Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/भाषाई-मानवाधिकार-का-मसला-लाल्टू-8033.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | भाषाई मानवाधिकार का मसला - लाल्टू | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

भाषाई मानवाधिकार का मसला - लाल्टू

मराठी साहित्य में अपने योगदान के लिए इस साल ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले भालचंद्र नेमाड़े ने कहा है कि अंगरेजी की वजह से भारतीय भाषाएं खत्म हो रही हैं। वे इससे भी आगे बढ़ कर यहां तक कह गए हैं कि हमें अंगरेजी को हटाने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए। सलमान रुश्दी और सर विदिया नायपॉल का जिक्र करते हुए नेमाड़े ने कहा कि भारतीय भाषाओं में जो लिखा जा रहा है, उसके मुकाबले में उनका लेखन कहीं भी नहीं ठहरता। अंगरेजी की पैरवी करने वालों ने उनकी मूल बात को नजरअंदाज करते हुए रुश्दी के साथ उनकी झड़प का संज्ञान लिया। रुश्दी ने नेमाड़े को ‘ग्रंपी ओल्ड मैन' (तुनकमिजाज बूढ़ा) कहा और अब हम इंतजार में हैं कि पंद्रह साल पहले भारतीय साहित्य पर संकलन की भूमिका लिखते हुए जब रुश्दी ने भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को सिरे से नकार दिया था, उसे याद करते हुए उन्हें कोई अनपढ़ अंगरेजीपरस्त कब कहने वाला है!

अंगरेजी को लेकर आखिर क्या समस्या है? आजकल कई लोग यह सवाल उठाते हैं। इसके वाजिब कारण हैं। आखिर अंगरेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है। विज्ञान और दीगर तकनीकी विषयों में अंगरेजी जाने बिना आप कहीं के नहीं रहते। कुछ दलित बुद्धिजीवियों का मानना है कि अंगरेजी ही दलितों की मुक्ति का रास्ता है। अंगरेजी के खिलाफ बोलने वाले अक्सर संघी टाइप के सीनापीटू स्वघोषित राष्ट्रभक्त होते हैं, जिनसे देश और समाज को खतरा बढ़ता जा रहा है। कई तो यह सपना देखते रहते हैं कि संस्कृतनिष्ठ जिस भाषा को सरकारी हिंदी कहा जाता था, वह कभी विश्व-भाषा बन जाएगी। पर नेमाड़े की मूल बात कुछ और है, जिसको समझना जरूरी है। यह ध्यान रहे कि नेमाड़े खुद आजीवन अलग-अलग स्तर पर अंगरेजी पढ़ाते रहे हैं। इसलिए उनको अंगरेजी का विरोधी मानना गलत है।

अंगरेजी को लेकर समस्या भाषा की नहीं, बल्कि अंगरेजी वालों की है, जो इस समाज का सुविधा-संपन्न वर्ग हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, पर हम जब देश की बात करते हैं तो अक्सर उसमें से लोक गायब रहता है। भाषा की समस्या लोक से जुड़ी है। पिछले दो सौ सालों से तालीम की भाषा का संदर्भ महत्त्वपूर्ण होता गया है, क्योंकि पिछले जमानों की तुलना में आधुनिक अर्थ में साक्षरता में बढ़त होती रही है। ऐसा नहीं कि पहले साक्षरता कम थी, पर उस साक्षरता का मतलब कुछ और था।

आज हम मानते हैं कि दूरदराज इलाकों में भी नागरिकों में सरकारी तंत्र और लोकतंत्र की समझ होनी चाहिए। न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक के प्रशासन में परोक्ष रूप से सभी नागरिकों की भागीदारी को हम लोकतंत्र की नींव मानते हैं। इसके लिए जैसी साक्षरता चाहिए, वह हमारे समाज में आज भी एक तिहाई जनता के पास नहीं है। पर कामगार अपने काम पारंपरिक ढंग से सीखते हैं और उसमें एक दर्जे की गहराई होती है, जिसे हम लोकविद्या कह सकते हैं- ऐसी साक्षरता हमेशा ही रही है और इसी के बल पर यह देश आगे बढ़ता रहा है।

दो सौ साल पहले तत्कालीन चिंतकों ने इस बात को समझा कि यूरोप में विज्ञान-टेक्नोलोजी और सामाजिक-राजनीतिक विचारों में बड़ी तेजी से बदलाव आए हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में गंभीर बौद्धिक चर्चाएं जिन भाषाओं में होती थीं, जैसे संस्कृत और फारसी, उन्हें समझने वाले लोग संख्या में बहुत कम थे। इसके अलावा इन भाषाओं में महारत रखने वाले लोग कुलीन पूर्वग्रहों से ग्रस्त थे। संस्कृत ब्राह्मणवादियों के, तो फारसी इस्लामी अमीरात के जकड़ में थी।

