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बौद्धिक स्वतंत्रता और राष्ट्रहित- मणींद्र नाथ ठाकुर

ऐसा क्या हो गया है कि भारत के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रविरोधी होने का खिताब मिल रहा है? क्या स्वतंत्र चिंतन, सरकारी नीतियों की आलोचना राष्ट्रहित में नहीं है? आखिर उन्हें क्यों लगता है कि व्यवस्था गरीबों के हित में नहीं है?

और यदि यह सही है, तो फिर व्यवस्था को ठीक करने का क्या उपाय किया जा सकता है? क्या यह भारतीय बुद्धिजीवियों का दायित्व नहीं है कि वे भूखे और गरीब लोगों के हित की आवाज उठायें? पिछले कुछ समय से विश्वविद्यालयों में और उससे बाहर के बौद्धिक जगत में भी सोचने, समझने और बोलने की स्वतंत्रता को लेकर चिंता जाहिर की जा रही है. ऐसा लगने लगा है कि वैचारिक मतभेद और आलोचना की जगह खत्म होती जा रही है.

ऐसा होना किसी समाज के लिए सही नहीं है. समाज के विकास के लिए बुद्धिजीवियों को अभयदान मिलने की भारतीय परंपरा बहुत पुरानी है. यदि आज के परिप्रेक्ष्य में भी सोचा जाये, तो अमेरिकी और फ्रांसीसी समाज की खासियत ही यही है कि वहां बुद्धिजीवियों को अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्रता मिली हुई है. शायद इसलिए वहां नवीन विचारों का सृजन और वैज्ञानिक खोजों की संभावना ज्यादा होती है.

यह समझना जरूरी है कि यदि भारत एक शक्तिशाली देश बनना चाहता है, तो इसे बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक खोज, साहित्य सृजन, दर्शन परंपरा के लिए जगह बनानी पड़ेगी. इसके लिए विश्वविद्यालयों और उसके बाहर बुद्धिजीवियों को स्वतंत्र चिंतन की छूट देनी होगी. राग दरबारी गानेवाले बुद्धिजीवियों से राष्ट्र का विकास संभव नहीं. भारत के नेताओं को राजसत्ता के मद में बुद्धिजीवियों की स्वतंत्रता का हनन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा सोचा जाना राष्ट्र-विरोधी कदम होगा.

हाल ही में एक नवनिर्मित केंद्रीय विश्वविद्यालय में गया, तो स्वतंत्रता हनन के परिणामों को देखने का मौका मिला. विवि में हर जगह कैमरे लगे हुए थे. यहां तक कि शिक्षकों के कमरों में शक्तिशाली कैमरे थे, स्टाफरूम में कैमरे थे. इन कैमरों का लिंक कुलपति महोदय के मोबाइल से जुड़ा था.

पता चला कि यदि दो शिक्षक किसी क्षेत्रीय भाषा में बात कर रहे हों, तो कुलपति महोदय उस रिकॉर्डिंग का अनुवाद करवा कर जानने की कोशिश करते थे कि कहीं उनके विरोध में बातें तो नहीं हो रही हैं. मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मुझे बताया गया कि शिक्षकों की नियुक्ति के समय ही उनसे त्यागपत्र लिखवा लिया जाता था, ताकि उन पर अंकुश रखा जा सके. छात्रों को होली खेलने पर माफी मांगना पड़ा और थूक चटवाया गया. एक शिक्षक के घर गुंडों ने जाकर उनकी ऐसी पिटाई की कि आज भी शिक्षक हॉस्पिटल में हैं.

नतीजा क्या हुआ? शिक्षकों और कुलपति के बीच जंग छिड़ गयी. दोनों तरफ से मुकद्दमों का सिलसिला चल पड़ा. पता चला कि कुलपति ने नियुक्ति के लिए अपनी शैक्षणिक योग्यता की जो सूचनाएं दी थी, उसमें ही भारी गड़बड़ी थी. अंत में ये सारी बातें बाहर आ गयीं और कुलपति को त्यागपत्र देना पड़ा.

अब इस पूरी प्रक्रिया में सबसे दुखद बात यह हुई कि जो युवा बुद्धिजीवी कुछ नवीन वैज्ञानिक खोज कर सकते थे, समाजशास्त्री भारतीय समाज की बेहतर समझ पर शोध ग्रंथ लिख सकते थे, सब के सब इस लड़ाई में लग गये. यदि एक सर्वे किया जाये, तो आप पायेंगे कि आज भारतीय विश्वविद्यालयों में बड़े पैमाने पर शिक्षक मुकद्दमों में उलझे पड़े हैं.

