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ब्रांडेड दवाओं की महामारी-- आशुतोष चतुर्वेदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जेनेरिक दवाओं को अनिवार्य करने की घोषणा ने देश में एक नई बहस को जन्म दे दिया है. एक बड़ा तबका इसके समर्थन में खड़ा है तो दूसरी ओर डॉक्टरों का समुदाय और दवा कंपनियां इस घोषणा पर बेहद तल्ख प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की है कि उनकी सरकार ऐसा कानून बनाएगी, जिससे डॉक्टरों के लिए सस्ती जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य हो जाएगा.


उन्होंने लोगों से इस भ्रम को भी दूर करने का आह्वान किया कि सस्ती जेनेरिक दवाएं उतनी कारगर नहीं होतीं जितनी कि महंगी दवाएं. सरकार ऐसी अफवाहों के जरिए गरीब और मध्यमवर्ग को लुटने नहीं देगी. उनकी सरकार ने लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दिलाने के लिए सस्ती दवाओं की उपलब्धता और जरूरी दवाओं के मूल्य तय करने समेत कई कदम उठाये हैं.

मध्यम वर्ग के परिवार में एक भी व्यक्ति के बीमार हो जाने से परिवार को पूरा अर्थतंत्र गड़बड़ हो जाता है. मकान खरीदने और बेटी की शादी जैसे अन्य बेहद जरूरी काम रुक जाते हैं. उन्होंने कहा सरकार ने 700 जरूरी दवाओं के दाम तय करने और हृदय रोग के लिए जरूरी स्टेंट की कीमत घटाने का काम किया है. अभी कई डॉक्टर पर्चा लिखते हैं तो इस तरीके से लिख देते हैं कि मरीजों को महंगी दुकान पर जाना पड़ता है. पर जल्द ही वह ऐसा कानून बनाएंगे और व्यवस्था करेंगे कि डॉक्टरों के लिए सस्ती जेनेरिक दवाएं लिखना जरूरी होगा. मोदी ने अपने खास लहजे में कहा कि वह जब गुजरात में थे तो बहुत लोगों को नाराज करते थे. अब दिल्ली में हैं तो भी लोगों को नाराज करते रहते हैं. अब दवा कंपनियां उनसे नाराज हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि उनकी इस घोषणा में लोगों का हित जुड़ा हुआ है, यही वजह से इसे व्यापक जनसमर्थन मिला है. इसमें कोई शक नहीं कि डॉक्टरों का पेशा बहुत महान है, लेकिन हम सब जानते हैं कि कुछेक मछलियां पूरे तालाब को खराब कर देती हैं. पिछले कुछ समय में जनता में डॉक्टरों की छवि बहुत खराब हुई है. दवाओं और अनावश्यक परीक्षणों को लेकर उन पर सवाल उठते रहे हैं. अमूमन दवा कंपनियां मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के जरिए डॉक्टरों को प्रलोभन देकर अपनी ब्रांडेड दवाएं लिखवाती हैं और नजदीकी मेडिकल स्टोर पर इन्हें उपलब्ध कराया जाता है. डॉक्टर, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव और मेडिकल स्टोर की मिलीभगत से यह धंधा चलता है.

यदि डॉक्टर दवा का रासायनिक नाम लिख दे तो मरीज उसे ब्रांडेड या जेनेरिक में खरीदने का खुद निर्णय कर सकता है. एक अहम तथ्य यह है कि जहां पेंटेट ब्रांडेड दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, वहीं जेनेरिक दवाओं की कीमत को निर्धारित करने में सरकार की भूमिका होती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यदि डॉक्टर मरीजों को जेनेरिक दवाएं लिखे तो विकासशील देशों में स्वास्थ्य खर्च 70 फीसदी और इससे भी अधिक कम हो सकता है.