आधुनिक भाषाओं में, जैसे उत्तर भारत (आज हिंदी और अन्य भाषाओं का व्यापक भूखंड, जिसे हिंदी क्षेत्र कहा जाता है) में ब्रज, अवधी आदि में पुराने ग्रंथ लिखे जा रहे थे; रामायण, महाभारत से लेकर रसशास्त्र तक लिखा जा चुका था, पर विज्ञान, टेक्नोलोजी आदि का कुछ भी मौजूद नहीं था। इसका एक ही अपवाद था- उर्दू। दिल्ली कॉलेज के अध्यापकों और शोधकर्ताओं की टीम लगन के साथ आधुनिक यूरोपीय ज्ञान का अनुवाद कर रही थी। ऐसी कोशिश बांग्ला जैसी भाषाओं में भी बाद में हुई।

जो भी हो, उन्नीसवीं सदी के समाज सुधारकों ने बर्तानिया की सरकार से पैरवी की कि हिंदुस्तान में अंगरेजी में तालीम का इंतजाम किया जाए। ये ऐसे लोग थे जिन्हें उर्दू में लिखी जा रही आधुनिक बौद्धिक सामग्री का कुछ पता न था- या यों कह सकते हैं कि उर्दू वालों को उन्नीसवीं सदी के आखिर में ही समझ में आया कि हम अंगरेजों के गुलाम हो गए हैं। ब्रिटिश संसद में लंबी बहस के बाद और लॉर्ड मैकॉले के प्रभावी हस्तक्षेप के बाद 1835 में यह निर्णय लिया गया कि सीमित लागत के साथ अंगरेजी में तालीम शुरू की जाएगी। प्रशासनिक कारणों से और संसाधनों की कमी दिखलाते हुए यह तय पाया गया कि अंगरेजी तालीम कुछ तबकों तक सीमित रहेगी। भारत में अंगरेजी वालों की एक जमात तब से बनना शुरू हुई।

इन अंगरेजी वालों की ही समझ थी कि देश को धर्म के आधार पर बांटा जाए और ये बहसें हिंदुस्तान में होने से पहले इंग्लैंड के कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में पढ़ते हिंदुस्तानी संपन्न वर्गों के लोगों में हुईं। उस जमाने में साक्षरता इतनी कम थी कि यह संभव न था कि हर आधुनिक भारतीय भाषा में आधुनिक ज्ञान आसानी से उपलब्ध करवाया जा सके। नतीजा यह रहा कि कई पीढ़ियां औपचारिक स्कूली तालीम अपनी भाषाओं से हट कर और भाषाओं में पाती रहीं। इसका सबसे ज्यादा नुकसान हिंदी क्षेत्र में हुआ, क्योंकि राष्ट्र-निर्माण की अजीब धारणा यहां पनपी, जिसके अनुसार एक कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ भाषा बनाई गई, जिसे पूरे हिंदी क्षेत्र में कोई नहीं बोलता था। विडंबना यह थी कि स्कूली तालीम आज भी आधी जनता को नसीब नहीं है, इसलिए उस अन्याय से वे बचे रह गए। पर जो स्कूलों में पढ़ने गए, उनमें से अधिकतर अंगरेजी और कृत्रिम हिंदी जैसी भाषाओं में जद्दोजहद करने में विफल रह कर प्राथमिक स्तर से भी ऊपर न आ पाए।

अंगरेजी वालों को तो अंगरेजीपरस्त होना ही था, बाकी लोगों में भी अंगरेजी के खौफ की वजह से यह समझ घर कर गई कि बिना अंगरेजी के काम चल नहीं सकता। अंगरेजी वाले अंगरेजी में बहस करते रहे कि भाषा का व्यक्तित्व-निर्माण में बड़ा महत्त्व है, पर उन्हीं की मेहरबानी से अपनी भाषा में तालीम धीरे-धीरे गायब होती गई। अंगरेजी वालों की चालाकी के कई पहलू हैं, जिनमें से एक यह तर्क है कि आप मातृ-भाषा में तालीम कैसे देंगे, आखिर कई कबीलाई लोगों की भाषा में तो कुछ सामग्री है ही नहीं। जनता की समस्याओं पर उदारवादी नजरिए का ढोंग दिखलाते हुए ऐसे लोग न तो कबीलाई लोगों की भाषाओं पर कोई काम करते हैं और न उनके इलाकों के आसपास की भाषाओं में तालीम को चलने देना चाहते हैं। इसके विपरीत गंभीर समर्पित भाषाविद ऐसी बहुभाषीय तालीम की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें प्रारंभिक स्तर पर तालीम बच्चे की अपनी भाषा के अलावा आसपास की सबसे करीब की भाषा में दी जाए।

