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भय नहीं सम्मान बने पुलिस की ताकत-- विभूति नारायण राय

उत्तर प्रदेश के नोएडा में पिछले दिनों पुलिस ने फ्लैग मार्च के रूप में एक शक्ति प्रदर्शन किया। पुलिस को बल मानने वाले मध्य वर्ग को उसकी शक्ति देखकर खुशी होनी चाहिए थी और जैसा कि दावा किया जा रहा था, अपराधियों के मन में इस दृश्य से इतना भय पैदा होना चाहिए था और उन्हें अपनी जमानतें रद्द कराकर जेलों में दाखिल हो जाना चाहिए था। इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। शक्ति प्रदर्शन वाले दिन और उसके बाद के एक-दो दिन तक सोशल मीडिया पर इस पर टिप्पणियां आती रहीं और निश्चित ही इनसे कानों में कोई मधुर घंटी नहीं बजती थी। सोशल मीडिया पर लोगों ने रेडलाइट तोड़कर तेज हूटर बजाती हुई दौड़ती पुलिस की गाड़ियों के वीडियो डाले और सवाल खड़ा करने की कोशिश की कि कानून लागू करने वाली संस्था का यह कैसा शक्ति प्रदर्शन है, जो सारे कानून-कायदे को ही नहीं मान रही? पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश में पुलिस की अपराधियों से ‘मुठभेड़' हो रही है और यह दावा है कि अब तक दर्जनों खूंखार अपराधी मारे जा चुके हैं। मध्य वर्ग इन मुठभेड़ों का बड़ा समर्थक है और मैं कई बार मुठभेड़ों के समर्थकों के बीच खुद को निरुत्तर और असहाय पा चुका हूं। उनके तर्क बडे़ साफ होते हैं कि अगर अदालतों के जरिए खूंखार अपराधियों को सजा दिलाना संभव नहीं रह गया है, तो क्या हर्ज है कि पुलिस उन्हें मुठभेड़ में मार दे?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रिमंडल के छोटे-बड़े मंत्री बिना किसी लाग-लपेट के बयान दे रहे हैं कि उनके राज्य में अपराधी या तो जेल में होंगे या फिर ऊपर भेज दिए जाएंगे। किसी भी सभ्य समाज में यही होना भी चाहिए। पर सभ्य समाज में तो यह सब कानून-कायदे से होता है। अपराधी जेल जाते हैं, अदालतों में मुकदमे चलते हैं, अपराधियों को भी नैसर्गिक न्याय के मुताबिक वकील, दलील और अपील के अधिकार हासिल होते हैं। फिर जुर्म साबित होने पर उन्हें सजा दी जाती है। जिन देशों में मृत्युदंड बरकरार है, उनमें अदालतें फांसी की सजा भी देती हैं, पर ऐसा कुछ गिने-चुने असभ्य समाजों में ही होता है कि पुलिस को जज और जल्लाद की भूमिका भी मिल जाती है।

हाल में एक अवकाश प्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अपने लेख में लिखा कि योगीजी की पुलिस का भय तो अपराधियों के दिलो-दिमाग में भर गया है, पर अभी तक जनता का सम्मान इसे नहीं मिल पाया है। वे शायद भूल गए थे कि भय और सम्मान एक साथ नहीं चलते। जो पुलिसकर्मी अपराधियों को कानून-कायदा ताक पर रखकर खुद ही सजा देने लगता है, उसके मन में धीरे-धीरे देश के कानून के लिए रत्ती भर भी चिंता नहीं रहती और आम नागरिकों को उसकी इस अवज्ञा का दंश रोज झेलना पड़ता है। नोएडा का मध्य वर्ग अगर सोशल मीडिया पर शक्ति प्रदर्शन के दौरान ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर दुखी था, तो मुझे उनकी प्रतिक्रिया से थोड़ी निराशा ही हुई। रोज ही नोएडा समेत उत्तर प्रदेश के किसी भी जिले में बिना हेलमेट पहने मोटर साइकिल पर तीन सवारियां बिठाए या सीट बेल्ट की उपेक्षा करता और हूटर बजाता पुलिस का ड्राइवर एक आम दृश्य है।

