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बाजार के कामर्स से साइंस की जंग- डा.एनके सिंह

भारत में डायबिटीज की अत्यंत लोकप्रिय और सस्ती दवा को सरकार ने बैन कर दिया है. सरकार के इस फैसले से विशेषज्ञ डॉक्टरों में आक्रोश है. पहली बार बाजार के कॉमर्स के खिलाफ साइंस ने जंग छेड़ी है. डॉक्टर दिवस पर मरीजों के मर्म और सरकार की संवेदनहीनता बयां करती एक डॉक्टर की पीड़ा. -

डायबिटीज की अत्यंत लोकप्रिय और अपेक्षाकृत सस्ती दवा ‘पायोग्लीटाजोन’ को 18 जून, 2013 से भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने अचानक ‘बैन’ कर दिया. इसके पहले ग्लीटाजोन ग्रुप की रोजीग्लीटाजोन को बैन किया गया था. उसके बैन करने पर भारतीय डॉक्टरों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. मगर पायोग्लीटाजोन को बैन करने पर भारत के तमाम चोटी के डायबिटीज विशेषज्ञ न केवल हैरान हैं, बल्कि अंदर ही अंदर उबल रहे हैं और सरकार की नादानी पर आंसू बहा रहे हैं. साइंस और कॉमर्स के इस खेल की कहानी जनता को भी समझने की जरूरत है.

सन् 1919 से शुरू होती है ग्लीटाजोन ग्रुप की दवाओं की कहानी. इस ग्रुप की पहली दवा ट्रोग्लीटाजोन लीवर टॉक्सीसिटी के कारण तुरंत बाजार से बाहर हो गयी. फिर आया रॉजीग्लोटाजोन एवं पायोग्लीटाजोन का जमाना. मेटफरमिन दवा के बाद पहली बार ऐसी दवा आयी थी, जो डायबिटीज के मुख्य कारक इंसुलिन की नाकामी (रेसिस्टेंस) को रोकने में सक्षम थी.

साथ ही शरीर की चर्बी को संतुलित कर खून की नली के अंदर कोलेस्ट्रॉल के जमाव को भी कम कर सकती थी. मुझे याद है, जब अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन के वार्षिक सम्मेलनों में कई दिनों तक रॉजीग्लोटाजोन के गुण गाये जाते थे. फिर अचानक डॉ निसान का एक लेख मेटाएनालाइसिस न्यू इंग्लैंड जर्नल में 2007 में छपा, जिसमें दिखाया गया कि रोजीग्लीटाजोन दवा लेनेवालों में हर्ट अटैक व हर्ट फेल्योर की आशंका बढ़ जाती है. यह शोध मेडिसिन जगत में एक सुनामी की तरह आया, जिसने रोजीग्लीटाजोन के करोड़ों के बाजार को नेस्तानाबूद कर दिया. इसके बाद इस ग्रुप की दूसरी दवा पायोग्लीटाजोन की पूरी दुनिया में पकड़ मजबूत हो गयी.

कई शोधों ने पायोग्लोटाजोन की महत्ता साबित की. इसी बीच सन् 2011 में दो रेट्रोस्पेक्टिव शोधों का नतीजा ‘कैंसर परमानेंट स्टडी (अमेरिका) और फ्रांस के नेशनल हेल्थ इंशयोरेंस प्लान स्टडी सामने आया, जिसमें यह आशंका जतायी गयी की पायोग्लीटाजोन लेनेवाले लोगों में ब्लाडर कैंसर ज्यादा होता है.

यह बात किसी प्रोस्पेक्टिव स्टडी में सिद्ध नहीं हुई है और दुनिया में आज तक कोई ऐसा शोध नहीं हुआ, जिसने डंके की चोट पर कैंसर होने की बात सिद्ध की हो. जहां तक हृदय रोग बढ़ाने की बात है, अभी जून, 2013 के तीसरे सप्ताह में शिकागो में संपन्न अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन के सम्मेलन में ‘डायबामान प्रोजेक्ट’ नामक शोध प्रस्तुत हुआ, जिसमें यह पाया गया है कि पायोग्लीटाजोन दवा द्वारा हर्ट अटैक का रिस्क 10 प्रतिशत तक कम हो 1जाता है और हर्ट फेल्योर कराने में इसका कोई हाथ नहीं है.

मजे की बात है कि फिर से रोजीग्लीटाजोन की वापसी के संकेत मिल रहे हैं. ऐसे समय में, जब ग्लीटाजोन ग्रुप की महत्ता पर अमेरिका में सकारात्मक हवा चल रही है. भारत में ‘सराकरी बैन’ लगा दिया गया है. पता चला है कि पायोग्लीटाजोन को बैन करने में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया की भी सलाह नहीं ली गयी. इनके पैनल में भारत का कोई भी प्राइवेट सेक्टर का रेपुटेड डायबिटोलॉजिस्ट शामिल नहीं था. न ही रिसर्च सोसाइटी फॉर स्टडी ऑफ डायबिटीज इन इंडिया एवं इंडोक्राइनोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया जैसी वैज्ञानिक संस्थाओं से कभी सलाह ली गयी.

