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बीमार इकोनॉमी को नहीं मिली दवा

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गिरती इकोनॉमी रफ्तार, बढ़ती बेरोजगारी के साए में 2020-21 का बजट पेश किया और दावा यह है कि यह बजट न केवल इकोनॉमी को बूस्ट देगा बल्कि “यह आकांक्षी भारत, मजबूत अर्थव्यवस्था और हितैषी समाज” के लक्ष्यों पर खरा उतरेगा। वित्त मंत्री के दावे और हकीकत में कितना फासला है, आउटलुक ने देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों से एक पैनल चर्चा के जरिए बजट पर उनकी राय जानने की कोशिश की। इस पैनल में रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्‍त्री डी.के.जोशी, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन डॉ. टी.हक, वित्त मंत्रालय के पूर्व सलाहकार तथा सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव के प्रमुख मोहन गुरुस्वामी, एचडीएफसी बैंक के मुख्य अर्थशास्‍त्री अभीक बरुआ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी के प्रोफेसर एन.आर. भानुमूर्ति शामिल हैं

 क्या बजट से मंदी के भंवर में फंसी इकोनॉमी को रिवाइवल का बूस्ट मिलेगा?

डी.के. जोशीः इकोनॉमी के रिवाइवल के लिए सबसे जरूरी है कि आपके पास पैसा हो। जब सरकार बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने की कोशिश कर रही है, तो फिर खर्च करने की क्षमता कम होना स्वाभाविक है। ऐसे में, साफ है कि सरकार के पास पैसा नहीं है। इसलिए बजट से अर्थव्यवस्था को थोड़ा ही बूस्ट मिलेगा। बेस कम है, इसलिए नए वित्त वर्ष में थोड़ा सुधार दिखेगा। अगर मानसून सामान्य रहता है और कच्चे तेल की कीमतें नहीं बढ़ती हैं, तो 6.0 फीसदी की ग्रोथ रेट हासिल की जा सकती है।

डॉ. टी. हकः अगर हम बजट को गिरती हुई ग्रोथ रेट, बढ़ती बेरोजगारी, गिरते निर्यात और संसाधनों की बड़ी मात्रा में कमी के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो वित्त मंत्री से जैसे कदमों की उम्मीद थी, वैसे कदम बजट में नहीं उठाए गए हैं। अगर वह ऐसा करतीं तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर जल्दी लाया जा सकता था।

मोहन गुरूस्वामीः जिस तरह से बजट लिखा गया है, उससे साफ है कि इकोनॉमी की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा गया है। बजट में फोकस निवेश बढ़ाने पर होना चाहिए था। लेकिन उस दिशा में कोई पहल नहीं की गई है। इन्वेस्टमेंट रेशियो 33 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर पहुंच गया है लेकिन लगता है कि इसकी चिंता, किसी को नहीं है।
 
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