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बेतरतीब विकास से आई आफत - संजय गुप्‍त

पेरिस में जलवायु सम्मेलन के दौरान ही चेन्न्ई में बारिश से मची तबाही के कारण आम लोगों के लिए भी जलवायु परिवर्तन और अधिक चिंता का विषय बन गया है। चेन्न्ई के संकट ने यह स्पष्ट किया कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली समस्याएं सिर उठा चुकी हैं और उनका सामना करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। पेरिस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत का पक्ष मजबूती से रखते हुए यह रेखांकित किया था कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए भारत अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटेगा। उनके वक्तव्य ने यह स्पष्ट किया कि भारत न केवल इस समस्या के समाधान के प्रति प्रतिबद्ध है, बल्कि विकसित देशों से यह अपेक्षा भी कर रहा है कि वे दोषारोपण के बजाय सार्थक योगदान के लिए आगे आएं। प्रधानमंत्री ने बढ़ते तापमान के खतरे का सामना करने के लिए सभी देशों से व्यापक, न्यायपूर्ण और टिकाऊ समझौते के लिए तत्काल प्रयास शुरू करने का आह्वान किया। इसके साथ ही यह घोषणा भी की थी कि 2030 तक भारत की समस्त ऊर्जा क्षमता का 40 प्रतिशत हिस्सा गैर-जैविक ईंधन पर आधारित होगा।

पता नहीं कि पेरिस सम्मेलन का समापन भारत की अपेक्षा के अनुरूप होगा या नहीं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय साझा तौर पर जलवायु को बचाने के किन उपायों पर सहमत होगा, लेकिन यह आवश्यक है कि भारत जलवायु परिवर्तन को रोकने के कदम उठाना शुरू करे। इसमें सभी को सहयोग देना होगा, क्योंकि बात फसलों के अवशेष जलाने के सिलसिले को खत्म करने की हो या फिर ईंधन के रूप में लकड़ियों का इस्तेमाल रोकने की या फिर जल स्रोतों को साफ-सुथरा बनाने की, ये सारे काम जनता के सक्रिय सहयोग से ही संभव हैं।

अब जब जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान किसी से छिपे नहीं, तब फिर इसका कोई औचित्य नहीं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले काम होते रहें। यह सही है कि भारत प्रकृति को पूजने वाले देश के रूप में जाना जाता है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हमारे नदियां-झरने-तालाब एवं अन्य परंपरागत जल स्रोत दूषित हो रहे हैं। इसका कारण यही है कि उन्हें साफ-सुथरा रखने के प्रति हम सचेत नहीं। इसी तरह पर्वतीय इलाकों में पहाड़ों का क्षरण हो रहा है तो वनों का क्षेत्रफल घटता जा रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि उनके संरक्षण के उपायों पर अमल के मामले में जहां सरकारों के स्तर पर आवश्यक इच्छाशक्ति का परिचय नहीं दिया जा रहा, वहीं दूसरी ओर आम जनता के बीच भी उपेक्षा भाव दिखता है।

चेन्न्ई में बारिश ने तबाही के जो हालात पैदा किए, उसे लेकर आम धारणा यह है कि अधिक बारिश ने यह स्थिति पैदा की। इस धारणा के साथ एक सच्चाई यह भी है कि बेतरतीब और अनियोजित विकास ने संकट को और गहराने का काम किया। समुद्र किनारे बसे होने के बावजूद चेन्न्ई में वर्षा-जल की निकासी के पर्याप्त उपाय न होने से यही स्पष्ट हुआ कि नगर नियोजन की ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में किसी इलाके में ज्यादा बारिश की आशंका और बढ़ गई है। यदि चेन्न्ई जैसे दक्षिण भारत के सर्वप्रमुख शहर में जल निकासी के जरूरी उपायों की अनदेखी हो सकती है, तो आम शहरों की हालत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह ठीक नहीं कि जहां ग्रामीण इलाकों में परंपरागत जल स्रोतों की अनदेखी हो रही है, तो वहीं शहरों में जल निकासी के उपायों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। स्थिति यह है कि छोटी-मोटी नदियां बेतरतीब शहरीकरण की चपेट में आकर लुप्त होती जा रही हैं तो बड़ी नदियां सीवर और नालों का गंदा पानी ढोने तक सीमित होती जा रही हैं।

