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बीटी कॉटन के चक्रव्यूह से बाहर आना होगा-- देविन्दर शर्मा

पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा का महाराष्ट्र के अकोला में कपास, सोयाबीन, धान परिषद के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने का निर्णय और फिर उन्हें हिरासत में लेने व रिहाई के नाटक ने लोगों का ध्यान एक छोटे से कीट- पिंक बॉलवर्म द्वारा किए नुकसान की अोर खींचा है। इस छोटे से कीड़े ने देश के सबसे बड़े कपास उत्पादक महाराष्ट्र में 50 फीसदी खड़ी फसलें नष्ट कर दी और 20 फीसदी फसल मध्यप्रदेश में भी नष्ट की। इसके अलावा तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और गुजरात में भी व्यापक नुकसान हुआ है।


पिक बॉलवर्म का फिर सिर उठाना इतना भयावह है कि देश के कई भागों में किसान एक किलो कपास भी नहीं उपजा पाए। सिर्फ महाराष्ट्र में 30 नवंबर तक 80 हजार से ज्यादा किसानों ने कपास का मुआवजा मांगा। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कपास के नुकसान का मुआवजा देने की सिन्हा की मांग स्वीकार कर ली है तो आने वाले दिनों में प्रभावित किसानों की संख्या और बढ़ सकती है। महाराष्ट्र में कुल 42 लाख हैक्टेयर भूमि पर कपास की खेती होती है, जिसमें से 18 जिलों में 20.36 लाख हैक्टेयर में खड़ी फसल पिंक बॉलवर्म ने नष्ट कर दी है। जहां फसलों के कारण 15,000 करोड़ रुपए का नुकसान होने का अनुमान है वहीं, जिनिंग मिलों के सामने भी इस साल कपास जुटाने का संकट खड़ा हो गया है। महाराष्ट्र की 150 जिनिंग मिलों में से केवल 100 चल रही हैं और वे भी आधी क्षमता का ही इस्तेमाल कर पा रही हैं। उद्योग जगत के अनुसार इस साल कपास निर्यात 20 फीसदी कम होगा। जहां पहले 75 लाख गठानों (प्रत्येक 170 किलो) का अनुमान था वहीं अब यह 60 लाख गठन तक आ गया है।


कीटों को दूर रखने में मॉडिफाइड कॉटन की नाकामी ने भी कई जानें ली हैं। खबरे हैं कि 50 खेतिहर मजदूर कीटनाशकों के संदिग्ध विषैले प्रभाव से मारे गए, जबकि कम से कम 25 मजदूरों को दृष्टि गंवानी पड़ी है और 800 लोग महाराष्ट्र के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती किए गए हैं। छह मौतों और कुछ सौ लोगों को अस्पताल में भर्ती किए जाने की खबरें तमिलनाडु के कॉटन बेल्ट से आई हैं। यह त्रासदी मुख्यत: इसलिए हुई, क्योंकि आनुवांशिक रूप से बदली गई बीटी कॉटन की फसल बॉलवर्म का मुकाबला करने में नाकाम रही, जिसका नतीजा यह हुआ कि किसान घातक रसायनों के मिश्रण का छिड़काव करने पर मजबूर हुए।


मुझे लगता है भारतीय किसान अभिमन्यू जैसी स्थिति से गुजर रहा है। उसे चक्रव्यूह में जाने पर मजबूर किया गया पर वह बाहर निकलना नहीं जानता। एक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने मुझे एक बार कहा था, ‘1960 के दशक की शुरुआत में कीटनाशकों की केवल छह से सात किस्में कपास उत्पादक किसान को परेशान करती थीं। आज किसान 70 प्रमुख कीटों से संघर्ष कर रहा है।' कीटों का जितना व्यापक हमला होता है, उतना ही घातक रसायनों का उपयोग व दुरुपयोग होता है। काफी धूमधाम के साथ 2002 में बीटी कॉटन जारी होने के सिर्फ चार साल बाद ही कपास की यह किस्म उस कीट के सामने कमजोर पड़ गई, जिससे सुरक्षित होने की इससे अपेक्षा थी। मोनासेंटो-महायको द्वारा लाई गई यह जीएम फसल की पहली पीढ़ी थी। 2006 में पहली पीढ़ी के जेनेटिक रूप से परिष्कृत कपास की जगह और भी अधिक कारगर बॉलगार्ड-2 ने ले ली। जैसे-जैसे बोलगार्ड-2 का इलाका बढ़ा, नागपुर स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च ने चेतावनी की घंटी बजाई। ‘बोलगार्ड-2 को प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। हमने कपास खाने वाले कुछ कीट पाए हैं।' तब के सीआईसीआर डायरेक्टर केशव क्रांति ने मीडिया को ऐसा बताया था। यह 2015 की बात है। तभी बीटी कॉटन की किस्मों का विनियमन कर देना था। लेकिन, एेसा कुछ नहीं हुआ।


