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बीमार व्यवस्था में पिसते गरीब-- सुभाष चंद्र कुशवाहा

आज शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यावसायीकरण के चलते गरीबों का जीना दूभर होता जा रहा है। आए दिन महंगी शिक्षा का खर्च वहन न कर पाने के कारण गरीब छात्र व्यावसायिक शिक्षा से वंचित हो रहे हैं और हताशा में खुदकुशी कर रहे हैं। इसी तरह अस्पतालों का खर्च न उठा पाने के चलते गरीब असमय मरने को मजबूर हो रहे हैं। दुखद है कि आम लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने वाली व्यवस्थाओं को बीमार बना दिया गया है। सामाजिक दायित्व के इन क्षेत्रों पर निजी व्यवसायियों का कब्जा हो गया है। अस्पतालों और कॉलेजों की फीस लाखों रुपये कर दी गई है। हालत यह हो गई है कि सस्ते इलाज के नाम पर नीम हकीमों की दुकानें धड़ल्ले से चल रही हैं। बेशक जनगणना रिपोर्ट में 74 फीसदी आबादी साक्षर हो गई हो, पर यह साक्षरता मात्र अपना नाम लिखने भर को है। ऐसी साक्षरता सामाजिक हस्तक्षेप के लिए किसी काम की नहीं।

अपने देश में 26 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाने के लिए दाल, सब्जी या चटनी में से कोई एक चीज ही मुश्किल से मिल पाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में 28 फीसदी लोगों का दैनिक व्यय 12 रुपये से कम है, जबकि शहरी क्षेत्रों के 33 फीसदी लोग रोजाना खाने-पीने पर 20 रुपये से ज्यादा खर्च नहीं कर पा रहे हैं। ग्रामीण आबादी में 11 फीसदी के पास दैनिक खर्च के लिए आठ रुपये से ज्यादा रकम उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में गरीबों के बच्चे महंगी फीस वाले व्यावसायिक शिक्षण संस्थान में कैसे पढ़ेंगे? और यदि किसी गरीब का गुर्दा खराब हो जाए, तो क्या वह जिंदा रह पाएगा?

हकीकत यही है कि सरकारी अस्पतालों में कभी-कभार बुखार या दर्द की एकाध गोली और प्राथमिक पाठशालाओं में पढ़ाई के नाम पर खिचड़ी खिलाई जाती है। पहले गरीब परिवारों से ताल्लुक रखने वाले लोग जब इन क्षेत्रों में आते थे, तो वे गरीबों का दुख-दर्द समझते थे। आज वह कड़ी भी टूट गई है। प्रतियोगी परीक्षाओं का ढांचा अमीर लोगों के नजरिये से तैयार किया जा रहा है। देश भर में खुल रहे महंगे कोचिंग संस्थान और महंगी पुस्तकें गरीबों को इस दौड़ से बाहर कर रही हैं। यही स्थिति स्वास्थ्य क्षेत्र की भी है।

सरकारी स्तर पर आम लोगों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की कैसी व्यवस्था है, उसकी बानगी देखिए ः देश के 6,51,064 प्राथमिक स्कूलों में से 15.67 फीसदी स्कूलों में एक या एक भी शिक्षक नहीं है। 1996 में कराए गए छठे सर्वेक्षण में बीस फीसदी स्कूलों में दो शिक्षक पाए गए थे। सातवें सर्वेक्षण में पाया गया कि प्राथमिक स्कूलों के कुल 25,33,205 पूर्णकालिक शिक्षकों में से लगभग 21 फीसदी शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। चिकित्सा क्षेत्र में 30 हजार से लेकर 50 हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है। लगभग 20 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों पर एक या एक भी डॉक्टर नहीं है। दस हजार की जनसंख्या पर एक स्वास्थ्य उपकेंद्र है, जो अल्प प्रशिक्षित मिडवाइफ के हवाले है।

ये मिडवाइफ कभी-कभार टिटनेस का टीका या आयरन की गोलियां बांटकर अपने कर्तव्यों को पूरा कर लेती हैं। यहां प्रसव की सुविधाएं नहीं होतीं। देश भर में कुल 2,750 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं और लगभग बीस लाख की आबादी पर एक जिला अस्पताल है, जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ डॉक्टर एवं बिस्तर उपलब्ध हैं। अल्ट्रासाउंड, एक्स-रे या डायलेसिस की सुविधाएं ज्यादातर जिला अस्पतालों में नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की स्थिति और भी खराब है। अकेले उत्तर प्रदेश में 14,500 डॉक्टरों के पद हैं, जिन पर मात्र आठ हजार डॉक्टर तैनात हैं। इनमें से चालीस फीसदी डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं जाते हैं। गांवों में डॉक्टरों के न जाने के पीछे चिकित्सा क्षेत्र में अभिजात्य वर्ग का वर्चस्व, डॉक्टरी की महंगी पढ़ाई, गरीब बच्चों की बेदखली प्रमुख कारण हैं।

जाहिर है, केवल अस्पताल या स्कूल बनवा देने से गरीबों का भला नहीं होने वाला है। जरूरी है कि अस्पतालों में डॉक्टर, दवा और जांच की सुविधाएं हों तथा स्कूलों में पढ़ाने के लिए अध्यापक के साथ-साथ खेल एवं आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हों। कोई भी कल्याणकारी व्यवस्था गरीबों की अनदेखी नहीं कर सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो यह अमानवीय है।