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भारतीय लोकतंत्र के नाजी पहरुए- तहलका

अररिया में 10 महीने के बच्चे और गर्भवती महिला समेत चार लोगों की मौत को पुलिस आत्मरक्षा की कार्रवाई बता कर जायज ठहरा रही है. लेकिन निरीह घायलों के शरीर पर पुलिसवालों की निर्मम कूद-फांद को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? इस मामले में नीतीश कुमार की चुप्पी भी कई सवालों को जन्म देती है. निराला की रिपोर्ट

घायल मुस्तफा के शरीर पर एक पुलिसवाला जब लांग जंप, हाई जंप लगाते हुए तरह-तरह की स्टंटबाजी और कलाबाजियां दिखाता है तो वह क्रूरतम पुलिसिया स्टंट मानवीय संवेदना को गहराई तक चोट पहुंचाता है. मुश्किल से दो मिनट के वीडियो फुटेज के इस दृश्य की भयावहता ही ऐसी है कि इसे देखने का असर कई दिनों तक मन-मस्तिष्क पर बना रह सकता है. फिर भजनपुर के लोगों ने तो इसे अपनी नंगी आंखों से देखा था. मुस्तफा के पिता फटकन अंसारी तहलका से बातचीत के क्रम में बेटे की मौत की चर्चा छेड़ते ही जोर-जोर से रोने लगते हैं. कहते हैं, 'किसने मारा, क्यों मारा, क्या होगा आगे, इन सवालों का क्या जवाब दूं. मेरा बेटा तो नहीं लौट सकता न! ' इतना कहकर वे फिर बात करने की स्थिति में नहीं रहते. जबान बंद हो जाती है.

मातमी सन्नाटे में डूबे भजनपुर में फटकन की तरह कइयों की जुबान अभी ऐसे ही बंद है क्योंकि केवल मुस्तफा के साथ ही ऐसा नहीं हुआ था. तीन जून को पुलिस की गोलियों और कुकृत्यों ने एक साथ चार जिंदगियों को खत्म कर दिया था. इनमें एक गर्भवती महिला भी शामिल थी, एक सात-आठ माह का बच्चा भी. आने-जाने के लिए एक रास्ते की मांग या जिद कई जिंदगियों के रास्ते बंद कर देगी, इसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की होगी!

भजनपुर बिहार के सीमांचल के अररिया जिले के फारबिसगंज का एक गुमनाम-सा गांव है. गांव के नाम पर गौर करें तो यह साझी संस्कृति की अनोखी पहचान का अहसास कराता है. लेकिन यह सब अहसास भर की बात है. फिलहाल बिहार के एक बेहद पिछड़े जिले का यह गांव सांप्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा अखाड़ा बना हुआ है. तीन जून को इस गांव में पुलिस की गोली से मारे गए चारों लोग अल्पसंख्यक समुदाय के थे. अररिया जिले को केंद्र सरकार ने देश के 90 जिलों की उस विशेष सूची में स्थान दिया है जो निर्धनता और पिछड़ेपन के शिकार अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विशेष कल्याणकारी योजना चलाने के लिए है.

एक कड़वा सच यह भी है कि यदि मुस्तफा के शरीर के साथ क्रूरता से खेलते पुलिसवाले की वीडियो क्लिपिंग बनी और जारी नहीं हुई होती और मामला राजनीतिक नहीं होता तो पुलिसिया कार्रवाई की इस नृशंस घटना का भी वही हश्र हुआ होता जैसा कि इसी अररिया जिले में 17 दिसंबर, 2010 को घटी एक इतनी ही नृशंस घटना का हुआ था. सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल बताते हैं कि कुरसाकाटा ब्लॉक के बटराहा गांव में उस रोज अर्धसैनिक बल के कुछ जवानों ने महिलाओं से छेड़खानी की थी. सुबह विवाद निपटाने के नाम पर लोगों को इकट्ठा किया गया. फिर पुलिस फायरिंग हुई जिसमें तीन महिलाओं और एक पुरुष की मृत्यु हो गई. अरशद कहते हैं, 'ऐसी कई पुलिस कार्रवाइयां दफन होकर रह जाती हैं.'