अब हद हो गयी. ब्यरोक्रेट्स डिसाइड कर रहे हैं कि कौन सी दवा बैन की जायेगी. इन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि भारत आज विश्व की डायबिटीज कैपिटल है, जहां करीब 40 करोड़ मरीज हैं. इनमें से अधिकांश गरीब मरीज हैं, जिन्हें एक सस्ती दवा की जरूरत है. चूंकि ‘इंसुलिन रेसिस्टेंस’ की प्रक्रिया ही हमारी जनता में इस महामारी को संचालित कर रहा है, हमें एक ऐसी दवा की जरूरत है, जो इंसुलिन रेसिस्टेंस की प्रक्रिया पर वार करे.

पायोग्लीटाजोन के बैन होने से भारत के डायबिटीज विशेषज्ञों को लग रहा है मानो उनका हाथ काट दिया गया हो. करीब 700 करोड़ रुपये का मार्केट धराशायी होने की कगार पर है. ट्राइबेट, ट्राइग्लीमीपाक्स, ग्लायकोमेट, जीपी, ट्राइपराइड, ट्राक्सर जैसी सभी दवाइयों में पायोग्लीटाजोन भी मिला है. इन्हीं दवाइयों को खाकर हमारे मरीजों का डायबिटीज नियंत्रित है.

नयी दवाइयों (सिराग्लीपरीन/ बिलडाग्लीपरीन (डीडी (4) इन्हीबीटर ग्रुप) के महंगा होने से अधिकांश मरीज उन दवाइयों को नहीं खा पाते. इस बात की संभावना प्रबल है कि महंगी दवाइयों को बाजार में जमाने के लिए यह एक बड़ा भारी षडयंत्र एक सस्ती और अच्छी दवा को हटा कर किया गया हो, क्योंकि इसके बैन में ‘साइंस’ कहीं दिख नहीं रहा है.

उल्लेखनीय है कि पायोग्लीटाजोन केवल फ्रांस में बैन है. अमेरिका में बुलंदी से बेची जा रही है. जहां तक जर्मनी का सवाल है, फेसबुक पर डायबिटीज ओपीनियन ब्लॉग पर वहां के डॉ एंड्रज लिखते हैं, ‘मेरे भारतीय साथियों, मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहता हूं कि पायोग्लीटोन को मैं छोड़ नहीं सकता.

मैं इसे इंसुलिन, ग्लीमीपेराइड और डीडी (4) इन्हीबीटर के साथ अपने मरीजों को देता हूं. आपकी सरकार का निश्चय क्रेजी है और साइंस से परे हैं. नवीनतम आंकड़े पायोग्लीटाजोन के पक्ष में है. इससे ब्लाडर कैंसर होने की संभावना हकीकत कम और अफसाना ज्यादा है. अमेरिका ने तो कभी रोजीग्लीटाजोन को भी बैन नहीं किया, जहां दवा का मार्केट में चलाते रहना अत्यंत कठोर प्रक्रिया से गुजरता है. यदि भारत में पायोग्लीटाजोन बैन कर दिया गया है, तो बढ़े हुए हर्ट अटैक के रूप में इसका मूल्य चुकाना पड़ेगा.’

इस बीच भारत के चोटी के डायबिटीज विशेषज्ञों द्वारा सम्मिलित होकर सरकार से लड़ने की तैयारी शुरू हो गयी है और भारत में यह पहली बार हो चुका है. राइट टू इनफॉरमेशन एक्ट (आरटीआइ) के तहत सरकार से पूछा जा रहा है कि कौन से साइंस के तहत आपने इसे बैन किया है.

कलकत्ता के डॉ अवधेश कुमार सिंह, मुंबई के डॉ शशांक जोशी, दिल्ली के डॉ अनूप मिश्र जैसे तमाम चोटी के विशेषज्ञों ने पहल की है. प्रतिबंधित पायोग्लीटाजोन की कहानी भारतीय डायबिटीज मार्केट पर ‘कॉमर्स’ की विजय का संकेत है. मगर साइंस के जानकारों द्वारा लड़ाई साइंस के फेवर में शुरू की गयी है. इस बीच यह बहुत जरूरी है कि जनता भ्रमित न हो और दुनिया की हवा देखे, न कि उन ब्यूरोक्रेट्स की भ्रामक कहानियों को, जिसने एक अपेक्षाकृत शक्तिशाली, सुरक्षित और सस्ती दवा को तहस-नहस कर दिया है.
(लेखक डायबिटीज हार्ट सेंटर धनबाद के निदेशक हैं)