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बढ़ता दायरा घटता प्रभाव!

पिछले कुछ समय में बिहार में नक्सली हिंसा कम हुई है लेकिन नक्सल प्रभावित इलाके बढ़े हैं. इस बार नक्सलियों द्वारा बहिष्कार की घोषणा के बावजूद विधान सभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है. इसे नक्सलियों के घटते असर के रूप में देखा जाए या उनकी बदली रणनीति के तौर पर, बता रहे हैं निराला

एनएच टू यानी जीटी रोड पर है डोभी. डोभी से ही गया-बोधगया जाने के लिए गाड़ियां मुड़ती हैं. यहीं से दूसरी ओर भी एक रास्ता मुड़ता है. झारखंड के चतरा की ओर जाने के लिए. यहां से छह-सात किलोमीटर दूर एक छोटा-सा बाजार है, कोठवारा.

हम कोठवारा बाजार में ही बैठकर इलाके की राजनीति, स्थानीय समस्या और चूंकि यह क्षेत्र नक्सलियों के गढ़ के रूप में भी जाना जाता है, इसलिए इलेक्शन के नक्सल कनेक्शन को समझने की कोशिश करते हैं. यहां हमारी मुलाकात आनंदस्वरूप से होती है. वे बताते हैं, ‘मसला सिर्फ एक था कि पुल चाहिए. हमने एक-एक कर वामपंथी समेत सारे दलों को आजमा लिया, लेकिन किसी ने हमारी नहीं सुनी. आखिर में तय यह हुआ कि पुल नहीं तो वोट नहीं.’ कोठवारा के बाद फलगु नदी के पार पड़नेवाले करीबन 40 गांवों की 30 हजार आबादी के लिए सिर्फ एक पुल चाहिए. लगे हाथ वे यह भी समझाते हैं कि इससे यह समझने की भूल न की जाए कि वे नक्सलियों के वोट बहिष्कार का समर्थन करेंगे. अगर ऐसा करना होता तो यहां कभी भी वोट नहीं पड़ते, क्योंकि एक पुल नहीं होने के कारण नक्सलियों ने कोठवारा पार के लेंबोगढ़ा, बरिया, नावाडीह, सुगासोत, बलजोरी बिघा, सुग्गी, पंड़री, खरांटी जैसे 30-40 गांवों को न जाने कितने सालों से अपना सुरक्षित आशियाना बना रखा है. वे हर बार परचा-पोस्टर चिपकाते हैं. लेकिन उनकी जोरदार उपस्थिति वाले इलाके में कभी उनके बहिष्कार वाले परचे-पोस्टरों का असर नहीं पड़ता. इस बार हम स्वेच्छा से यह निर्णय ले रहे हैं.
कोठवारा की तरह ही जहानाबाद के एक गांव में भी यही स्थिति देखने को मिली. जहानाबाद शहर से सटा हुआ गांव है मुठेर, जो विकास की राजनीति, जाति की राजनीति आदि के हिसाब से मॉडल गांव है. यहां पिछड़ी, अतिपिछड़ी, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक आदि जातियों का वास है. मुठेर पंचायत मुख्यालय है लेकिन पिछले आठ साल से यहां बिजली नहीं है. आबादी करीब दस हजार की है. मुठेर में पंकज नाम के एक युवा से मुलाकात होती है. पंकज पटना में पढ़ाई करता है, लेकिन वोट के दिन वह अपने गांव में ही था. वह बताता है, ‘हमारे गांव के आसपास नक्सलियों का डेरा शुरू से ही रहा है. खाना खिलाने आदि का रिश्ता भी मजबूरी में ही चलता रहा है लेकिन यहां के लोगों ने कभी उनके चुनावों के बहिष्कार की अपील को नहीं माना और न मान सकते हैं. हम जानते हैं कि हमारा गांव अंधेरे में है लेकिन नक्सलियों की बात मानकर कौन सा उजाला आ जाएगा! हम वोट बहिष्कार करते हैं तो वह भी हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक हिस्सा होता है. हम वोट बहिष्कार से ही अपनी उम्मीदें पूरी होने की उम्मीद करते हैं.’

इस बार के बिहार चुनाव में ऐसी ही स्थितियां अलग-अलग हिस्सों में दिख रही हंै. चुनाव के पहले कजरा हिल प्रकरण (जहां चार पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने अगवा करके बाद में इनमें से एक लुकस टेटे को मार दिया था) से लेकर शिवहर, लखीसराय कांड कर, शेरघाटी में विस्फोट, औरंगाबाद के मदनपुर में प्रत्याशी को अगवा कर नक्सलियों ने खौफ पैदा करने की कोशिश तो की लेकिन उनकी रणनीति उन्हें ही मात देती हुई नजर आ रही है. वोट बहिष्कार का असर होने की बजाय मतदान का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है. बिहार में पांच चरण के चुनाव खत्म हो चुके हैं. जिसमें चुनाव आयोग को मिली आधिकारिक सूचना के अनुसार 33 जगहों पर चुनाव बहिष्कार की बात सामने आई है. लेकिन खुफिया विभाग की सूचना के अनुसार इनमें से कजरा हिल वाले इलाके को छोड़ दें तो शायद ही कहीं माओवादियों के फरमान की वजह से वोटों का बहिष्कार हुआ हो. सभी जगह स्थानीय कारण रहे. यूं भी बिहार में जिस तरह से माओवादियों ने वोट बहिष्कार के बहाने जो काम किए, उनसे उनके भीतर की कमजोरियां ही सामने आईं. कजरा हिल प्रकरण में लुकस टेटे को मार दिया जाना माओवादियों के अंदर जातिगत समीकरणों का असर माना गया तो उसके बाद भी वोट बहिष्कार के नाम पर जहां-जहां अटैक हुए, उससे ऐसा नहीं लगा कि उनका इरादा लोकतंत्र या संसदीय राजनीति का विरोध करने का है, बल्कि वे उम्मीदवारों को जिताने-हराने के हिसाब से निशाने साधते रहे. समाजशास्त्री और नक्सलियों के प्रभाव पर अध्ययन कर रहे डॉ सचिंद्र नारायण कहते हैं, ‘माओवादियों को यदि समग्रता में वोट का ही बहिष्कार करवाना होता तो वे सबसे पहले चंपारण में ऐसा करवाने की कोशिश करते जहां नेपाल के माओवादियों से बेहतर संबंध होने की वजह से उनका गहरा असर है. लेकिन चंपारण में इन्होंने कुछ भी नहीं किया. बिहार में और भी कई जगहें हैं जहां माओवादियों का गहरा प्रभाव है लेकिन उन जगहों पर इन्होंने चुनाव बहिष्कार के लिए परचे-पोस्टर तक नहीं लगाए. इससे साफ जाहिर होता है कि इनका इरादा कुछ और है.’ यूं भी देखें तो इस बार माओवादी संगठनों से जुड़े हुए लोग या उनके परिजन बड़ी संख्या में चुनावी मैदान में हैं. खुफिया विभाग के एक अधिकारी कहते हैं, ‘अब तक जो सूचना आई है उसके अनुसार करीब दो दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जिनका परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर नक्सलियों से रिश्ता है इस वजह से भी माओवादियों के फरमान का कोई असर नहीं पड़ रहा. माओवादी खुद चुनाव लड़कर सत्ता सुख भी काटना चाहते हैं और उसका विरोध भी करते रहना चाहते हैं, यह कब तक