भजनपुर में पुलिस फायरिंग की यह उग्र घटना एक रास्ते को लेकर हुई. वहां एक रास्ते का इस्तेमाल ग्रामीण पिछले 60 साल से कर रहे थे. उस गांव के पास ग्लूकोज व स्टार्च फैक्टरी लगाने के लिए बिहार इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी यानी बियाडा ने सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी को 36.65 एकड़ जमीन मुहैया कराई. जमीन पर निर्माण कार्य शुरू होने के बाद ग्रामीण उपयोग का वह रास्ता कंपनी के अधिकार क्षेत्र में आ गया. कंपनी ने रास्ते की घेराबंदी शुरू की. विवाद शुरू हुआ. जानकारी के अनुसार, एक जून को सड़क का बंदोबस्त कहीं और किए जाने के सवाल पर ग्रामीणों और कंपनी प्रबंधन के बीच समझौता भी हुआ, लेकिन तीन जून को सारे समझौते धरे रह गए और जो कुछ हुआ वह अब फारबिसगंज गोली कांड के रूप में स्थापित हो चुका है.

इस कांड के बाद भजनपुर में आसपास के दर्जन भर थानाध्यक्षों, तीन-चार आईपीएस अधिकारियों, कई प्रशासनिक अधिकारियों का जमावड़ा लगा. गुमनाम गांव कैंप में तब्दील हो गया. पुलिस की ओर से कहा गया कि ग्रामीणों ने पथराव किया, मशीनों को आग के हवाले किया, अपने-अपने घरों से हथियार और असलहे निकाल पुलिस पर गोलियां चलाईं तो आत्मरक्षार्थ पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं. पुलिस जितनी आसानी से यह तर्क देकर धैर्य टूट जाने का सबब बता रही है, मामला उतना आसान नहीं. आत्मरक्षार्थ लाठियां चलाई जाती हैं. कभी-कभी गोलियां भी. लेकिन घायल मुस्तफा के शरीर पर जिस सनक के साथ एक पुलिसवाला नृशंसतापूर्वक कूद-फांद कर रहा था, उसको कैसे जायज ठहराया जा सकता है?

सुंदरम कंपनी के निदेशक मंडल में भाजपा के विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पुत्र भी शामिल हैं. अग्रवाल राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के काफी करीबी माने जाते हैंजिस सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी द्वारा भजनपुर के पास ग्लूकोज व स्टार्च फैक्टरी लगाई जा रही है, उसके निदेशक मंडल में भाजपा के विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पुत्र सौरव अग्रवाल भी शामिल हैं. अग्रवाल राज्य के उपमुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी के काफी करीबी माने जाते हैं, इसलिए अग्रवाल के साथ-साथ सीधे निशाने पर मोदी को भी लिया जा रहा है. मोदी ने अब तक इस घटना पर खुलकर कुछ नहीं कहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इस घटना की न्यायिक जांच के आदेश देने के बाद अपने नियमित कार्यक्रम में लग गए हैं. सात दिन बाद मानवीय आधार पर सात-आठ माह के बच्चे नौशाद अंसारी के परिजनों को तीन लाख रुपये देने की घोषणा हुई. गृह सचिव आमिर सुबहानी ने घटना के बाद कहा कि जब कंपनी और ग्रामीणों के बीच रास्ते को लेकर समझौता हो गया था तो अचानक ग्रामीण उग्र कैसे हुए, इसकी जांच भी प्राथमिकता से होगी. सुबहानी का इशारा स्थानीय छुटभैये नेताओं और कुछ दलालों के बहकावे की ओर है.

