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भूख नहीं जानती सब्र-- संजीव पांडेय

दुष्यंत कुमार का शेर है : भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ। आजकल संसद में है जेरे-बहस ये मुद्दआ। शायर इसमें हुक्मरानों की खिल्ली उड़ा रहा है क्योंकि वह जानता है कि भूख सब्र नहीं जानती। इसके बावजूद हमारी व्यवस्था गरीबों का इम्तहान लेती रहती है। महज कुछ दिनों के अंतर पर ही झारखंड में भूख से तीन मौतें हुर्इं; उस राज्य में जो खनिज संसाधनों के मामले में देश के अमीर राज्यों में माना जाता है। सिमडेगा की संतोषी की मौत इसलिए हो गई कि राशनकार्ड आधार से नहीं जुड़ा था। डीलर ने राशन देने से मना कर दिया था। झरिया के बैजनाथ रविदास की मौत इसलिए हो गई कि सरकारी व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार ने उसे तीन साल से राशनकार्ड नहीं दिया था। जबकि देवघर जिले के रूपलाल मरांडी की मौत इसलिए हो गई कि मशीन में उसका और उसकी बेटी का अंगूठा मैच नहीं हुआ। इस कारण पिछले दो महीने से उसे राशन नहीं मिला। सवाल अहम है। क्या वर्तमान सरकारी तंत्र सामंती और जमींदारी युग से भी ज्यादा निर्दयी है। यह वह राज्य है जहां लंबे समय तक जमींदारी रही। स्थानीय बड़े किसान और जमींदार गांव के गरीब मजदूरों (स्थानीय भाषा में कमियां) से घंटों काम करवाते थे। बदले में उन्हें तीन से चार किलो चावल मजदूरी देते थे। हालांकि वर्षों तक परिवार से जुड़े मजदूर के प्रति इन जमींदारों को इतना रहम जरूर था कि वे अपने मजदूर को भूखे पेट नहीं मरने देते थे। भूख से मरने की स्थिति तभी आती थी जब अकाल की चपेट में मालिक भी आता था। लेकिन सरकारी तंत्र तो इतना निर्दयी है कि अगर गरीब के पास एक अदद यूनीक नंबर नहीं है तो राशन पर भी पाबंदी लग गई है। भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर भूख से मौत शायद बहुत बड़ी सजा है।

 


झारखंड संसाधनों के मामले में देश का अमीर राज्य है। लेकिन यहां के लोग काफी गरीब हैं। देश के तमाम कॉरपोरेट घराने झारखंड के संसाधनों का दोहन कर खूब अमीर बन गए। लेकिन यहां के नागरिक दाल छोड़िए, भात की तलाश में मर रहे हैं। देश को ऊर्जा संपन्न बनाने में झारखंड का योगदान है। इसी राज्य का झरिया और धनबाद राष्ट्रीय मानचित्र में इसलिए मशहूर हुआ कि देश की ऊर्जा की जरूरतों के लिए कोयला दिया। यही कुछ लोहा, तांबा, माइका, बॉक्साइट, ग्रेफाइट और यूरेनियम के क्षेत्र में कह सकते हैं। झारखंड ने यह भी पूरे देश को दिया। झारखंड राज्य इसलिए बना था कि तत्कालीन दक्षिण बिहार के लोग अपने आप को उपक्षित मानते थे। बिहार के अधीन दक्षिण बिहार के आदिवासी इलाकों की लगातार उपेक्षा का आरोप लगता रहा। लेकिन आज झारखंड बने हुए कई साल हो गए। न तो स्थानीय संसाधनों का लाभ यहां के लोगों को मिला, न ही सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ यहां के लोगों को मिला। यहां के तमाम आदिवासी परिवारों की महिलाएं बड़े शहरों में घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करती मिलेंगी जिन्हें सलाना बीस से तीस हजार रुपए के ठेके पर ले जाया जाता है।

 


तकनीक लोगों की सुविधाओं को बढ़ाती है। इससे लोगों का जीवन स्तर सुधारता है। लेकिन डिजिटल इंडिया, बॉयोमीट्रिक तकनीक और आधार नंबर ने देश में लोगों की मुसीबतें बढ़ा दी हैं। चिकित्सा विज्ञान में डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल मरीजों की जान बचाने के लिए पूरी दुनिया में किया जा रहा है। जबकि हमारे देश के गरीब राज्यों में डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल लोगों की जान ले रहा है। यही नहीं, इस डिजिटल इंडिया ने ग्रामीण इलाकों के आदिवासियों और दलितों की मुश्किलें और बढ़ार्इं हंै। कई बुजुर्ग राशन की दुकान पर जाने के लिए पैदल घंटों का सफर इसलिए तय करते हैं कि उन्हें बॉयोमीट्रिक मशीन में अंगूठा लगाना होता है। जबकि एक कल्याणकारी राज्य में सरकार को गरीबों के घर पर राशन उपलब्ध करवाना चाहिए।

