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बाल विवाह उन्मूलन की राह-- रीता सिंह

पिछले दिनों बिहार के साढ़े चार करोड़ लोगों ने मानव शृंखला बना कर दहेज और बाल विवाह के विरुद्ध प्रतिबद्धता जाहिर की। जिस तरह राज्य की राजधानी पटना से लेकर गांव-कस्बों में कतारों में खड़े करोड़ों लोगों ने इस सामाजिक बुराई को खत्म करने का संकल्प व्यक्त किया वह यह रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि जनजागरण के जरिए सामाजिक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। एक साल पहले बिहार के ही तीन करोड़ लोगों ने नशे के खिलाफ सामूहिक संघर्ष के लिए मानव शृंखला तैयार की थी और आज उसका नतीजा यह है कि बिहार में शराबबंदी है और उसके सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। अगर देश के अन्य राज्य भी बिहार राज्य की तर्ज पर सामाजिक बुराइयों से निपटने के लिए जनजागरण करें तो नि:संदेह उसके प्रभावकारी परिणाम सामने आएंगे। यह कटु सत्य है कि बाल विवाह के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य पर खतरनाक असर पड़ता है। समय से पहले प्रसव से मातृ मृत्यु की आशंका बढ़ जाती है।


मेटर्नल मॉर्टेलिटी रेशियो (एमएमआर) और इंटरनेशनल प्रेग्नेंसी एडवाइजरी सर्विसेज की रिपोर्ट की मानें तो भारत में असुरक्षित गर्भपात से हर दो घंटे में एक स्त्री की जान जाती है। हाल ही में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट से उजागर हुआ कि शहरों में बीस वर्ष से कम उम्र की लड़कियों में हर सातवें गर्भधारण का अंत गर्भपात के रूप में होता है। बीस साल से कम उम्र की शहरी युवतियों में गर्भपात का रुझान राष्ट्रीय औसत के मुकाबले काफी अधिक है। बीस साल से कम उम्र की शहरी युवतियों में गर्भपात चौदह प्रतिशत तक है जबकि गांवों में बीस साल से कम आयुवर्ग में गर्भपात का प्रतिशत मात्र 0.7 है। शहरों में तो कम, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी असुरक्षित गर्भपात कराए जा रहे हैं जिसकी कीमत युवतियों को जान देकर चुकानी पड़ रही है। बाल विवाह के कारण शिशु मृत्यु दर और अस्वस्थता दर में भी वृद्धि हो रही है। बाल विवाह की वजह से शिशु को जन्म देते वक्त दुनिया भर में होने वाली कुल मौतों में सत्रह प्रतिशत मौतें अकेले भारत में होती हैं। कम उम्र में विवाह से प्रसव के दौरान इन महिलाओं में तीस प्रतिशत रक्तस्राव, उन्नीस प्रतिशत रक्ताल्पता, सोलह प्रतिशत संक्रमण, और दस प्रतिशत अन्य जटिल रोगों की आशंका बढ़ जाती है। यही नहीं, वे गंभीर बीमारियों की चपेट में भी आ जाती हैं। ‘सेव द चिल्ड्रेन' संस्था की मानें तो भारत मां बनने के लिहाज से दुनिया के सबसे खराब देशों में शुमार है। देश के जिन हिस्सों में भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी है वहां बाल विवाह ज्यादा होते हैं और मातृ मृत्यु दर भी अधिक देखने को मिलती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर वर्ष गर्भधारण संबंधी जटिलताओं के कारण और प्रसव के दौरान पांच लाख से अधिक महिलाएं दम तोड़ देती हैं, जिसकी मूल वजह बाल विवाह है। विडंबना यह है कि कड़े कानूनी प्रावधानों और जागरूकता कार्यक्रम के बावजूद पिछले दो दशक से बाल विवाह में कमी आने की दर हर वर्ष एक प्रतिशत है जो कि बहुत ही कम है। इस तरह तो बाल विवाह खत्म होने में पचास वर्ष से अधिक का समय लगेगा। उचित होगा कि सरकार बाल विवाह निरोधक कानूनी प्रावधानों का सख्ती से पालन कराए और बाल विवाह से पड़ने वाले दुष्प्रभावों से लोगों को अवगत कराए। शिक्षा के माध्यम से बाल विवाह पर काफी हद तक नियंत्रण लग सकता है। बच्चों में यह साहस पैदा करना चाहिए कि अगर उनका बाल विवाह हो तो इसके विरुद्ध अपनी आवाज मुखर कर सकें। मीडिया को भी इस जघन्य रिवाज के विरुद्ध जागरूकता पैदा करने के लिए आगे आना चाहिए।

