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बाढ़ के आकार का बढ़ते जाना -- दिनेश मिश्र

बिहार की बाढ़ फिर चर्चा में है। राज्य के 13 जिलों में नदियों ने कहर बरपा रखा है। अब तक 56 लोगों की मौत बाढ़ के कारण हो चुकी है और करीब 70 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में आवाजाही ठप है। जान-माल का भारी नुकसान हुआ है। इन इलाकों का हवाई सर्वेक्षण हो चुका है। बचाव व राहत कार्यों के लिए कई जगहों पर सेना भी उतारी जा चुकी है। साल 2007 के बाद ऐसा मंजर पहली बार देखा जा रहा है। हम 2008 की कुसहा की घटना का जिक्र नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वह एक प्रशासनिक व तकनीकी लापरवाही का अप्रतिम उदाहरण है। अगर 2007 की बाढ़ से कुछ भी सबक लिया गया होता, तो शायद आज का दिन देखना न पड़ता। उस साल बाढ़ का असर राज्य के 22 जिलों के 264 प्रखंडों के 12,610 गांवों पर पड़ा था। तब दो करोड़, 48 लाख लोग इसकी चपेट में आए थे। 960 लोग व 1,006 मवेशी मारे गए थे। राज्य की नदियों के तटबंधों में 32 जगहों पर दरारें पड़ी थीं और 782 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय व राज्य मार्गों को बंद कर देना पड़ा था, क्योंकि वे 54 स्थानों पर टूट गए थे। 3,194 किलोमीटर ग्रामीण सड़कें भी इसलिए तहस-नहस हो गई थीं, क्योंकि सरकार के अनुसार वे 829 जगहों पर टूट गई थीं। इसके साथ ही सड़कों के 1,353 छोटे-बडे़ पुल या तो बह गए थे या फिर टूट गए थे। रेल लाइनें कहां-कहां टूटीं, इसके बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है, मगर राज्य में रेल सेवाएं उस साल कई खंडों पर लंबे समय तक बाधित रही थीं। उस साल इन दरारों की वजह से पानी चारों तरफ फैल जरूर गया था, पर बाढ़ नवंबर तक बनी रही।

जहां-जहां तटबंधों, राजमार्गों, ग्रामीण सड़कों की धज्जियां उड़ गई हों, वहां सामान्य समझ यही कहती है कि बाढ़ का पानी उन-उन जगहों से निकलकर आगे बढ़ने के लिए रास्ता ढूंढ़ रहा था, लेकिन बाढ़ नवंबर तक इसलिए बनी रही, क्योंकि जल-निकासी के सारे रास्ते बंद थे। हालांकि तब सरकार ने तटबंधों को ऊंचा व मजबूत बनाने और सड़कों की दरारों को उसी मजबूती से बांधने का फैसला लिया, ताकि वे फिर न टूट न सकें। बिहार में 2007 से तटंबंधों को ऊंचा व मजबूत करने की मुहिम चल रही है, जिसकी शुरुआत बागमती व अधवारा समूह की नदियों से हुई। बिहार का तकनीकी अमला इस बात पर अपनी पीठ थपथपाता रहा है कि 2009 के बाद से बिहार में कोई तटबंध नहीं टूटा है, लिहाजा राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदम बिल्कुल सही हैं। मगर वे यह नहीं बताते कि बिहार में पिछले कई वर्षों से बाढ़ आई ही नहीं थी।

 


सरकार द्वारा सभी रिपोर्टों में तटबंधों की वजह से पानी की निकासी में पड़ी बाधा का जिक्र होता है। सड़कों व रेल लाइनों के दुष्प्रभावों का जिक्र होता है। मगर काम वही होता है, जिससे समस्या और भी ज्यादा बढ़े। तटबंधों को ऊंचा व मजबूत करने से और उस पर पक्की सड़क बना देने से क्या नदी में पानी का आना रुक जाएगा? क्या नदी में गाद का आना और उसकी पेटी का ऊपर उठना रुकेगा? तट की तलहटी का ऊपर उठना क्या बंद हो जाएगा? तटबंधों के कारण बाढ़ से तथाकथित सुरक्षित क्षेत्र में जल-जमाव क्या कम हो पाएगा? और क्या कोई इंजीनियर या विभाग यह गारंटी देगा कि बाढ़ का पानी मजबूत व ऊंचे किए गए तटबंधों से ऊपर से नहीं बहेगा या वे कभी नहीं टूटेंगे? इसका जवाब है, शायद नहीं। क्योंकि वे यह जानते हैं और कहते भी हैं कि तटबंध बनेगा, तो टूटेगा। इस पूरी कवायद का तो बस एक ही फायदा है कि इससे परिवहन बेहतर होगा और वह भी तब तक, जब तक कि तटबंध सलामत रहे। मगर यह पूरा काम बाढ़ नियंत्रण के नाम पर होता है, क्योंकि बाढ़ बिकती है, परिवहन नहीं।

 

 


राष्ट्रीय स्तर पर बाढ़ की समस्या का एक विस्तृत अध्ययन 1970 के दशक में हुआ था, जिसकी रिपोर्ट 1980 में आई थी। अब समय आ गया है कि यह अध्ययन फिर से हो, ताकि बदली परिस्थिति में समस्या का मूल्यांकन हो सके और समाधान की दिशा में नए सिरे से प्रयास किए जा सकें। जरूरत यह भी है कि जल-निकासी आयोग की स्थापना की जाए, ताकि इस समस्या का अध्ययन हो और इस पर गंभीरता से काम किया जा सके। जल-निकासी की बात इसलिए, क्योंकि बाढ़ के पानी के ठहरने की एक बड़ी वजह इसकी उचित व्यवस्था का न होना है।

 

 


बाढ़ को ऐतिहासिक तौर पर गांव की समस्या माना जाता था। गांव वाले हमेशा बाढ़ के आने की ख्वाहिश पाला करते थे। वे माना करते थे कि पानी आए और दो-चार दिनों में निकल जाए, ताकि उनकी जमीन को ताजी मिट्टी मिल जाए, खेतों की सिंचाई हो जाए और तमाम ताल-तलैया, कुएं, चापाकल आदि पानी से भर जाएं। उनकी जीवन-पद्धति में शामिल थी बाढ़। मगर अब ऐसा नहीं होता। अब ढाई दिनों की बाढ़ ढाई महीने की हो गई है। शहरों का जिक्र भी बाढ़ को लेकर किया जाने लगा है। बाढ़ ग्रामीण के साथ-साथ शहरी समस्या बन गई है। इस पर सभी को गंभीरता से सोचना चाहिए।

 

 

बाढ़ को थामने के लिए अब तक जो भी निवेश किए गए हैं, उसका प्रतिकूल असर हो रहा है। 1952 में देश का बाढ़ वाला क्षेत्र 2.5 करोड़ हेक्टेयर हुआ करता था, वह अब बढ़कर पांच करोड़ हेक्टेयर हो गया है, जबकि इस बीच हमने अरबों रुपये खर्च किए हैं। बिहार की ही बात करें, तो 1952 में यहां 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ वाला हुआ करता था, जो अब सरकार के हिसाब से 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया और इसमें यदि कुसहा की बाढ़ का 4.153 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जोड़ दें, तो यह आंकड़ा लगभग 73 लाख हेक्टेयर होता है, यानी करीब तीन गुना। साफ है कि बाढ़ नियंत्रण के उपायों में कुछ न कुछ गड़बड़ी है। जरूरत इसी गड़बड़ी को दुरुस्त करने की है।

 


(ये लेखक के अपने विचार हैं)