Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/बातों-और-चर्चाओं-की-राजनीति-बद्रीनारायण-6591.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | बातों और चर्चाओं की राजनीति - बद्रीनारायण | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

बातों और चर्चाओं की राजनीति - बद्रीनारायण

उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में नानी, दादी रात में सोते वक्त अपने बच्चों को जब कहानी सुनाया करती थीं, तब कहानी के अंत में समापन वाक्य की तरह एक खास बात कही जाती थी। वह वाक्य होता था- न कहवइया के दोष, न सुनवइया के दोष, जे कहनी उपारजे ओकर दोष। यानी न कहने वाला का दोष है, न सुनने वाले का, जो इन कथाओं को रचता है, उसका दोष है। दरअसल, दादी-नानी मानती थीं कि यह वाक्य कह लेने के बाद कहानी में जो दुख, विपदा और दोष का बखान किया गया है, उसका दोष न कहने वाले पर पड़ता है, न सुनने वाले पर। बच्चों को सोच और संस्कार देने वाली इन कहानियों को किसने और क्यों बनाया, इन सबसे अनजान वे पिछली पीढ़ी से हासिल इन कहानियों को नई पीढ़ी के हवाले कर देती थीं।

गांव के अपढ़, लेकिन लोक बौद्धिकी से भरे समाज के बार-बार उचारे जाने वाले इस समापन सूत्र में आज के आधुनिक संदर्भ में ‘बातों की राजनीति’ को समझने के सूत्र भी छिपे हुए हैं। पहले जो ‘बातों की राजनीति’ गांवों में, गलियों में, बगीचों में, पेड़ के नीचे और चौपालों में होती थी। वे बातें, जो लोगों की राजनीतिक सोच और समझ को एक आकार देती थीं, अब उनके मिजाज बदल गए हैं। पहले ये बातें अगले दिन के अखबार से मिली खबरों और बहुत-सी सुनी-सुनाई बातों के आस-पास बुनी जाती थीं। अब यह काम मुख्य तौर पर टेलीविजन करता है और कुछ खास दायरों में सोशल मीडिया भी, अखबार अब भी पहले वाली भूमिका में हैं। बेशक ये सिर्फ संदेशवाहक नहीं हैं, ये धारणाएं बनाने और बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। जो बात पहले किस्से-कहानियों से होती थी, अब उनका तरीका बदल गया है। अब उसे प्रोफेशनल कर रहे हैं और उनके करने के अंदाज की नाटकीयता भी किसी से छिपी नहीं है। लोगों को बांधे रखने के लिए इस मीडिया के पास ओपीनियन पोल भी है, एग्जिट पोल भी और स्टूडियों में की गई चर्चाएं भी।

इसी का नतीजा है कि लोगों की धारणाएं अब जितनी तेजी से बनती हैं, अक्सर उससे कहीं  तेजी से बिगड़ भी सकती हैं। राजनीतिशास्त्र की एक परंपरागत सोच यह कहती है कि मीडिया जो बोलता है, उसके पीछे एक अर्थशास्त्र है, एक बाजार है, उद्योगपति हैं। इस सोच के हिसाब से मीडिया सिर्फ कहने का औजार है, और जो कहा जा रहा है, उसका रचयिता कोई और है। इनके पीछे एक एजेंडा है, जो पूरे विजुअल इंपैक्ट के साथ हमारे दिल-दिमाग पर बिठाया जा रहा है। इस सोच के विस्तार में अगर न भी जाएं, तो भी मीडिया एक औजार है, ऐसी सोच काफी व्यापक है। अपने विरोधी नेता की लोकप्रियता के बारे में अक्सर यही कहा जाता है कि उसे मीडिया ने खड़ा किया है। कोई नेता किसी मामले में फंसता है, तो कहा जाता है कि मीडिया इस मामले को बेवजह तूल दे रहा है। जब कांग्रेस और भाजपा के नेता यह कह रहे होते हैं कि अरविंद केजरीवाल को मीडिया ने नेता बनाया है, तो उसी समय खुद अरविंद केजरीवाल यह कह रहे होते हैं कि कुछ खास लोगों के इशारे पर मीडिया उनके पीछे पड़ा है।

यह सब सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी नहीं है, बल्कि इसके पीछे यह सोच तो है ही कि बातें पहुंचाने का सबसे अच्छा माध्यम मीडिया ही है। इसलिए हर पार्टी मीडिया को इस्तेमाल करने की रणनीति बनाती है। पिछले काफी समय से सभी दलों में मीडिया सेल का महत्व बढ़ रहा है। मीडिया के इस्तेमाल की रणनीति के तहत ही नरेंद्र मोदी अपनी बहुत-सी जनसभाएं इतवार की दोपहर में करते हैं। छुट्टी का दिन होने के कारण शहरी और कस्बाई इलाकों के मध्यवर्गीय लोग उस समय अपने टीवी के सामने होते हैं। खबरिया चैनलों के लिए भी यह प्राइम टाइम नहीं होता, इसलिए वे उसका सीधा प्रसारण दिखाते हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुलियों से मिलने के लिए राहुल गांधी भी यही समय चुनते हैं। इस तरह के सीधे प्रसारण, जनमत सर्वेक्षण और स्टूडियो की चर्चाएं तुरंत ही नुक्कड़ों और चौपालों पर बातचीत का विषय बन जाती हैं। एक फर्क तो यह आया है कि पहले इस काम में समय लगता था।

दूसरा फर्क यह आया है कि पहले धारणाएं धीरे-धीरे एक-दूसरे को सुन-कहकर बनती बिगड़ती थीं। अब बहुत-सी धारणाएं मीडिया से पकी पकाई ही मिल जाती हैं। आज के मीडिया से निकली इन बातों ने राज्य सत्ता के भ्रष्टाचार और कुलीन व्यवहार पर नकेल भी कसी है, पर इसने हमारे मन में पल रहे ‘बहुल जनतांत्रिक विकल्पों’ को भी कुछ हद तक कम किया है। इसने बहुत सारे विकल्पों की जगह पूरी सोच को इस या उस तक सीमित करने की कोशिश की है। अगर अगले आम चुनाव के हिसाब से देखें, तो सारी बात को अक्सर नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और बहुत हुआ, तो अरविंद केजरीवाल तक सीमित कर दिया गया है। बाकी पक्षों की नुमाइंदगी भी अक्सर दिखा दी जाती है, लेकिन उन्हें प्रमुखता नहीं दी जाती। कई बार तो उन्हें खलनायक या वोट कटवा की तरह पेश किया जाता है। कई बार यही रवैया उन दलों के साथ अपनाया जाता है, जो अपने क्षेत्र की बहुत बड़ी ताकत हैं।

लोगों के बीच होने वाली बातें और चर्चाएं हमेशा ही इतिहास में एक बड़ी भूमिका भी निभाती रही हैं। अक्सर सकारात्मक और कभी-कभी नकारात्मक भी। ये हमेशा ही बदलाव की वाहक होती हैं। इनकी भूमिका आज भी यही है। आज भी इन्हीं से जनमत बनता और बिगड़ता है। फर्क सिर्फ यह पड़ा है कि पिछले कुछ समय से वे माध्यम काफी तेजी से बदले हैं, जो समाज को अपनी धारणा गढ़ने की खुराक देते थे। इन माध्यमों से दिक्कत सिर्फ इतनी है कि ये एक तो बनी बनाई धारणा देने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। दूसरे अक्सर ये समाज की बहुलता को नजरअंदाज करके विकल्पों को बहुत सीमित कर देते हैं। ये दोनों ही चीजें लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी नहीं हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)