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बोतल में बंद पानी- राम प्रताप गुप्ता

इस व्यवसाय में उतरी कंपनियों का सरोकार लाभ तक ही सीमित पिछले दशकों में हमारे देश में जल दोहन की जो व्यवस्था अपनाई गई, उसके परिणामस्वरूप देश के अधिकांश भागों में भूजल भंडार अतिदोहन के शिकार से अपनी क्षमता खो रहे हैं। पानी की भारी मात्रा उलीचे जाने तथा बदले में उनमें नगरों-कसबों और उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित और गंदा पानीमिलाए जाने से नदियों का पानी भी पीने के काबिल नहीं रह गया है। इस पृष्ठभूमि में नगरीय और कसबाई स्थानीय संस्थाओं को अपने नागरिकों के लिए साफ-सुरक्षित पेयजल आपूर्ति करना एक बड़ी समस्या बन गया है। ऐसे में उच्च मध्यवर्गीय लोगों ने पेयजल जनित बीमारियों से बचाव के लिए बोतलों में भरकर बेचे जाने वाले पानी का ही उपयोग करना शुरू कर दिया है।
बोतल के पानी की इस बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में बोतलबंद पानी का उद्योग बड़ी तेजी से पांव पसार रहा है। वर्ष 1970 में पूरी दुनिया में एक अरब लीटर पानी बोतलों में बेचा जाता था, 2006 में यह मात्रा 200 गुना बढ़कर 200 अरब लीटर हो गई थी। चूंकि इस उद्योग में भारी लाभ है, अतः पिछले कुछ वर्षों में अनेक कंपनियां इस बाजार में आ गई हैं। भारतीय रेल भी प्लेटफॉर्म पर पर्याप्त पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के स्थान पर पानी की बोतल बेचकर अपनी तिजोरी भरने में लगी है।
इस उद्योग को देश के भूजल भंडारों से पानी निःशुल्क प्राप्त होता है और यह उसे भारी कीमत पर बेचता है, अतः इसमें थोड़े से पूंजी निवेश से अच्छा-खासा मुनाफा मिलता है। फिर इस उद्योग में मांग कम होने की कोई आशंका नहीं रहती। अर्थव्यवस्था कितनी ही मंदी का शिकार क्यों न हो, पानी की मांग पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। पर सवाल यह है कि क्या उपभोक्ता बोतलबंद पानी के साफ-सुरक्षित होने के बारे में निश्चिंत हो सकते हैं? अमूमन ऐसे पानी की गुणवत्ता का कोई मापदंड निर्धारित नहीं किया गया है। वर्ष 1999 में अमेरिका स्थित नेचुरल रिर्सोसेज डिफेंस काउंसिल ने विभिन्न कंपनियों द्वारा बेचे जा रहे 103 ब्रांडों के पानी की 1,000 बोतलों तथा नीदरलैंड के यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर द्वारा यूरोप में बेचे जा रहे 68 ब्रांडों के पानी की जांच की, तो उनमें हानिकारक मोल्डपेनिसीलिन की मात्रा भी थी। वर्ष 2004 में कोका कोला कंपनी द्वारा उत्पादित उसानी ब्रांड के पानी की बोतलों को बाजार से वापस लेना पड़ा था, क्योंकि उसमें ब्रोमेट नामक रसायन की भारी मात्रा पाई गई थी। इस रसायन से बहरेपन के साथ किडनी फेल्योर भी हो सकता है।
हमारे यहां भी सेंटर फॉर साइंस एवं इन्वॉयर्नमेंट ने कोका कोला की जांच करने पर पाया कि उसमें हानिकारक कीटनाशक मौजूद थे। इन्हीं सब खतरों को देखते हुए ब्रिटिश पर्यावरण समूह सस्टेन ने उपभोक्ताओं को बोतलबंद पानी की जगह नल का पानी पीने की सलाह दी है, क्योंकि इस पानी की शुद्धता के मापदंड निर्धारित हैं और प्रायः उनका पालन किया जाता है। इसे शुद्ध बनाए रखने के लिए जन दबाव भी बना रहता है।
बोतलबंद पानी आपूर्ति करने वाली कंपनियां साफ पानी तो नहीं ही देतीं, अनेक जलस्रोतों का अतिदोहन भी कर रही हैं। केरल के प्लाचीमाडा क्षेत्र के भूजल भंडारों का कोका काला द्वारा अत्यधिक दोहन कर उन्हें नष्ट कर देने के विरुद्ध स्थानीय लोगों का आंदोलन काफी चर्चित रहा है। अमेरिका में भी ग्रेटर लेक्स जैसी बड़ी झील के दोहन से उसके सूखने का खतरा उत्पन्न हो गया है। अनेक कंपनियां हिमालय में हजारों वर्ष पूर्व जमे बर्फ को पिघलाकर बोतलों में बंद कर बेचने की योजनाएं बना रही हैं। इसे शुद्ध करने की आवश्यकता न होने से कंपनियों को काफी पैसा बचने की उम्मीद भी है। इस उद्योग की रुचि पानी को बोतलों में भर बेचने तक सीमित होती है, उसे संरक्षित रखने की नहीं। यह आम आदमी को साझा विरासत में प्राप्त पानी से वंचित कर उसे संपन्नों को बेच रहा है। इस तरह जलागम क्षेत्रों के नष्ट हो जाने से गरीब आबादी प्रभावित होती है।
जल संसाधनों के वितरण को गैरबराबरी का बनाने के साथ ही इस उद्योग द्वारा उनके पर्यावरणीय समस्याओं और बरबादियों को जन्म भी दिया जा रहा है। एक लीटर कोका कोला के उत्पादन की प्रक्रिया में 2.5 लीटर पानी बरबाद होता है। फिर भी यह कंपनी शीतलपेय के उत्पादन प्रक्रिया में निकलने वाले कचरे को उपजाऊ खाद बताकर लोगों के खेतों में बिछा रही है, ताकि उसे इस कचरे को ठिकाने लगाने की लागत से मुक्ति मिल सके। ऐसा करके वह मिट्टी को प्रदूषित कर रही है। पानी की जिन बोतलों को जलाकर नष्ट किया जाता है, उनके जलाने की प्रक्रिया में क्लोरीन जैसी घातक गैस का उत्सर्जन होता है। प्लास्टिक की जो बोतलें मिट्टी पर यों ही फेंक दी जाती हैं, वे हजारों वर्षों तक नष्ट नहीं होतीं और भूजल भंडारों के पुनर्भरण में बाधक बनी रहती हैं। दुनिया भर में पानी की बोतलों की जो रीसाइक्लिंग होती है, उसका आधा चीन में किया जाता है। इस कारण चीन का पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है। बोतलों के उत्पादन में करीब 2.5 अरब प्लास्टिक का उपयोग होता है। इससे जो प्रदूषण फैलता है, वह अलग है। विश्व भर में उत्पादित पानी की बोतलों का 25 प्रतिशत भाग अन्य राष्ट्रों को निर्यात किया जाता है, जिससे उस देश के गरीब उपभोक्ता पानी से वंचित हो जाते हैं। इस समय दुनिया में करीब एक अरब लोग पेयजल के अभाव से जूझ रहे हैं।
अब समय आ गया है, जब एक तरफ तो बोतलबंद पानी की गुणवत्ता के समुचित मापदंड निर्धारित किए जाएं, तो दूसरी ओर, पानी जैसी अनिवार्य मानवीय आवश्यकता की आपूर्ति सबके लिए सुनिश्चित की जाए।