यूनिसेफ ने बाल विवाह की प्रथा को बड़े पैमाने पर रोकने की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए गैर-सरकारी और सरकारी संगठनों के साथ भागीदारी की है। कॉरपैड (सेंटर फॉर एक्शन रिसर्च ऐंड पीपल्स डेवलपमेंट) और चाइल्ड लाइन जैसे संगठनों ने बाल विवाह से पीड़ित बच्चों के लिए सामाजिक घरों तथा उनके वयस्क होने तक पर्याप्त धन और शिक्षा प्रदान करने का प्रस्ताव दिया है। सर्वोच्च अदालत ने भी बाल विवाह के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया है। पिछले साल ही उसने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में नाबालिग पत्नी से शारीरिक संबंध बनाने को दुष्कर्म की परिधि में लाकर बाल विवाह पर नकेल कसने की कोशिश की है। उसने दो टूक कहा कि अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़की से शारीरिक संबंध दुष्कर्म है और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि लड़की शादीशुदा है अथवा नहीं। अदालत ने आइपीसी की धारा 375 का अपवाद (2) निरस्त किए जाने योग्य मानते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करार दिया। यह भी कहा कि यह मनमाना, भेदभाव करने वाला, अतार्किक और बच्चियों के अधिकारों का हनन करने वाला है। नि:संदेह सर्वोच्च अदालत का यह फैसला कई दूरगामी परिणामों को समेटे हुए है। लेकिन बात तब बनेगी जब उसके आदेश का पालन होगा।

पिछले दिनों राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और गैरसरकारी संगठन यंग लाइव्स ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि गांव के साथ महानगर भी बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई की चपेट में हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 2001 से लेकर 2011 की अवधि में देश में एक करोड़ बीस लाख से अधिक बच्चे बाल विवाह के शिकार हुए हैं। रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि राजस्थान, अविभाजित आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और दादरा नगर हवेली में सबसे ज्यादा बाल विवाह के मामले सामने आए हैं। यह स्थिति तब है जब देश में बाल विवाह निरोधक कानून मौजूद है और सरकार तथा स्वयंसेवी संगठनों द्वारा बाल विवाह के विरुद्ध जागरुकता कार्यक्रम चलाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक भारत बाल विवाह के मामले में दूसरे स्थान पर है। भारत में दुनिया के चालीस प्रतिशत बाल विवाह होते हैं। उनचास प्रतिशत लड़कियों का विवाह अठारह वर्ष से कम आयु में हो जाता है। यूनिसेफ के अनुसार, राजस्थान में बयासी प्रतिशत विवाह अठारह साल से पहले ही हो जाते हैं।

इतिहास में जाएं तो वर्ष 1929 में बाल विवाह रोकने का अधिनियम पारित किया गया। लेकिन यह अधिनियम बाल विवाह रोकने में कारगर साबित नहीं हुआ। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी लड़के व लड़की के विवाह की आयु क्रमश: अठारह वर्ष और पंद्रह वर्ष ही रखी गई। मई, 1976 में इस अधिनियम में संशोधन कर विवाह की आयु इक्कीस वर्ष और अठारह वर्ष कर दी गई। एक दूसरा कानून जो अस्तित्व में है वह बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 है। इस अधिनियम में बाल विवाह निरोधक अधिनियम में व्याप्त खामियों को दूर कर सुनिश्चित किया गया है कि अठारह साल से कम उम्र की लड़की और इक्कीस साल से कम उम्र के लड़के का विवाह बाल विवाह कहलाएगा। लेकिन इस कानून के बाद भी देश के अनेक हिस्सों में बाल विवाह होते रहे हैं। लेकिन अब जब सर्वोच्च अदालत ने नाबालिग लड़की से शारीरिक संबंध को दुष्कर्म की श्रेणी में ला दिया है, तो बाल विवाह पर रोक लगने की उम्मीद काफी बढ़ गई है। पर यहां यह कहना भी जरूरी है कि केवल कानून बना कर इस बुराई से पार नहीं पाया जा सकता। इसके लिए जनजागरण भी जरूरी है, जिसकी मिसाल बिहार ने पेश की है।