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बाज आएं जातिवाद की सियासत से- संजय गुप्त

जातिगत जनगणना के आंकड़ों की आड़ में हो रही राजनीति के बीच केंद्रीय वित्तमंत्री ने यह स्पष्ट करके अच्छा किया कि राज्यों को ये आंकड़े पहले ही भेजे जा चुके हैं और वे जातियों-उपजातियों, गोत्रों आदि के असमंजस को दूर कर दें तो फिर तर्कसंगत वर्गीकरण का काम शुरू हो। यह काम 'नीति आयोग" की एक समिति करेगी और फिर जातिवार आंकड़ों को देश के सामने लाया जाएगा।

2011 की जनगणना में सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के साथ-साथ जातिवार आंकड़े भी एकत्र किए गए थे, लेकिन पिछले दिनों जब इस सर्वेक्षण के नतीजों को सार्वजनिक किया गया तो जाति जनगणना का विवरण न जारी करने पर सवाल उठे। जातीय समूहों के जरिए राजनीति करने वाले अनेक दलों के साथ-साथ कांग्रेस ने भी सरकार से जातिगत आंकड़े जारी करने की मांग की। हर कोई इससे परिचित है कि हमारा समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित है और देश में अनेक ऐसे राजनीतिक दल हैं जो इस विभाजन का लाभ अपनी राजनीति चमकाने के लिए करते हैं। उनकी समस्त रीति-नीति ही जातियों पर आधारित है।

चूंकि जातियों की राजनीति करना बहुत सरल है, इसलिए यह न केवल फल-फूल रही है, बल्कि सामाजिक विभाजन को गहराने का भी काम कर रही है। विडंबना यह है कि जो दल जातिविहीन समाज की सबसे अधिक बातें करते हैं, वे ही जातीय राजनीति को सर्वाधिक बढ़ावा दे रहे हैं। देश का दुर्भाग्य यह रहा कि राजनीतिक स्तर पर ऐसी एक भी ठोस पहल नहीं हुई जिससे समाज में जातीयता की भावना कमजोर होती और सभी नागरिकों को सबसे पहले एक भारतवासी के रूप में देखने का आधार तैयार होता। कोई राष्ट्र तभी आगे बढ़ सकता है, जब उसके नागरिक पहले यह सोचें कि राष्ट्रीयता ही उनकी सबसे बड़ी पहचान है, न कि इसे महत्व दिया जाए कि वे किस जाति, उपजाति, समुदाय अथवा क्षेत्र या वर्ग से संबंधित हैं।

भारत में जातीय आधार पर सामाजिक विभाजन सदियों पुराना है। सबसे पहले अंग्रेजों ने इस विभाजन का इस्तेमाल भारत पर शासन करने के लिए किया। उनके बाद राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए। राजनीतिक दलों ने न केवल जातियों के आधार पर अपनी राजनीति की, बल्कि मजहब का इस्तेमाल भी किया। उन्हें जातियों और समुदायों को एक-दूसरे के सामने लाकर अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करना कहीं अधिक आसान प्रतीत होता है। यही वोट बैंक की राजनीति का सबसे बड़ा आधार है। राजनीतिक दलों की दिलचस्पी केवल इसमें है कि कैसे लोगों की जातीय पहचान को जिंदा रखा जाए। वे पिछड़ी-वंचित जातियों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा तो करते हैं, लेकिन उनकी यह हमदर्दी पूरी तरह दिखावटी होती है। उनका मूल उद्देश्य चुनिंदा पिछड़ी-वंचित जातियों को गोलबंद करके चुनावी सफलता हासिल करना ही होता है।

भारतीय समाज के चार वर्गों में विभाजन के संदर्भ में यह मिथ्या प्रचार किया जाता रहा है कि प्रारंभ से ही जातियों को चार वर्गों में बांट दिया गया था। सच यह है कि विभाजन कर्म के आधार पर किया गया था, न कि जातियों के आधार पर। समय के साथ इस विभाजन ने जातिगत रूप ले लिया और धीरे-धीरे पूरा सामाजिक ढांचा ही जातियों पर आधारित हो गया। इस सामाजिक खाई का ही इस्तेमाल राजनीतिक दल करते आए हैं। केंद्र अथवा राज्यों में सत्ता में आने वाली सरकारें पिछड़ी और वंचित जातियों के उत्थान के लिए अनेक उपायों के साथ दर्जनों योजनाओं का संचालन करती हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन सबसे उन जातियों का अपेक्षित हित नहीं हो पा रहा है। सब जानते हैं कि जातियों के खांचे में बंटा हुआ समाज तेज गति से आगे नहीं बढ़ सकता, लेकिन जाति का मसला राजनीति व शासन-प्रशासन के लिए इतना अधिक संवेदनशील बन गया है कि उसमें हेरफेर के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होगी।