प्रधानमंत्री की इस घोषणा की प्रतिक्रियास्वरूप मुझ तक अनेक डॉक्टरों के व्हाट्सएप संदेश पहुंचे हैं. जरा उन पर गौर करें- मोदीजी चलिए अब जरा ब्रांडेड दवाओं का प्रोडक्शन भी रुकवा दें. जब बनेगी ही नहीं तो डॉक्टर लिखेगा कैसे. जब डॉक्टर लिख ही नहीं पाएंगे तो ब्रांडेड दवाओं को बाज़ार में बिक्री का क्या औचित्य.

चक्कर ये है की फार्मा कंपनी से फायदा भी लेना है और डाक्टरों को बदनाम करके जनता का मन भी जीतना है. एक और ऐसी ही प्रतिक्रिया देखिए- चोर उचक्के डॉक्टर के पीछे, गुंडे बदमाश डॉक्टर के पीछे प्रशासन डाक्टर के पीछे, ड्रग और फूड डॉक्टर के पीछे, इनकम टैक्स वाले डॉक्टर के पीछे, बायोवेस्ट वाले डॉक्टर के पीछे, यहां तक कि सरकार भी डॉक्टर के पीछे, अब मोदी जी भी डॉक्टर के पीछे.

हालांकि केंद्र सरकार जेनेरिक औषधियां उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र चलाती है. वर्ष 2008 में शुरू हुई योजना के तहत अधिकांश बड़े शहरों में ऐसे जन औषधालय के नाम से जेनेरिक मेडिकल स्टोर खोलने की योजना है.

देशभर में 250 जन औषधालय खुलने थे, लेकिन अभी तक इस लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सका है. जैसा कि किसी भी सरकारी पहल का हश्र होता है, इन केंद्रों पर अमूमन पर्याप्त दवाइयां उपलब्ध होती ही नहीं हैं. साथ ही इनका ठीक से प्रचार-प्रसार नहीं होता जिसके कारण इनका लाभ आम जनता को नहीं मिल पाता.

दूसरी ओर देश में कई स्थानों पर जेनेरिक दवाइयां उपलब्ध कराने में पहल की गयी है. राजस्थान, छत्तीसगढ़ , महाराष्ट्र और झारखंड में इनमें से कई प्रयोग सफल रहे हैं. रांची में दवाई दोस्त के नाम से जेनेरिक दवाइयां उपलब्ध कराने के लिए पोद्दार और बैरोलिया ट्रस्ट एक सफल प्रयोग चला रहा है. इस प्रयोग में प्रमुख भूमिका निभाने वाले राजीव बैरोलिया ने बताया कि दुनिया के 130 देशों में भारत सस्ती जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराता है जबकि भारत के अपने गरीब मरीजों को 5-6 रुपये की दवाई 300 रुपये में मिल रही है. उनका कहना था कि पूरे अमेरिका में 2000 ब्रांड हैं जबकि भारत में एक लाख से अधिक ब्रांड हैं, इसको नियंत्रित करने की जरूरत है.

राजीव बैरोलिया का कहना है कि अच्छे डॉक्टर तो देवदूत की तरह होते हैं, लेकिन कुछेक डॉक्टर जनता को लूट रहे हैं. दवाई दोस्त से ही जुड़े कारोबारी पुनीत पोद्दार ने बताया कि रांची में दवाई दोस्त में 12 स्टोर हो गये हैं और औसतन 50 हजार मरीज इसका लाभ उठा रहे हैं और 1.5 करोड़ रुपए की बचत कर रहे हैं. सभी स्टोर अपना खर्चा निकाल रहे हैं.

मोदी सरकार इस प्रावधान को यदि कानूनी जामा पहना देती है तो इससे गरीबों का बहुत भला होगा और दवा कंपनियों की अनैतिक कमाई पर अंकुश लगेगा. लेकिन तब तक जरूरत है जेनेरिक दवाओं के बारे में लोगों को जागरूक करने की, ताकि हम सभी ब्रांडेड की महामारी से निजात पा सकें