पहले यह संभावना दिखती नहीं थी कि अपनी भाषाओं में सब कुछ पढ़ा-लिखा जा सकता है, हालांकि चीन, जापान, इजराइल जैसे कई देशों ने बिना किसी दुविधा के यह कर दिखलाया था। अब यह कठिनाई भी काफी हद तक दूर हो चुकी है, बशर्ते इस पर काम करने की मंशा हो। आज मशीनों की मदद से एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद बहुत आसान हो गया है। बची-खुची जो दिक्कतें हैं, उनकी बड़ी वजह यह है कि इसको अपनाने वाले लोग कम हैं, इसलिए जरूरी तकनीकी विकास भी धीमी गति से हो रहा है।

इस पूरी बहस में एक बात सबसे पहले कही जानी चाहिए कि अपनी भाषा में तालीम का मतलब यह नहीं कि अंगरेजी का विरोध करना है। अंगरेजीपरस्त लोग इसी बात को पहले रखते हैं कि अंगरेजी का विरोध हो रहा है और यह भारी अन्याय है। नेमाड़े ने अपने बयान में कहा है कि वे अंगरेजी का विरोध नहीं करते। सवाल यह है कि क्या हम देश के हर नागरिक को समर्थ और सशक्त बनाना चाहते हैं, अगर हां तो हमें दुनिया भर के शिक्षाविदों का कहना मानना पड़ेगा कि प्रारंभिक तालीम अपनी भाषा में हो। जिन्हें अंगरेजी से वास्ता रखना है, जब तक तकनीकी ज्ञान अंगरेजी में ही मिल रहा है, उन्हें तो अंगरेजी सीखनी ही होगी। शिक्षाविदों का मानना है कि अपनी भाषा में महारत पाने के बाद ही हम किसी और भाषा को जानने-सीखने के काबिल हो पाते हैं। इसलिए कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो अंगरेजी शिक्षा का कोई मतलब ही नहीं है। दलित बुद्धिजीवियों की लड़ाई जातिप्रथा और मनुवादियों के खिलाफ है, उन्हें यह बात समझनी होगी कि अंगरेजी को अपनाने में उन्हें कोई फायदा नहीं है।

जब नेमाड़े साहित्य के स्तर की बात करते हैं तो वह सही कह रहे हैं। जिन्होंने अंगरेजी में उपलब्ध विश्व साहित्य के साथ भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को पढ़ा है, वे जानते हैं कि भारतीय अंगरेजी में लिखा गया साहित्य अभी बहुत पीछे है। अंगरेजी वालों के पास सत्ता और ताकत है तो उनकी चलती है। इसलिए शोरगुल में वे आगे हैं। पर अदब सिर्फ शोरगुल का मामला नहीं है। तमाम मुश्किलात के बावजूद भारतीय भाषाओं में जो सर्जनात्मक साहित्य लिखा जा रहा है, उसका औसत स्तर भारत से अंगरेजी में लिखे से गुणात्मक और परिमाणात्मक दोनों स्तर पर काफी बेहतर है। भारतीय भाषाओं में लिखने वाले ऐसे कई लेखक हैं जो अंगरेजी में एक जैसी काबिलियत से लिख सकते हैं, पर भारतीय अंगरेजी लिखने वाले वे लोग हैं जो भारतीय भाषाओं में नहीं लिख सकते। रुश्दी ने जब भारतीय भाषाओं के साहित्य को नकारा था, उसकी वजह सिर्फ यही थी कि वे वाकई भारतीय भाषाओं में अनपढ़ हैं। हर अंगरेजीपरस्त हमें अंगरेजी लिखत के उद्धरण सुनाने को आतुर होता है, जबकि उतनी ही या अधिक महत्त्वपूर्ण बात अपनी भाषा में कही जाए तो उसे वह अनसुना करता है।

आखिरी बात यह कि भाषा का मुद््दा राष्ट्रवाद का नहीं, इंसानियत का मुद्दा है। आज यह संभव है कि हर भाषा में तालीम दी जा सके, हर किसी भाषा को बोलने वाले को सुविधा हो कि वह राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद््दों में भागीदारी कर सके। मुल्कों में आपसी जंगों और जनता पर दमन जारी रखने के लिए सरकारें जो खर्च किया करती हैं, उससे कहीं कम लागत में भाषाओं की विविधता को बचाए रखना संभव है। यही भाषा का असली मुद््दा है। यही असली खलिश है। अंगरेजी वाले समझते रहें कि खलिश क्या होती है।