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बुजुर्गों के आंसू-- अतुल कनक

सदियों से हमारे यहां मातृशक्ति की पूजा और सम्मान की परंपरा पर गर्व किया जाता रहा है। लेकिन कुछ दिन पहले एक ऐसी घटना घटी कि मैं भीतर तक दहल गया। एक परिचित बुजुर्ग महिला अचानक करीब दो सौ किलोमीटर का सफर तय करके बदहवास हालत में अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंची। वह बुरी तरह से दहली हुई थी। सड़सठ वर्ष की उम्र में उन्हें उनके इकलौते जवान पुत्र ने बुरी तरह पीटा था और कई तरह की धमकियां भी दी थीं। उस बुजुर्ग महिला के अनुसार उनका कसूर इतना ही था कि उन्होंने अपने विवाहित जवान बेटे के एक ऐसे रिश्ते पर आपत्ति जाहिर की थी जिसे वह खुद भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करता।


यह भी महत्त्वपूर्ण है कि इस बुजुर्ग महिला के पति की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। चूंकि वे खुद सरकारी सेवा में थीं, इसलिए उन्होंने अपनी संतति को खूब लाड़ से पाला। तीन बेटियों के बाद बेटा हुआ तो उसे राजकुमारों की तरह सुख देने की कोशिश की। अब हालत यह है कि बेटियां मां के प्रति सहानुभूति तो रखती हैं, लेकिन साफ कहती हैं कि आप अब कितने दिन रहेंगी... हम भाई से बिगाड़ मोल कैसे लें... आखिर जीवन भर निभाएगा तो वही! अपमान, उपेक्षा और प्रताड़ना जब अपनी पराकाष्ठा तक पहुंच गए तो वह बुजुर्ग महिला स्नेह का विश्वास लेकर अपने एक रिश्तेदार के घर तक आ गर्इं। मैं उद्वेग के उतरने के इंतजार में हूं। हालांकि कानून बुजुर्गों को कई तरह के संरक्षण देता है। लेकिन हम सब जानते हैं कि अपनी संतति के प्रति सहज-मोह बुजुर्गों को उसी क्षण पिघला देता है, जब कानून उनके खिलाफ कार्रवाई की शुरुआत करता है।


यह अकेली ऐसी घटना नहीं है जिसमें वे महिला अपनी ही संतति के हाथों प्रताड़ित हो रही हैं। हमारे आसपास ऐसे अनगिनत उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, जहां पिता की अर्जित संपत्ति पर अधिकार पाने के बाद बेटों ने उन्हें एक-एक पैसे के लिए मोहताज कर दिया या फिर विधवा मां को उसी के बनाए घर से निकाल बाहर कर दिया। कुछ लोग इतनी उदारता अवश्य दिखाते हैं कि अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम तक छोड़ आते हैं। लेकिन जिन बुजुर्गों की जान अपनी संतति में बसती है, उन्हें उस एकाकीपन में कैसा महसूस होता होगा- इसकी कल्पना करके ही आत्मा सिहर उठती है।


याद आता है कि कुछ समय पहले एक मशहूर उद्योगपति को किस तरह इसी पीड़ा से गुजरना पड़ा था। चूंकि प्रसंग एक बड़े औद्योगिक घराने से जुड़ा था, इसलिए बात सुर्खियों में आ गई, वरना ऐसे अनगिनत प्रसंग सिर्फ घुटन और आंसुओं की तपिश के जाल में सिमट कर रह जाते हैं। कथित सामाजिक प्रतिष्ठा बचाए या बनाए रखने के नाम पर बुजुर्ग खुद को अंतहीन घुटन के हवाले कर देते हैं। मैंने उस बुजुर्ग महिला से कहा था कि वे तसल्ली से सोचे लें और चाहें तो अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी कार्रवाई की पहल करें। लेकिन उन्होंने भी सिसकते हुए यही कहा था कि अपनी प्रतिष्ठा बनाने के लिए मैंने सारी उम्र खपा दी। अब अगर मामला सार्वजनिक करूंगी तो लोग यही कहेंगे कि मैं अपनी संतान तक को संस्कार देने में चूक गई। एक शायर की ये पंक्तियां याद आर्इं- ‘बाहर नहीं है अश्क, अभी चश्मेतर में है/ आ जाओ, अभी घर की बात, घर की घर में है।' लेकिन वे बेटे की पिटाई से आतंकित होकर अपना घर छोड़ कर आने के बावजूद किसी बदनामी से डर रही थीं।


कुछ समय पहले अपने शहर के एक वृद्धाश्रम में आयोजित एक कार्यक्रम में मैं कविता पढ़ने गया था। काव्यपाठ के बाद जब मैंने वहां मौजूद कुछ बुजुर्गों से बात की तो अधिकतर अपने परिवार के बारे में ही बता रहे थे। कुछ ने जब यह बताया कि कैसे वे अपने पोते-पोतियों को बचपन में कहानियां और कविताएं सुनाया करते थे तो उनकी आंखों में तैरता हुआ पानी साफ देखा जा सकता था।


वृद्धावस्था शारीरिक असहायता का प्रतीक है। यह वह समय होता है जब व्यक्ति को सर्वाधिक मानसिक संगति की जरूरत होती है। भागदौड़ भरी जिंदगी में कोई ठिठक कर किसी बुजुर्ग को कुछ देर के लिए सुन भी ले तो उनकी धुंधली दृष्टि में बसंत महकने लगता है। वे लोग खुशकिस्मत हैं जिनके पास इस उम्र में भी अपने जीवनसाथी के सुख का साथ है। लेकिन ऐसा सुख कितने लोगों को नसीब है! हो सकता है कि कुछ मुद्दों पर किन्हीं परिवारों में कुछ बुजुर्गों का रुख अतार्किक हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन्हें अपने जीवन से इस तरह निकल जाने को मजबूर कर दें। अगर किसी मां को बेटे की पिटाई से प्रताड़ित होकर अपना घर छोड़ना पड़े और जो लोग प्रभावशाली हस्तक्षेप कर सकते हों, वे भविष्य के संबंध का हवाला देकर मुंह फेर लें तो हमें यह सोचने की जरूरत है कि हमारे भीतर कितना मनुष्य और कितनी संवेदना बची है!