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बाधित संसद लोकतंत्र की अवमानना-- राजकुमार सिंह

संसदीय लोकतंत्र में संसद ही सर्वोच्च है। हमारे माननीय संसद सदस्य इस सर्वोच्चता का अहसास कराने का कोई मौका भी नहीं चूकते, पर खुद इस सर्वोच्चता से जुड़ी जिम्मेदारी-जवाबदेही का अहसास करने को तैयार नहीं। संसद में धनबलियों और बाहुबलियों की बढ़ती संख्या और लोकतंत्र की मूल भावना को इससे बढ़ते खतरे की चर्चा और चिंता मीडिया से लेकर सर्वोच्च अदालत तक मुखर होती रही है। जाहिर है, इस गहराते खतरे के लिए राजनीतिक दलों का नेतृत्व ही जिम्मेदार है, जो अक्सर ऐसी जवाबदेही से मुंह ही चुराने के लिए जाना जाता है। बेशक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ऐसी तस्वीर बेहद निराशाजनक ही नहीं, चिंताजनक भी है, लेकिन संसद ठप रहने की बढ़ती प्रवृत्ति भी कम खतरनाक नहीं है। संसद का वर्तमान बजट सत्र अपने कामकाज के बजाय हंगामे के लिए ही समाचार माध्यमों में सुर्खियां बनता रहा है। अगर हम संसद की घटती बैठकों के मद्देनजर देखें तो सत्र के दौरान बढ़ता हंगामा और बाधित कार्यवाही हमारे माननीय सांसदों और उनके राजनीतिक दलों के नेतृत्व की लोकतंत्र में आस्था पर ही सवालिया निशान लगा देती है। संसद की सर्वोच्चता का स्पष्ट अर्थ यह भी है कि वह देश हित-जनहित में कानून बनाने के अलावा सरकार के कामकाज की कड़ी निगरानी और समीक्षा भी करे, लेकिन हमारे देश में लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर का हाल यह है कि देश का बजट तक बिना चर्चा के पारित हो गया।


ऐसे में यह सवाल बेहद स्वाभाविक है कि अगर आने वाले साल में सरकार के आय-व्यय का लेखाजोखा तक बिना चर्चा के पारित हो जाने हैं, तब फिर संसद आखिर है किसलिए? वर्तमान बजट सत्र में जारी हंगामे के चलते न सिर्फ 99 मंत्रालयों-विभागों का बजट-2018 संशोधनों समेत महज 30 मिनट में पारित कर दिया गया, बल्कि राष्ट्रपति-राज्यपालों की वेतन वृद्धि तथा पिछले 40 सालों में मिले राजनीतिक चंदे को जांच मुक्त करने संबंधी विधेयकों को भी बिना चर्चा हरी झंडी दिखा दी गयी। ऐसे में यह सवाल उठना भी बेहद स्वाभाविक है कि फिर पूरे बजट सत्र के दौरान संसद ने किया क्या है? बार-बार हंगामे के चलते कार्यवाही स्थगित होने से साफ है कि काम तो नहीं ही किया, पर दलगत स्वार्थों से प्रेरित आरोप-प्रत्यारोप लगाने में न सत्तापक्ष पीछे रहा और न ही विपक्ष। सत्ता का खेल बनकर रह गयी राजनीति में आरोप-प्रत्यारोपों की कीचड़ उछाल स्पर्धा अप्रत्याशित नहीं है, लेकिन उसके लिए संसद की कार्यवाही को ही बंधक बना लेना तो लोकतंत्र और जनमत की अवमानना ही है। तर्क दिया जा सकता है कि बिना बहस बजट पहली बार तो पारित नहीं किया गया? बेशक काम से ज्यादा हंगामे के लिए पहचानी जाने वाली हमारी राजनीति अतीत में भी दो बार बिना चर्चा बजट पारित करने का कारनामा कर चुकी है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली कारगुजारियों की पुनरावृत्ति करने के बजाय उनसे सबक सीखना ही श्रेयस्कर होता है।