भजनपुर घटना के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों ने जुबानी जंग तेज कर दी है. इलाके का भ्रमण करके लौटे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने मुआवजे की मांग करते हुए 23 जून से प्रदर्शन व आंदोलन की बात कही है. माकपा ने 14 जून से आंदोलन चलाने की घोषणा की है. विपक्षी दल ही नहीं, नीतीश के खुद के साथी भी इस मामले में आलोचना कर रहे हैं. सीमांचल इलाके के चर्चित व वरिष्ठ जदयू नेता तसलीमुद्दीन इसे प्रशासनिक चूक बता रहे हैं लेकिन तसलीमुद्दीन की बातों से उनके ही दल के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शायद इत्तेफाक नहीं रखते, वरना एक ही दिन में पुलिसिया गोली से चार अल्पसंख्यकों को मार दिए जाने की घटना को इतनी सहजता से नहीं लेते.

सीएम नीतीश कुमार खुद तो इस मामले में ज्यादा नहीं बोल रहे लेकिन विरोधियों के बयान तेज होने के बाद उनकी ओर से कमान संभालते हुए जदयू के प्रवक्ता सह सांसद शिवानंद तिवारी विरोधियों के स्वर को दूसरी जगह से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि पूर्णिया उपचुनाव को ध्यान में रखकर फारबिसगंज कांड को बैसाखी बनाने की जुगत में कांग्रेस और राजद जैसे दल लगे हुए हैं. जो दल यह कह रहे हैं कि अल्पसंख्यकों से जुड़ा मामला होने की वजह से पुलिस ने ऐसा क्रूर रवैया अख्तियार किया, ऐसा कहने वाले विकलांग और सांप्रदायिक मानसिकता के लोग हैं. तिवारी कहते हैं कि जांच चल रही है, उसके पहले मुआवजा देना कहीं से भी वैधिक नहीं होगा. सात माह के बच्चे के नाम पर मुआवजा इसलिए दिया गया कि उस छोटे बच्चे की भूमिका इसमें कहीं से भी नहीं हो सकती थी.

शिवानंद तिवारी जदयू के हैं, नीतीश के सिपहसालार माने जाते हैं इसलिए वह इसी तरह की बात करेंगे, लेकिन राजनीति का आकलन करने वाले इसे दूसरे नजरिये से भी देख रहे हैं. भाजपा के साथ रहते हुए भी अल्पसंख्यकों के मामले में अलग राजनीतिक स्टैंड रखने वाले नीतीश कुमार यदि पुलिस द्वारा चार अल्पसंख्यकों के मारे जाने के सवाल पर भी चलताऊ रवैया अपनाते दिख रहे हैं तो रहस्य की इस राजनीति का खेल समझना इतना आसान भी नहीं है.

विरोधी दलों के साथ-साथ अब सामाजिक संगठन भी इस मामले में आगे आ चुके हैं. 10 जून को इस मसले पर प्रेस कांफ्रेंस करने फिल्मकार महेश भट्ट और अनहद संस्था की शबनम हाशमी भी पटना पहुंचीं. शबनम ने भजनपुर गांव जाकर, वहां की स्थितियों का अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार की है. वे कहती हैं कि जिस तरह की कार्रवाई आरएसएस के इशारे पर गुजरात सरकार करती रही है, बिहार में भी वैसा ही हो रहा है. वे चुनौती देते हुए कहती हैं कि नीतीश कुमार यदि गुजरात वाले मोदी के साथ एक तसवीर लग जाने से हंगामा खड़ा कर देते हैं तो बिहार के अपने मोदी के संरक्षण में हो रहे कृत्यों पर क्यों चुप्पी साधे हुए हैं. शबनम यह सवाल भी पूछती हैं कि यदि ग्रामीण हिंदू समुदाय से होते तो क्या तब भी पुलिस इतनी ही बर्बर होती.