जेएनयू से लेकर पटना विवि तक आप घूम आयें, वहां के बहुत से शिक्षक अपने विषय के कम और कानून के बड़े जानकार नजर आयेंगे. यह देश का दुर्भाग्य है. दिल्ली विवि में तो मुकद्दमों के कारण चार से पांच हजार युवा शिक्षक अभी तक नियमित नौकरी नहीं पा सके हैं. अब यदि कोई आठ वर्षों तक अपनी नौकरी को लेकर निश्चिंत नहीं हो सकता है, तो बौद्धिक काम कब कर पायेगा. उनका समय तो विश्वविद्यालय के प्रभावशाली शिक्षकों और नेताओं की परिक्रमा करने में ही चला जाता है.

तमाशा यह है कि नौकरी के लिए साक्षात्कार देने के समय उन्हें पढ़ने से ज्यादा चिंता सेटिंग की करनी होती है और जाति, धर्म, राजनीतिक विचारधारा से लेकर चमचागिरी तक के नुस्खों को आजमाना पड़ता है. अब ऐसे में यदि आप उम्मीद करते हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों की सृजन क्षमता अंतरराष्ट्रीय स्तर की हो, तो यह एक तरह की बेमानी होगी.

शायद राजसत्ता बुद्धिजीवियों से डरने लगी है. उसमें आलोचना सुनने और बर्दाश्त करने की क्षमता खत्म होती जा रही है. बुद्धिजीवियों को सरकारी नौकर बनाने की कोशिश की जा रही है. उनके सोचने पर पहरा लगाने का प्रयास किया जा रहा है. तभी तो विश्वविद्यालयों में कैमरे लगाने की बात हो रही है. आलोचना करनेवाले स्वतंत्र बुद्धिजीवियों को राष्ट्रदोह के नाम पर गिरफ्तार किया जा रहा है. उन्हें यह समझना जरूरी है कि बुद्धिजीवियों का बड़ा दायित्व राजसता के बदले जनता के प्रति है.

भारत में बौद्धिक स्वतंत्रता की पुरानी परंपरा रही है. यहां फकीरों और संन्यासियों की परंपरा रही है, जो ज्यादातर सत्ता के विरोध में ही रहते थे. निजामुद्दीन औलिया ने राजदरबार में कभी कदम नहीं रखा. राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र ऋषि को केवल यह कहने पर कि सपने में उसने देखा कि राजा ने उसे सब कुछ दान में दे दिया, सचमुच सब कुछ देकर कंगाल हो गये.

यह एक तरह से सांकेतिक कहानी है राजसत्ता और बुद्धिजीवियों के बीच के संबंध को समझने के लिए. जो लोग परंपरा की गीत गाते नहीं अघाते हैं, वही सबसे ज्यादा परंपराओं को तोड़ते भी हैं. गांधी भी इसी कड़ी के एक बौद्धिक थे. यदि प्रार्थना सभा में दिये गये उनके भाषणों को सुनें, तो आपको लगेगा कि राजसत्ता से अलग हटकर लोकिहित में सोचने का काम कोई बौद्धिक कैसे करता है.

इतना तो तय है कि भारत की प्रगति इस बात पर निर्भर करेगी कि देश के विश्वविद्यालयों का माहौल कैसा हो. उन्हें स्वतंत्र चिंतन के लिए निरापद जगह के रूप में विकसित होने का मौका दिया जा रहा है या नहीं.

राजसत्ता की आलोचना उनका कर्तव्य माना जाये और उनकी आलोचनाओं को सरकार गंभीरता से ले. वहीं बुद्धिजीवियों को भी यह समझना चाहिए कि वे सिर्फ वेतनभोक्ता कर्मचारी नहीं हैं, बल्कि लोकहित के लिए काम करना उनका प्रथम कर्तव्य है.

राजनीतिक विचारधाराओं से परे भी लोकहित की एक राजनीति है, जिसके लिए उन्हें समर्पित होने की जरूरत है. यह समझना जरूरी है कि सच कहना ही उनका बौद्धिक दायित्व है और इसके लिए ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे.'