यहां तक कि इससे भी पहले 2014 में रायचुर के कॉटन बेल्ट में 80 फीसदी फसलें नष्ट होने की खबरें थीं, जिससे अंदाजन 40 लाख रुपए का नुकसान हुआ था। 2015 में बोलगार्ड-2 कर्नाटक में फसलों को बचाने में नाकाम रहा, जिससे बहुत नुकसान हुआ। इतने बरसों में कीटनाशकों के जरूरत से ज्यादा प्रयोग से कीटों का संतुलन बिगड़ गया है, नतीजतन कुछ छोटे कीट भी बड़ी समस्या बन गए हैं। कीटों में यह विचलन पंजाब (हरियाणा व राजस्थान में भी) में देखा गया जब व्हाइट फ्लाई ने कपास की दो-तिहाई फसल नष्ट कर दी और अंदाजन 800 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ तथा 15 किसानों ने आत्महत्या कर ली। बोलगार्ड-2 के दिनों से कीटनाशकों का जो प्रयोग 2006 में 0.5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर था वह 2015 में 1.20 किलोग्राम हो गया। भारतीय कपास सलाहकार बोर्ड ने अनुमान लगाया कि 2002 में बीटी कॉटन लाए जाने के बाद से कपास की उपज की लागत तीन गुना बढ़ गई है। उसी अवधि में कॉटन बेल्ट में किसानों की आत्महत्या में तेजी आई। लेकिन, मुझे किसानों को इस चक्रव्यूह से बाहर निकालने का कोई गंभीर प्रयास दिखाई नहीं देता।


संकट से निकलने के दो संभावित रास्ते हैं। पहला और प्रमुख यह है कि किसानों को जो भी नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई बीज कंपनियां करें। महाराष्ट्र सरकार ने बीजों की पांच कंपनियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है पर मुआवजे का बोझ सरकार पर नहीं आना चाहिए। मैं शरद पवार की इस बात से सहमत नहीं हूं कि सरकार को मुआवजा देना चाहिए। बीटी कॉटन के बीज बनाने वाले को नुकसान की भरपाई करनी चाहिए। सीड एक्ट में यह एकदम स्पष्ट किया जाना चाहिए।
दूसरा, बोलगार्ड-3 की तीसरी पीढ़ी की किस्में लाने और मौजूदा संकट को और जटिल बनाने की बजाय कृषि शोध को वैकल्पिक तरीकों पर अपना ध्यान लगाना चाहिए। कृषि विश्वविद्यालयों को जीएम कॉटन पर और आगे शोध न करने के निर्देश दिए जाने चाहिए। उन्हें बायो-कंट्रोल और इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट तकनीकों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिनमें अंतिम उपाय के रूप में ही तथा वह भी बहुत कम मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग िकया जाता है। बुर्किना फासो ने पहले ही दिखा दिया है कि बीटी कॉटन से मुक्ति पाने के बाद कपास उत्पादन 20 फीसदी बढ़ गया। तुर्की ने भी आईपीएम तकनीक से अच्छे नतीजे पाए हैं। जीएम कॉटन को खारिज करने के साथ रासायनिक कीटनाशकों के सीमित प्रयोग से तुर्की ने कपास का उत्पादन दोगुना कर लिया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ और पर्यावरणविद
hunger55@gmail.com