 


भूख से मौत भारत में कोई नई बात नहीं है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में भूख से होने वाली लड़ाई में हम सौवें पायदान पर चले गए हैं। भूख के खिलाफ हम से अच्छी लड़ाई पड़ोसी नेपाल और बांग्लादेश ने लड़ी है। आजादी से पहले भी इस देश में भूख से मौतें होती थीं। आजादी के बाद भी भूख से मौतें होती रहीं। आजादी के बाद बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र के अकाल ने सरकारों को भूख से निपटने के लिए योजनाएं बनाने को मजबूर किया। इससे परिणाम भी आए। सिंचाई और कृषि क्षेत्र में अच्छे काम से देश अन्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। इसके बाद भूख से मौत राष्ट्रीय शर्म की बात है।

 


झारखंड के इलाके में भूख से मौत पहले भी होती रही है। झारखंड के पड़ोसी राज्य ओडिशा में भूख से मौत होती रही है। लेकिन भूख से होने वाली मौतें और सरकार की उदासीनता शर्मनाक है। बीसवीं सदी में भूख से होने वाली मौतों का मुख्य कारण इन राज्यों में पड़ने वाला अकाल और सूखे की स्थिति थी। 1960-1970 और 1980 के दशक में बिहार और ओडिशा से भूख से मौतों की खबरें अक्सर आती थीं। 1993 के एक आंकड़े के मुताबिक उस साल ओडिशा में भूख से 350 लोगों की मौत हुई थी, जबकि बिहार में उसी साल 150 लोग भूख से मर गए थे। नब्बे के दशक में बिहार में भूख से ज्यादातर मौंते तत्कालीन दक्षिण बिहार में हुई थीं। यही इलाका वर्तमान में झारखंड है। हालांकि गैरसरकारी आंकड़े भूख से होने वाली मौतों की संख्या हजारों में बता रहे थे। उस समय सरकार ने तर्क दिया था कि दोनों राज्यों में सूखे की स्थिति थी। पानी के कई स्रोत सूख गए थे। इसलिए हालात ज्यादा बिगड़ गए। ओडिशा के बोलांगीर, कोरापुट, कालाहांडी इलाके में हालात ज्यादा खराब थे। तत्कालीन बिहार का पलामू और छोटानागपुर क्षेत्र इससे काफी प्रभावित था। इस इलाके से उस समय बड़े पैमाने पर लोग दिल्ली और कोलकाता के लिए पलायन कर गए। लेकिन यह तब की बात है जब ये राज्य काफी पिछड़े थे। गांवों तक सड़कें नहीं थीं, बिजली नहीं थी। गांवों तक सरकारी व्यवस्था की पहुंच भी कम थी।

 


लेकिन अब तो हालात बदले हैं। देश के अन्न-भंडार भरे हुए हैं। गांव-गांव तक जिला प्रशासन की पहुंच है। फिर भी भूख से मौतें हो रही हैं। भूख से पलायन हो रहा है। इसमें प्राकृतिक आपदा का योगदान नहीं है। ये मौतें सरकारी तंत्र की उदासीनता और लापरवाही के कारण हुई हैं। लेकिन सरकारी तंत्र की गैरजिम्मेदारी देखिए, सिमडेगा में बच्ची की मौत का कारण मलेरिया बताया जा रहा है। जबकि खुद स्वास्थ्य विभाग ने इससे इनकार कर दिया है। मृतका संतोषी की मां खुद कह रही है कि बच्ची को कई दिन से खाना नहीं मिला था। बच्ची स्कूल का मिड-डे-मील खाकर गुजारा कर रही थी। क्योंकि राशन कार्ड के आधार से न जुड़ने के कारण उसके परिवार को राशन मिलना बंद हो गया था।


डिजिटल इंडिया और आधार नंबर सहूलियत के बजाय समस्या बन रहे हैं। राशन कार्ड के बाद देश के सारे बैंक खातों को आधार नंबर से जोड़ने के आदेश दिए गए हैं। हालांकि मामला फिलहाल न्यायालय में है और शीर्ष न्यायालय इसकी अनिवार्यता को लेकर विचार कर रहा है। फिर भी आधार नंबर को हर जगह अनिवार्य करने की सरकारी जिद इन मौतों के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। सरकार अपने हठ पर कायम रहती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के करोड़ों खातों को आधार नंबर से जोड़ने को कहा गया है। उधर बैंकों में कर्मचारियों की संख्या कम होने के कारण कई करोड़ खातों को आधार से जोड़ना संभव नहीं है। जनधन खाते ही पच्चीस करोड़ से ज्यादा हंै लेकिन सरकार की जिद बनी रही कि बिना आधार वाले खाते से पैसा नहीं निकल पाएंगे। हालांकि, अभी केंद्र ने इसकी समय सीमा 31 मार्च, 2018 की है। लेकिन इससे हालात नहीं सुधर रहे हैं।