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भूख के खिलाफ अधूरी जंग- तवलीन सिंह



उस बच्चे की तसवीर इतनी भयानक, इतना दिल दहला देने वाली थी, कि मुंबई शहर में सिर्फ एक अखबार ने उसे छापा अपने पहले पन्ने पर। यह तसवीर उस दिन छपी, जब महाराष्ट्र की सरकार ने पिछले सप्ताह स्वीकार किया कि बीते वर्ष 24,000 बच्चे कुपोषण के कारण मर गए, भारत के इस सबसे विकसित राज्य में। महिला एवं शिशु विकास मंत्री वर्षा गायकवाड़ ने विधानसभा को एक लिखित जवाब में बताया कि दस लाख बच्चे हैं पूरे प्रदेश में, जिनको कुपोषित माना गया है और इनमें से 1.24 लाख ऐसे हैं, जिनका हाल गंभीर है।

गंभीर का मतलब क्या है कुपोषण के तौर पर? क्या उस बच्चे जैसा, जिसकी तसवीर छपी थी? मैंने जब वह तसवीर देखी, तो पहला खयाल यह आया कि यह बच्चा अफ्रीका के किसी बदकिस्मत देश का होगा, जो दशकों युद्धरत रहा होगा जहां अगर बच्चे भूख से नहीं मरते हैं, तो युद्ध के मैदान में मरते हैं। दोबारा देखने पर ही दिखा मुझे कि यह बच्चा तो अपने देश का है। और शायद खुशकिस्मत भी है, क्योंकि कम से कम मौत आने से पहले अस्पताल तक पहुंच पाया है। लेकिन सुनिए किस हाल में। बच्चे के चेहरे पर झुर्रियां इतनी पड़ चुकी थीं भूखा रहने के कारण कि जैसे वह बचपन में ही बूढ़ा हो गया हो।

उसका नन्हा जिस्म निरी हड्डियों का ढांचा रह गया था, जैसे महीनों से उसको एक वक्त की रोटी भी न नसीब हुई हो। मुझे उसकी बेनूर आंखों को देखकर शर्म आई कि मैं एक ऐसे देश की वासी हूं, जहां बच्चे तड़प-तड़प कर मरते हैं भूख से, जबकि सरकार के भंडारों में चूहे खाते हैं अनाज। अपने प्रधानमंत्री ने कुछ महीने पहले कहा था कि सारे राष्ट्र के लिए यह शर्म की बात है कि भारत के 45 फीसदी बच्चे कुपोषित माने जाते हैं विश्व बैंक की नजरों में। यह बात कहने के बाद, लेकिन अपने प्रिय डॉक्टर साहब ने एक कदम भी नहीं उठाया देश के बेहाल बच्चों का हाल सुधारने के लिए।

समाधान आसान है इस समस्या का और यह साबित करके दिखाया है अक्षयपात्र जैसी संस्थाओं ने, जो स्कूलों में दोपहर का भोजन उपलब्ध कराने का काम करती हैं। अक्षयपात्र सरकारी संस्था नहीं है। इसको निजी कंपनियों के दान से चलाते हैं कृष्ण भक्त, लेकिन इस संस्था ने वह काम करके दिखाया है, जो इस देश के किसी भी हिस्से में सरकारी शिशु कल्याण योजना नहीं कर पाई हैं।

अक्षयपात्र के काम को मैंने अपनी आंखों से देखा है, सो सुनिए इस संस्था की कहानी। इसकी शुरुआत हुई थी, कोई दस साल पहले बंगलुरू के एक कृष्ण मंदिर के पिछवाड़े में और आज वह कर्नाटक के कई स्कूलों से जुड़ गया है और करोड़ों बच्चों का जीवन सुधर गया है इसके कारण। एक वक्त का भोजन भरपेट मिलने से बच्चों की सेहत में तो फर्क पड़ा ही है, लेकिन साथ-साथ उनकी शिक्षा में भी जमीन-आसमान का फर्क दिखता है परीक्षाओं में।

आज अक्षयपात्र कई प्रदेशों में काम कर रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में देहाती महिलाओं को बच्चों के खाना बनाने का काम सौंप दिया जाता है, जिससे उनकी थोड़ी-बहुत आमदनी भी हो जाती है और बच्चों को अच्छा खाना भी मिलता है। जहां-जहां अक्षयपात्र ने अपना काम शुरू किया है, वहां आपको नहीं मिलेंगे कुपोषित बच्चे, लेकिन सरकारी अधिकारी ऐसी गैरसरकारी संस्थाओं को पसंद नहीं करते, क्योंकि उनकी दो नंबर की कमाई बंद हो जाती है।

इसलिए कि भारत सरकार की बड़ी-बड़ी समाज कल्याण योजनाएं अगर बंद हो जाएं, तो उनकी दो नंबर की कमाई भी बंद हो जाएगी। ये बड़ी-बड़ी योजनाएं विफल रही हैं, यह इसी से साबित हो जाता है कि 45 फीसदी भारतीय बच्चे कुपोषित हैं। लेकिन इस देश के सरकारी अधिकारी इतने चतुर हैं, इतने चालाक हैं, कि जब भी कोई प्रयास होता है आईसीडीएस या मनरेगा जैसी योजनाओं को बंद करने का वह किसी न किसी बहाने रुकावटें डाल देते हैं।

और हमारे राजनीतिज्ञ हैं कि डरते हैं ऐसी योजनाओं को बंद करने से जिनको शुरू किया गया है गरीबी हटाने के नाम पर। ऊपर से एक उलझन यह भी है कि सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सदस्यों को ऐसी बड़ी-बड़ी योजनाएं ही पसंद हैं। उनके बनाए गए खाद्य सुरक्षा कानून का भी वही हाल होगा, जो अन्य बड़ी योजनाओं का हुआ है, लेकिन जिद पकड़े बैठे हैं इस कानून को पारित करवाने के लिए।

सो लाखों करोड़ रुपये खर्चे जाएंगे भुखमरी हटाने के नाम पर इस नए कानून द्वारा, और भूख से मरते रहेंगे इस देश के बच्चे। जबकि जरूरत है, छोटी और स्थानीय स्तर की योजनाओं की। हमारे राजनेता हैं कि उनको यह एहसास तक नहीं कि कितने धीरे-धीरे, कितना तड़प-तड़प कर मरत हैं भूख से बच्चे।