हमें घूरकर आंखों में देखना चाहिए था, हमने नजरें फेर लीं।

जब हम यह समझेंगे और लोकतंत्र में अपनी भूमिका को बदलना शुरू करेंगे, तभी हम राजनीतिज्ञों से नई भूमिका निभाने की अपेक्षा कर सकेंगे। तभी धनबल को अपनी सही भूमिका निभाने के लिए लौटाया जा सकेगा और गुमराह राजनीतिज्ञों व गैर-राजनीतिज्ञों दोनों को जिम्मेदार बनाया जा सकेगा। दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति ने कहा था, ‘हम जैसे हैं, वैसी ही दुनिया है।’

क्या ऐसा करने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। हां, देर हुई है, पर बहुत देर नहीं हुई है। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि ‘हम भारत के लोग’ न तो कमजोर हैं न अकेले। हाल के हफ्तों में हमने देखा कि हमारी संवैधानिक सत्ताओं ने राजनीतिज्ञों तथा उनके साथ व अधीन काम करने वाले लोगों को उनके अपराधों के लिए न्याय के कठघरे में लाकर किस तरह आम आदमी की आम समझ को आम हितों से जोड़ा। हमारे कानून निर्माताओं ने राष्ट्र हित में इस्तेमाल के लिए ही इन संवैधानिक सत्ताओं - सुप्रीम कोर्ट, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, सूचना का अधिकार कानून - की रचना और स्थापना की थी।

हमें उस संजीवनी जड़ी-बूटी की खोज करनी है जो इन संस्थाओं में छिपी है। थोड़े-बहुत बचे रहे गए अपवादों को समूची प्रदूषित हो चुकी राजनीति से बचाने के लिए, राजनीति को और ज्यादा प्रदूषित होने से रोकने के लिए और तंत्र के भीतर पैठ चुकी बुराइयों को बाहर निकालने के लिए हमें इसी संजीवनी के निदान की जरूरत है। फिर वह चाहे कितनी भी कड़वी और तीखी क्यों न हो। हमारे राजनीतिक भविष्य के आसमान से कोई ईश्वर जैसी रचना उतरकर नहीं आएगी। यह हमें ही करना होगा।

लिहाजा इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा और भ्रष्टाचार के बीच जो थोड़े-से साहसी, दुर्लभ और खतरे से घिरे अपवाद लोग हैं, हमें उन्हें ही मदद, प्रोत्साहन और समर्थन देना होगा ताकि वे खड़े हों व आगे आएं और हमारे सामने, कानून बनाने वालों को बनाने वालों के सामने सच्चई बयान करें। हमारे लिए उचित यही होगा कि राष्ट्र के बड़े और सामूहिक हित में हम पश्चाताप करने वालों को माफ कर दें, आहतों को भूल जाएं और हमारे ही कुछ लोगों ने स्वार्थ से जो ले लिया है उसे जाने दें। इस तरह अपनी राष्ट्रीय गंगा को टॉक्सिनों से मुक्त करें।

लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।