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भय पैदा करने वाला समाज- सुभाषिनी अली

नवंबर और दिसंबर के महीनों में शामली, मेरठ और मुजफ्फरनगर में महिलाओं की बड़ी सभाएं आयोजित की गईं। यह काफी आश्चर्यजनक बात है, क्योंकि, खासतौर से ऐसे इलाकों में, महिलाएं सभाओं में बड़ी मुश्किल से जा पाती हैं। उनके घरवाले इन सभाओं से घबराते हैं कि कहीं इनमें आने-जाने की आदत पड़ गई और औरतों को अपनी समान समस्याओं पर अधिक और आपस के भेद पर कम ध्यान जाने लगा, तो फिर सदियों पुरानी पुरुषप्रधानता खतरे में पड़ सकती है। मजे की बात तो यह है कि पुरुषप्रधानता पुरुषों को किसी तरह का फायदा नहीं, बहुत सारा नुकसान पहुंचाती है, लेकिन चूंकि उनके अहम और वर्चस्व की भावना को बनाए रखती है, इसलिए वह भी उसको अटल और स्थायी बनाए रखना चाहते हैं। यह भी सच है कि पुरुषप्रधानता की सोच से महिलाएं भी प्रेरित रहती हैं। ठीक जैसे पूंजीवाद के शोषित तमाम हिस्से उसकी विचारधारा से प्रभावित होते हैं।

बहरहाल, महिलाएं सभाओं में आसानी से नहीं जा पातीं। उनको तो सत्संग, प्रवचन, जमात जैसे आयोजनों में भाग लेने के लिए भेजा जाता है, जहां उन्हें पुरुषप्रधानता के अनुरूप, अच्छी बेटी, बहू, बहन और पत्नी बनने का उपदेश दिया जाता है।

फिर भी, नवंबर-दिसंबर में शामली, मुजफ्फरनगर और मेरठ में महिलाओं की सभाओं का आयोजन हुआ। वे सभाएं इलाके में बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या की समस्या को लेकर नहीं हुईं। वे इलाके में हर महीने होने वाली दो से चार 'इज्जत के नाम पर हत्याओं' को रोकने के लिए नहीं हुईं; वे इस बात को लेकर भी नहीं हुईं कि देश का सबसे संपन्न इलाका होने के बावजूद यहां महिलाओं की साक्षरता दर 59 फीसदी है और ज्यादातर लड़कियों को माध्यमिक के बाद स्कूल से निकाल दिया जाता है; और वे इस बात को लेकर तो कतई नहीं हुईं कि सितंबर के महीने में इसी इलाके के 50,000 लोगों को बेघर कर दिया गया था, औरतों को बलात्कार का शिकार बनाया गया था, छोटी बच्चियों के साथ बर्बरता की गई थी और अमानवीय असुरक्षा की हालत में उन्हें रहने के लिए मजबूर कर दिया गया था। ये समस्याएं क्षेत्र की हर जाति और धर्म की तमाम औरतों को प्रभावित करती हैं, पर ये इन बड़ी सभाओं के मुद्दे नहीं थे। इन सभाओं में औरतों ने भाग जरूर लिया, पर उनका आयोजन गांव के पुरुषों ने किया था और मुद्दा भी उन्होंने ही तय किया- दंगों के दौरान हुई हिंसा की वारदात में होने वाली गिरफ्तारियों का विरोध।

महिलाओं में वीरता और जिद की ताकत की जानकारी आम फहम है। इसलिए इनको नियंत्रण में रखना और इनका इस्तेमाल केवल तब और तब तक करना, जब तक पुरुष चाहे, भी दुनिया की रीति रही है। सभाएं करवाने वाले भी जानते हैं कि अगर महिलाएं विरोध करने के लिए गांव के रास्ते पर खड़ी हो जाएंगी, तो फिर पुलिस की गाड़ी का अंदर आना मुश्किल हो जाएगा। सभाओं के बाद, औरतों ने ऐसा कई जगहों पर किया और गौरवान्वित भी की गईं, और उन्हें गर्व का अनुभव भी हुआ होगा। कई दिनों तक उन्होंने जोश में भरकर अपनी सामूहिक ताकत के बारे में आपस में बात की होगी। पुलिसवालों का दुम दबाकर भागने का जिक्र ठिठोलियों के बीच की होगी। उनकी लाठी और बंदूक के सामने वह किस तरह से खड़ी रही, नारे लगाती रही, जरा-सा भी डरी नहीं- इन बातों और यादों ने उनको बहुत दिन तक खुश रखा होगा। और उनको लगा होगा कि अपनी वीर गाथाओं को वह अपने पोते-पोतियों को जरूर सुनाएंगी।

हो सकता है कि उनको यह भी लगा हो कि अपने मर्दों को बचाकर उन्होंने समानता के योग्य होने की अग्नि-परीक्षा सफलतापूर्वक पास कर ली है। हो सकता है कि सामूहिक शक्ति से प्राप्त होने वाली जबर्दस्त ताकत के एहसास ने उनके अंदर एक नए भविष्य के संघर्ष का अंकुर पैदा किया हो। ऐसा होना असंभव नहीं है। इस इलाके की औरतें हाड़तोड़ मेहनत और तमाम यातनाओं के बीच अपनी इन्सानियत को जिंदा रखे हुए है।

दंगा पीड़ित शिविरों में हजारों कठिनाइयों के बीच अपनी जिंदगी को किसी तरह की समेटने वाली दंगा पीड़ित महिलाओं ने मुंबई से आई कुछ महिला कार्यकर्ता को दिए साक्षात्कार के दौरान बताया- गांव की औरतों के बीच बहुत मेल रहता था। हम एक-दूसरे के साथ अपना दुख-दर्द बांट लेते थे। जब हमला हुआ, तब हमारे गांव की बहनों ने हमें बचाने की बहुत कोशिश की। अपने मर्दों से मिन्नतें की। कुछ ने हमें अपने घरों में पनाह भी दी। उनके सामने खड़ी हो गईं। मार भी खाई। हम लोग सुन रहे थे। आखिर में उनके मर्दों ने धमकाया, नहीं मानोगी, तो तुम्हारे साथ भी अच्छा नहीं होगा, तुम्हें भी मार डालेंगे। जिन औरतें ने बाद में पुलिस की लाठियों के सामने खड़े होकर, उनका रास्ता रोककर रखा, वह अपने घरवालों की लाठियों के सामने पीछे हट गईं। शिविरों में पड़ी औरतें अपनी बहनों की हमदर्दी को याद करती हैं और उनकी मजबूरी भी समझती हैं। उन्हें इस बात का अफसोस है कि अब उनकी उन बहनों की नजरें कुछ बदल गई हैं।

तमाम महिलाओं की नजरों को सही दिशा में मोड़ने के लिए महिला आंदोलन को अपने प्रयास बहुत बढ़ाने होंगे। याद रखने की बात यह है कि अंततोगत्वा महिलाओं के बीच उनको जोड़ने वाले अनुभव अधिक हैं और बांटने वाले कम। मुजफ्फरनगर के गांव दीघाघेड़ी की यह खबर देखिए। यहां लड़कियों की एक पहलवानी की टीम है, जिसकी सात सदस्य मुस्लिम हैं और चार हिंदू। यह टीम लगातार जीतती आ रही है। अब गांव की पंचायत ने फैसला सुना दिया कि कुश्ती लड़ना लड़कियों के लिए उचित नहीं है। लड़कियां आसानी से मान नहीं रही हैं।