ऐसे ही सवालों-जवाबों और आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच भजनपुर का मामला पटना के राजनीतिक गलियारे में, चौपाली बहसबाजी में अठखेलियां खा रहा है. और इस सबके बीच भजनपुर के भुक्तभोगी मातमी सन्नाटे में डूबे हुए हैं. रफीक अंसारी, जिनका आठ माह का नाती नौशाद पुलिस की गोली का शिकार हुआ, कहते हैं, 'मेरे बच्चे की कमर से दो गोलियां निकलीं. मैं जिंदगी भर उस दृश्य को नहीं भूल पाऊंगा.' रफीक की बहू रहीना भी गंभीर रूप से घायल हुई हैं और फिलहाल पटना मेडिकल कॉलेज में भर्ती हैं. मोहम्मद शमशुल का 7 वर्षीय भतीजा मंजूर भी अस्पताल में भरती है. शमशुल कहते हैं, 'हमें इंसाफ दिलवा दें मुख्यमंत्री जी, और गांव का भविष्य सुरक्षित रहे, यही मांग प्रमुख है.'

लेकिन नीतीश कुमार इस मामले पर फिलहाल कुछ ठोस कहेंगे या करेंगे, इसकी उम्मीद कम है. नीतीश जानते हैं कि यह मामला विकास से जुड़ा हुआ है. सुशासन ब्रांड बन चुका है, विकास को ब्रांड बनाना अभी बाकी है. यदि एक भजनपुर कांड को लेकर वे कोई घोषणा करेंगे तो कई भजनपुरा अभी बिहार में बनने बाकी हैं. हत्या के मामले में न सही, भूमि अधिग्रहण और कंपनियों की मनमानी के सवाल पर. मुजफ्फरपुर के मड़वन से लेकर औरंगाबाद के नबीनगर तक ऐसी लड़ाई पहले से ही अंगड़ाई ले चुकी है. मड़वन में भी पुलिस लोगों पर लाठियां बरसा चुकी है और नबीनगर में भी 14 जनवरी को पुलिस बल ने प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों को खदेड़-खदेड़ कर मारा था, जिनमें से एक की मौत हो गई थी.

फिर सरकारी तंत्रों को यह भी पता है कि विरोध के ऐसे स्वर लोगों के जेहन में ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रहते वरना विगत वर्ष भागलपुर में बिजली की मांग कर रहे तीन लोगों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला था, उसे लेकर बाद में कहां कोई आंदोलन चल सका. औरंगजेब नामक एक शख्स को पुलिस ने मोटरसाइकिल में बांधकर घसीटते हुए स्पीडी ट्रायल की कार्रवाई भी चार साल पहले इसी बिहार में की थी. वह भी कोई कम दर्दनाक, हृदयविदारक घटना नहीं थी. गया में एक व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत पिछले माह ही हुई है. लेकिन उस मसले पर उठी आवाज गया में ही दबकर रह जाती है.

इतने पहले की बात छोड़ भी दें तो कुछ दिनों पहले ही छह जून को खगड़िया जिले के अलौली थाना क्षेत्र के अंतर्गत शुंभा गांव में जमीन विवाद को लेकर सैप के जवान ने दो बच्चों को गोली मारकर गंभीर रूप से घायल कर दिया, वह कहां चर्चा में है? उसके दो दिन पहले चार जून को गोपालगंज के हथुआ अनुमंडल के जादोपिपर गांव में लगे उर्स के मेले में तैनात बीएमपी के जवानों ने नशे में धुत होकर बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों पर जमकर लाठियां बरसाईं, पर उसका क्या हुआ? इससे एक दिन पहले तीन जून को और उसके पहले भी राजधानी पटना के अशोक राजपथ पर छात्रों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ाकर मारा.

पुलिसिया कार्रवाई अलग-अलग हिस्से में कुछ-कुछ इसी अंदाज में चल रही है. कह सकते हैं कि विपक्ष की राजनीति  करने वाले हवा-हवाई बातें करने में ही इतने गुम हैं कि वे इस तरह की घटनाओं पर नजर ही नहीं डालते वरना भजनपुर के पहले इसी अररिया में बटराहा गांव में तंत्र की क्रूर कार्रवाई पर सरकार की घेराबंदी हो सकती थी. या उसके बाद की कई घटनाओं पर भी.