आज भी किसी थाने में आसानी से किसी साधारण नागरिक की एफआईआर दर्ज नहीं होती। आज भी कोई नहीं कह सकता कि कब सड़क चलते उसके साथ कोई पुलिस वाला दुव्र्यवहार कर बैठेगा? अपराधियों के साथ गैर-कानूनी हरकतें करने पर अपने विभाग और राजनीतिक नेतृत्व द्वारा पीठ थपथपाने के बाद अगर पुलिसकर्मी को लगता है कि देश का संविधान और कानून ठेंगे पर रखने की चीज है, तो मध्य वर्ग को आपत्ति करने का कोई अधिकार नहीं है। यह पुलिस भय तो पैदा कर सकती है, मगर सम्मान नहीं पा सकती। भय भी जरूरी नहीं कि अपराधियों के मन में पैदा हो, अक्सर भय सामान्य और कानून का सम्मान करने वाले नागरिकों के मन में उपस्थित रहता है।

दुखद पहलू यह है कि कानून तोड़ती पुलिस को भारतीय समाज की स्वीकृति हासिल है। भागलपुर के आंख-फोड़वा कांड में दुर्दांत अपराधियों की आंखें फोड़ने वाले पुलिसकर्मियों के पक्ष में भागलपुर बंद का आयोजन हुआ था। बंद में भाग लेने वालों में रिक्शा यूनियन के लोग ही नहीं थे, उनसे भी अधिक बढ़-चढ़कर वकीलों और विश्वविद्यालय के अध्यापकों ने हिस्सेदारी की थी। अपनी सेवा के दौरान मेरा साबका ऐसे जजों, वकीलों, प्रोफेसरों, विधायकों और लेखकों से पड़ा है, जिनका मानना था कि अपराधियों से निपटने का एक ही तरीका है कि उन्हें मार डाला जाए। तर्क बहुत सरल है कि हमारी न्यायिक प्रणाली अपराधियों को दंड देने में समर्थ नहीं है और अक्सर अपराधी उस हैसियत को प्राप्त कर लेता है, जिसमें राज्य उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता, इसलिए उससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि उसे पुलिस मार डाले। इस आसान नुस्खे से दो समस्याएं पैदा होती हैं। एक तो पुलिस के मन से कानून का सम्मान खत्म होता है और दूसरे न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए कोई गंभीर विमर्श नहीं हो पाता। किसी भाग्य विधाता के मन में इच्छा नहीं पैदा होती कि देश के कानून-कायदों में ऐसे परिवर्तन किए जाएं कि देश में वैध उपायों के जरिए अपराधियों को सजा दिलाई जा सके। समय आ गया है कि कानून तोड़ने वाली पुलिस अपराध और अपराधियों को जिस कीमत पर नियंत्रित करती है, उसे चुकाने से हम मना कर दें।

योगीजी ने सत्ता प्राप्त करने के बाद शुरुआत में अपनी पूर्ववर्ती सरकार से उलट योग्यता के आधार पर अच्छे अधिकारी को पुलिस महानिदेशक बनाया, लेकिन उससे पुलिस की छवि आम जनता में सुधरी हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। छवि तभी सुधरेगी, जब वह आतंक पैदा करने के स्थान पर सम्मान हासिल करने की कोशिश करे और यह सम्मान कानून-कायदों का पालन करने वाली संस्था ही प्राप्त कर सकती है। यह कहकर हम खुद को ही मूर्ख बना रहे हैं कि पुलिस खुद पर फायर करने वाले को आत्मरक्षा में गोली चलाकर मारती है। सच्चाई इसके विपरीत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)