जातिगत जनगणना का फैसला इसीलिए लिया गया था, ताकि जातियों की पूरी तस्वीर सामने आ सके और इस आधार पर सामाजिक योजनाओं को नए सिरे से ढाला जा सके। यह आश्चर्यजनक है कि ये जरूरत 80 साल बाद महसूस की गई। अच्छा होता कि सामाजिक योजनाओं को नए सिरे से निर्धारित करने के लिए जातिगत जनगणना का फैसला और पहले ही ले लिया जाता। आरक्षण सरीखी व्यवस्थाएं जाति आधारित हैं, लेकिन वे अपने मूल उद्देश्य से बुरी तरह भटक चुकी हैं। अब जातीय राजनीति का एक बड़ा आधार आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था बन गई है।

जो दल जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने की मांग कर रहे हैं, उनकी निगाह आरक्षण की राजनीति को नई धार देने पर केंद्रित है। इसकी पूरी आशंका है कि जातिगत आंकड़ों का इस्तेमाल आरक्षण की नई-नई मांगों के लिए किया जा सकता है। देश में आजादी के बाद अनुसूचित जातियों-जनजातियों के उत्थान के लिए आरक्षण की व्यवस्था दस वर्षों के लिए की गई थी, लेकिन यह अभी भी जारी है। इस दौरान आरक्षण का दायरा कहीं अधिक व्यापक हो चुका है और यदि सुप्रीम कोर्ट ने यह न कहा होता कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता तो शायद यह सीमा न जाने कब पार हो गई होती। आज अनेक राजनीतिक दल इस सीमा को बढ़ानेकी मांग करने में लगे हुए हैं। यह तब है, जब ये साफ है कि आरक्षण के मौजूदा तौर-तरीकों से वह उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा जिसके लिए इस व्यवस्था को अपनाया गया था।

अनेक ऐसी जातियां जो आजादी के समय सामाजिक-आर्थिक तौर पर मुख्यधारा में शामिल नहीं थीं, आज अपने पैरों पर खड़ी हो गई हैं, लेकिन इसमें आरक्षण की भूमिका एक सीमा तक ही रही है। यह समय के साथ सामाजिक-आर्थिक परिवेश में आए बदलाव का नतीजा है। कई देशों का अनुभव यही बताता है कि तेज आर्थिक विकास जाति, वर्ग भेद को तोड़ता है। अपने देश में कई जातियां सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त होने के बाद भी आरक्षण के दायरे में हैं और उससे बाहर जाने को तैयार नहीं।

स्पष्ट है कि ऐसी जातियां उन अन्य पिछड़ी जातियों-तबकों के हितों को नुकसान पहुंचा रही हैं, जिन्हें वास्तव में आरक्षण सरीखे उपायों की जरूरत है। आरक्षण की बैसाखी पर टिकी जातियों में मेधा का विकास भी नहीं हो पा रहा है। इसकी एक ताजा बानगी आईआईटी में प्रवेश के रूप में सामने आई है, जहां आरक्षित वर्गों की सीटें भी नहीं भर पा रही हैं और न्यूनतम अंकों का मानक घटाना पड़ रहा है। अब यदि मेधा के साथ इस तरह का समझौता किया जाएगा तो फिर कुशल डॉक्टर-इंजीनियर कैसे प्राप्त होंगे?

जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक होने से एक नया राजनीतिक भूचाल पैदा हो सकता है। हो सकता है कि इसके आधार पर मंडल आयोग की तर्ज पर एक नए आयोग के गठन की मांग उठने लगे। ऐसी मांगों से समाज का भला होने वाला नहीं। यदि जातिवार जनगणना के आंकड़े सामने आने से जातिगत आरक्षण का दायरा बढ़ता है तो देश के लिए शुभ नहीं होगा। बेहतर होगा कि पिछड़े वर्गों के उत्थान के नए उपाय सोचे जाएं और ऐसा करते समय वंचित तबकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति देखी जाए, उनकी जाति नहीं। जातियों के बजाय सभी कमजोर-पिछड़े तबकों के उत्थान को प्राथमिकता देने वाले उपाय ज्यादा कारगर साबित होंगे। बेशक ये और कारगर तब होंगे, जब आर्थिक विकास में तेजी आएगी।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)