आखिर इसी संसद ने पिछले साल बजट सत्र में कामकाम का शानदार रिकॉर्ड बनाया था। उस रिकॉर्ड को दोहराने या बेहतर बनाने का संकल्प क्यों नहीं लिया गया? वर्ष 2017 के बजट सत्र में इसी संसद के निचले सदन यानी लोकसभा ने तो कामकाज के मामले में नया रिकॉर्ड कायम किया था। पिछले कुछ दशकों से किसी आरोप या मुद्दे को लेकर अथवा किसी रणनीति के तहत संसद ठप करने की बढ़ती अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति के चलते यह वाकई बेहद सुखद अहसास था कि पिछले साल बजट सत्र के दोनों चरणों में हुईं लोकसभा की कुल 29 बैठकों में तय वक्त से भी 19 घंटे ज्यादा समय काम हुआ। फिर आश्चर्य कैसा कि कामकाज भी लगभग 113 प्रतिशत ज्यादा हुआ। पिछले बजट सत्र में न सिर्फ बजट पर बाकायदा बहस हुई, बल्कि जीएसटी सरीखा विवादास्पद, मगर महत्वपूर्ण विधेयक भी चर्चा के बाद पारित किया गया। यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि नरेंद्र मोदी सरकार की पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में वर्ष 2012 का मानसून सत्र भारत के संसदीय इतिहास का सबसे ठप सत्र माना जाता है। उस सत्र में सबसे कम काम और सबसे ज्यादा हंगामा हुआ था। बेशक कुछ महत्वपूर्ण विधेयक शोरगुल के बीच ही पारित हो गये, लेकिन बड़ी संख्या में विधेयक पारित नहीं हो पाये थे। इस उल्लेख में सरकारों का जिक्र इसलिए जरूरी लगा क्योंकि सदन चलाना मुख्यत: सत्तापक्ष की जिम्मेदारी मानी जाती है, जबकि हंगामे का ठीकरा अक्सर विपक्ष के ही सिर फोड़ दिया जाता है।


वर्ष 2012 में संसद के जिस मानसून सत्र में सबसे कम काम हुआ, उसमें कोयला खदान आवंटन घोटाला समेत अनेक मुद्दों पर विपक्ष मनमोहन सरकार को घेर रहा था। तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा का भी यही तर्क होता था कि सदन चलाना सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है। कहना नहीं होगा कि तब संप्रग सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस, विपक्ष को संसदीय और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी-जवाबदेही याद दिलाती थी। दरअसल तर्क कुछ भी दिया जाये, लेकिन कोई भी सदन सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों के बीच सहयोग के बिना चल ही नहीं सकता। हां, सरकार में होने के नाते सत्तापक्ष विपक्ष की मांगों पर बड़प्पन और लचीला रुख दिखाते हुए सदन सुचारु रूप से चलाने की गंभीर पहल अवश्य कर सकता है, लेकिन हाल के दिनों में तो देखा गया है कि सदन में कार्यवाही से ज्यादा हंगामा, दोनों पक्षों को रास आने लगा है। यह गंभीर स्थिति है। तीन दशक बाद किसी एक दल को मिले बहुमत के बाद भी राजग के सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनाने वाली भाजपा की मोदी सरकार पहली बार संसद में असहज महसूस कर रही है। हालांकि हालिया राज्यसभा चुनावों के बाद उच्च सदन में उसकी स्थिति कुछ बेहतर हुई है, लेकिन लगता है कि कुछ ही दिन पहले उत्तर प्रदेश-बिहार के लोकसभा उपचुनावों में मिले जोर के झटके से वह अभी तक उबर नहीं पायी है, वरना क्या कारण है कि लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के बावजूद विपक्षी दलों को अविश्वास प्रस्ताव पेश नहीं करने दिया जा रहा? मोदी सरकार को कोई खतरा नहीं,यह बात विपक्ष भी अच्छी तरह जानता है, लेकिन लोकसभा उपचुनाव नतीजों से उत्साहित विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव पर होने वाली बहस में तमाम मुद्दों पर सरकार को घेरने का मौका नहीं चूकना चाहता। खासकर इसलिए भी कि पहली बार मोदी सरकार से उसके मित्र दलों ने मुंह फेरना शुरू कर दिया है।


यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि संसद के अंदर और बाहर जो राजनीतिक भाव-भंगिमाएं नजर आ रही हैं, वे दरअसल अगले लोकसभा चुनाव की तैयारियों का भी संकेत हैं। चुनाव लोकतंत्र की प्राण वायु होते हैं। इसलिए उनका महत्व नकारा नहीं जा सकता, लेकिन संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को चुनावों तक ही सीमित कर देने के खतरों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सवाल संसद की कार्यवाही पर आने वाले भारी-भरकम खर्च और माननीयों के बिना काम भी बढ़ते बेलगाम वेतन-भत्तों से मेहनतकश करदाताओं पर पड़ते बोझ का तो है ही, लोकतंत्र में जन साधारण की आस्था का उससे भी अहम है। इसलिए राजनीतिक दलों और उनके माननीय सांसदों को शह-मात की राजनीति के लिए संसद को ठप करने के बजाय दूसरे कारगर विकल्प खोजने चाहिए। प्रधानमंत्री बनने के बाद संसद को लोकतंत्र का मंदिर बताते हुए उसकी ड्याेढ़ी पर माथा टेकने वाले नरेंद्र मोदी को तो यह संसदीय गतिरोध तोड़ने की पहल अवश्य करनी चाहिए।
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