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भीड़तंत्र से शोरतंत्र तक-- शशि शेखर

पिछले एक हफ्ते से आप सिर्फ बिलखते लोगों की तस्वीरें देख रहे होंगे। गोरखपुर में अकाल काल के गाल में समा जाने वाले नौनिहालों के रोते-चीखते परिजन, नोएडा में जेपी, आम्रपाली सहित तमाम बिल्डर्स के शिकार मध्यवर्गीय लोग, कर्ज-माफी की घोषणा के बावजूद अपनी जान देने पर मजबूर किसान, केरल में सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों के परिजन...। क्या गुजरे 70 सालों में हमने यही कमाया है?


यह गम और गुबार के सौदागरों की चांदी का समय है, पर परवान चढ़ते लोकतंत्र में उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि यह आजादी हमारे पुरखों ने बलिदान देकर किन्हीं महापुरुषों के लिए नहीं, बल्कि हमारे और आपके लिए ही अर्जित की है। उसे बचाना, चलाना और सिर-माथे पर रखना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। अपने इस तर्क के समर्थन में आपको एक आंखों-देखी सुनाना चाहता हूं।


यह दर्दनाक घटना लगभग 25 साल पुरानी है। मैं आगरा में अपने अखबार के दफ्तर में बैठा था। पता चला कि खटीक पाड़ा में जहरीला पानी पीने से लोगों की तबीयत बिगड़ने लगी है। जब तक कुछ समझ में आता, तब तक 21 लोग दम तोड़ चुके थे, जिनमें 17 बच्चे थे। बीमार लोगों को स्थानीय मेडिकल कॉलेज के चिकित्सालय ले जाया गया, जहां एक हफ्ते के भीतर 11 और लोगों ने दम तोड़ दिया था।


जब इस मामले की तहकीकात की गई, तो पता चला कि संजय प्लेस के पास स्थित जिस टंकी का पानी पीने से ये मौतें हुईं, उसमें कुत्तों और अन्य जानवरों की हड्डियां तैर रही थीं। नियमित सफाई न होने से पानी जहरीला हो गया था। इसी विभागीय लापरवाही ने 32 लोगों की जिंदगी लील ली थी। इनमें अधिकतर दलित थे।


मैं जब घटनास्थल पर पहुंचा, तब वहां सिर्फ एक अपर जिलाधिकारी और उन्हीं के समकक्ष पुलिस अफसर चंद कर्मियों के साथ लोगों को सांत्वना दे रहे थे। उस समय वहां के कलक्टर एक बेहद काबिल अफसर हुआ करते थे, बाद में उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव की कुरसी भी जिम्मेदारी से संभाली। मैंने घटना की शाम उनसे कुछ तल्खी से पूछा था कि जब बच्चे मर रहे थे, तो क्या आप सो रहे थे। उनका जवाब था कि मैं वहां पहुंचकर फोटो खिंचाता या फिर अपने कार्यालय में बैठकर समूचे सरकारी तंत्र को जरूरी इंतजामात के लिए रवाना करता? वह सही थे। उस आपदा से समूची संवेदनशीलता और कर्तव्यनिष्ठा के साथ लोहा लिया गया था। प्रशासन जो कर सकता था, उसने किया था।


भगवान न करे कि आज ऐसा हादसा हो जाए, तो कुछ लोग इसे दलितों के खिलाफ साजिश बता देंगे, कुछ समूची सरकार को निकम्मा साबित कर देंगे और सोशल मीडिया पर कल तक पाकिस्तान और चीन से युद्ध के हामी लोग सारे तंत्र को नाकारा साबित करने पर आमादा हो जाएंगे। यही वजह है कि आज नेताओं और आला प्रशासकों को बेहतर काम करने से ज्यादा उसे दिखाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को समूचा काम छोड़कर इसीलिए दो-दो बार गोरखपुर जाना पड़ता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा पूर्व कार्यक्रम छोड़कर वहां पहुंचते हैं। मंत्रियों और आला अफसरों की टोलियां गोरखपुर में हरदम मंडरा रही होती हैं। लोग समझते क्यों नहीं कि ये लोग भविष्य में ऐसे हादसे रोकने के इंतजाम किसी मेडिकल कॉलेज के प्रांगण में खड़े होकर नहीं कर सकते? उन्हें इसके लिए अपने दफ्तरों में बैठना होगा, रणनीति बनानी होगी और उसे अमलीजामा पहनाना होगा। हड़बड़ी और अकुलाहट ने काम की बजाय दिखावे की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। ये आम आदमी के लिए खतरनाक है।