जैसे हालात चेन्न्ई में बने, वैसे ही मुंबई और श्रीनगर में बन चुके हैं। चेन्न्ई में अडयार और कुवम नदियां समय के साथ उथली और संकरी होती गईं, क्योंकि वे अनियोजित विकास के साथ ही अतिक्रमण का भी शिकार हुईं। इन नदियों किनारे बसे इलाकों में सबसे ज्यादा तबाही इसीलिए मची, क्योंकि वे सामान्य से थोड़ी अधिक बारिश के बाद उफना गईं। चेन्न्ई में जो तमाम जानें गईं और हजारों करोड़ रुपए की आर्थिक क्षति हुई, उसका एकमात्र कारण जलवायु परिवर्तन जनित आवश्यकता से अधिक बारिश नहीं, बल्कि नगर नियोजन की घोर अनदेखी भी है। कुछ समय पूर्व मुंबई में जिस मीठी नदी के उफनाने के कारण तबाही मची थी, वह भी अतिक्रमण का शिकार थी और श्रीनगर में झेलम नदी भी। नदियां अतिक्रमण का शिकार इसलिए होती हैं, क्योंकि नेताओं और भू-माफिया की मिलीभगत बढ़ती जा रही है। यह मिलीभगत बेतरतीब विकास का कारण बनती है और आम तौर पर नदियों के किनारों को अपनी चपेट में ले लेती है।

देश के ज्यादातर शहर प्रदूषित हो रहे हैं तो इसी कारण कि हम जीवनशैली बदलने के साथ ही विकसित देशों से कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं। शहरों में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण वाहनों से होने वाला कार्बन उत्सर्जन भी है। शहरों में निजी वाहन बढ़ रहे हैं, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन के पर्याप्त साधन नहीं हैं। कुछ शहरों में तो अभी सार्वजनिक परिवहन के उपयुक्त साधनों पर विचार-विमर्श ही हो रहा है। करीब-करीब सभी शहर ट्रैफिक जाम से त्रस्त हैं। जाम का कारण अतिक्रमण का शिकार सड़कें भी हैं और पार्किंग का अभाव तथा बेतरतीब यातायात भी। जाम में अटके या फिर रेंगते वाहन कहीं ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करते हैं। यदि ऐसी व्यवस्था की जा सके कि शहरों में जगह-जगह जाम न लगे और वाहन रेंगने को विवश न हों तो प्रदूषण में कई गुना कमी लाई जा सकती हैं।

विडंबना यह है कि ऐसे ठोस उपायों के बजाय एक-एक दिन सम-विषम नंबर के निजी वाहन चलने देने जैसे बेतुके उपाय सोचे जा रहे हैं। यह तो वह उपाय है जिससे हर जगह तौबा ही की गई है। हमारे जिन शहरों में सार्वजनिक परिवहन के नए उपाय जैसे कि मेट्रो को अपनाया गया है, वे भी आधे-अधूरे हैं और गलत तकनीक का शिकार भी। दिल्ली में अनेक मेट्रो स्टेशन ऐसे हैं, जहां पार्किंग के लिए स्थान नहीं हैं। ट्रैफिक जाम से निजात दिलाने के लिए धन या तकनीक से ज्यादा इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, लेकिन दुर्भाग्य से उसका ही अभाव दिखता है।

यदि हमारे नीति-नियंता अनियोजित विकास को रोकने के मामले में इच्छाशक्ति का परिचय नहीं देते तो शहरों में रहन-सहन और कष्टकर तो होगा ही, वे प्रदूषण से भी त्रस्त होंगे। चूंकि जलवायु परिवर्तन की समस्या की जड़ें कहीं न कहीं लोगों की जीवनशैली में भी हैं, इसलिए उसमें सुधार लाने के ठोस प्रयासों के साथ ही यह भी देखना होगा कि आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए ग्र्रामीण विकास व शहरीकरण के तहत जो तमाम योजनाएं और कार्यक्रम चल रहे हैं वे बेतरतीब, अनियोजित और कामचलाऊ ढंग से न चलाए जाएं।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)