नोएडा में जो लोग फ्लैट न मिलने की शिकायत में छाती कूट रहे हैं, वे इसी प्रवृत्ति के शिकार हुए हैं। जिन बिल्डर्स ने उनके सपने लूटे, वे खुद राजनीतिक संरक्षण में मालामाल हुए हैं। नेताओं का कालाधन और बेनामी संपत्ति ठिकाने लगाते-लगाते वे आम आदमी के धन को लूटने लगे। उन्हें मालूम था कि सियासी संरक्षण के चलते पुलिस उन पर हाथ नहीं डालेगी। जो सत्तानायक अपने कड़क होने का दम भरते थे, वे इनकी पीठ पर सवार थे। एक समय था, जब पुलिस या अथॉरिटी पीड़ितों को यह कहकर चलता कर देते कि ‘ऊपर' के हुक्म के बगैर हम कुछ नहीं कर सकते। उधर ‘ऊपर वाले', मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए जयगान करा रहे होते थे। यह एक तल्ख हकीकत है कि नेता-बिल्डर गठजोड़ ने न केवल लोगों को लूटा, बल्कि शहरों का चेहरा भी बिगाड़ दिया। कभी वास्तुकला का नमूना माने जाने वाले शहर अब ईंट-गारे के उलावघर में तब्दील हो गए हैं।


किसानों का मामला भी ऐसा ही है। सरकारें लोकप्रिय बने रहने के लिए उनके कर्ज तो माफ कर देती हैं, पर इसके बाद उनके पास विकास और जरूरी इंतजामात के लिए पैसा नहीं रह जाता। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि ‘नाम' के लिए ‘काम' को तिलांजलि दी गई।


आज जरूरत तो इस बात की है कि किसान अपनी फसल उगाए, तो उसे उचित मूल्य देने वाली मंडी हासिल हो। बच्चा जब इस देश की धरती पर जन्म ले, तो उसकी परवरिश के माकूल इंतजाम और पढ़ाई के लिए स्कूल हों। साथ ही अध्ययन के बाद जीवन-यापन के समुचित साधनों के लिए उसे भटकना न पड़े। इन व्यवस्थाओं के लिए शासकों-प्रशासकों को समय और सुकून की जरूरत है। हमें सोचना होगा कि हर वक्त की हाय-तौबा कहीं हमारा ही मार्ग तो अवरुद्ध नहीं कर रही? हमारा लोकतंत्र तो बहुत पहले ही भीड़तंत्र में तब्दील हो गया था। अब हम उसे शोरतंत्र बनाने पर क्यों आमादा हैं?

मैं जानता हृं कि इस सवाल के जवाब में भी सवाल उभरेंगे कि आम आदमी क्या करे? दो उदाहरण पेश हैं। जापान के परमाणु बिजलीघर में जब साल 2011 में पानी भर गया, तो देश के बड़े इलाके में बिजली आपूर्ति ठप्प हो गई। इसकी वजह से ट्रेनें रुक गईं और टोकियो जैसे शहरों में जिंदगी ठप्प पड़ गई। जहां 60-70 मंजिली इमारतें हों, लोग 50-60 किलोमीटर से नौकरी करने आते हों, वहां बिना लिफ्ट, बिना सार्वजनिक यातायात के क्या हाल हुआ होगा? लोग बिना बेड़ियों के बंदिशों की गिरफ्त में आ गए थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसे विरल वक्त में भी वहां किसी ने हुकूमत को नहीं कोसा। कहा गया कि अभी उन्हें अपना काम करने दीजिए। बाद में हम उनसे सवाल पूछेंगे। लंदन बम धमाकों के बाद बर्तानिया के लोगों ने भी यही किया था।
सवाल पूछना और नेताओं की करनी पर चुनाव के दौरान फैसला करना हमारा हक है, मगर शोर मचाकर काम में खलल डालना आत्मघात। हमें इस फर्क को समझना होगा।