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भूख है तो सब्र कर

इलाहाबाद। शुरुआत करते हैं दुष्यंत कुमार के एक शेर से-न हो कमीज तो पांव से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए। दरअसल इस शेर की याद इसलिए आई कि राज्य के मानवाधिकार आयोग ने एक ऐसे मामले का संज्ञान लिया है जो दुखद तो है ही साथ ही शर्मसार कर देने वाला भी है।

इलाहाबाद के एक गाव में भूख मिटाने के लिए बच्चे मिट्टी खाने को मजबूर हैं। उनकी इस मजबूरी पर न तो किसी को तरस आता है और न ही किसी को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता है। शायद यह मान लिया गया है कि वह पैदा ही होते हैं इस तरह की अभावग्रस्त जिंदगी को जीने के लिए। यही वजह कि अपने कुत्तों की दवा, दूध और बिस्कुट पर हर महीने हजारों रुपये खर्च कर देने वाले बड़े पदों पर बैठे लोगों के लिए इन बच्चों की बेबसी कोई मायने नहीं रखती।

राज्य मानवाधिकार आयोग ने जब यूपी सरकार के बड़े अफसरों से रिपोर्ट मांगी तो भी किसी बड़े अफसर ने मौके पर जाकर हालात जानने की कोशिश नहीं की। सवाल हाकिमों की संवेदहीनता का नहीं है, सवाल सिस्टम की विफलता का भी है। स्कूलों में दोपहर भोजन योजना चल रही है। स्कूल पहुंचने वाले हर बच्चे को दोपहर में भरपेट भोजन और साथ में पढ़ाई भी। इलाहाबाद के जिस गाव के बच्चों के बारे में खबर आई है कि वे भूख मिटाने को मिट्टी खाते हैं, वे स्कूल में दाखिल नहीं हुए?

गाव में प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब से लेकर प्रधान तक की जिम्मेदारी बनती है कि वह इलाके के बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाएंगे, उन्होंने ऐसा क्यों नहीं क्या? इतना तय है कि अपनी नौकरी बचाने को प्रधान जी के साथ मिलकर मास्टर साहब ने गाव के स्कूल जाने लायक उम्र के सभी बच्चों का नाम हाजिरी रजिस्टर में दर्ज किया होगा ताकि राजधानी में बैठे सरकारी तंत्र को अपनी पीठ थपथपाने को मौका दे सके कि सूबे का कोई भी बच्चा अब स्कूल से बाहर नहीं है।

क्या इलाहाबाद के उस गाव के स्कूल के मास्टर से या प्रधान से जवाब-तलब की जरूरत नहीं कि मिट्टी खाकर गुजारा करने वाले बच्चे अगर स्कूल तक नहीं पहुंचे तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? जो अभिभावक अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए उन्हें मिट्टी खाने के लिए छोड़ देने को मजबूर हो, उनकी माली हालत का अंदाजा खुद ब खुद लगाया जा सकता है। क्या इसे मनरेगा के तहत रोजगार देने से लेकर बीपीएल योजना के तहत मुफ्त अनाज देने जैसी योजनाओं का दम तोड़ना या पात्र लोगों तक इन योजनाओं का लाभ न पहुंचना नहीं माना जाना चाहिए?

कलेक्टर से यह पूछने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की गई कि जिस गाव से यह खबर आ रही है कि वहा के बच्चे के भूख मिटाने को मिट्टी खाने को मजबूर हैं, वहा के कितने लोगों के पास बीपीएल कार्ड हैं, कितने मनरेगा के तहत जाब कार्ड हैं? अगर ये कार्ड उनके पास हैं तो उनके बच्चे मिट्टी खाने को क्यों मजबूर हैं? अगर नहीं हैं तो फिर सवाल यह है कि ये योजनाएं किसके लिए? ऐसे लोगों के इतर वे कौन लोग हैं जो इन योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग भी तो है। वो भी तो कई कल्याणकारी योजनाएं चलाता है। क्या इस विभाग से यह पूछा जाना जरूरी नहीं कि उसकी लिस्ट में इस गाव के कौन-कौन लाभार्थी हैं? अगर यह विभाग इस गाव तक अपनी योजनाओं की रोशनी नहीं पहुंचा सका तो उसके लिए क्या किसी की जिम्मेदारी तय करना जरूरी नहीं?

राज्य मानवाधिकार आयोग ने प्रदेश के आला अफसरों से इस पूरे प्रकरण पर रिपोर्ट मांगी है। जानना चाहा कि इस तरह की घटनाएं न हों, उसके लिए क्या कदम सरकार उठाएगी लेकिन सरकारी रिपोर्ट जिस तरह तैयार होती है, वैसे ही रिपोर्ट इस बेहद संवेदनशीन मुद्दे पर भी तैयार हो रही है। बच्चों की फिक्र कम अपनी नौकरी पर आंच न आने देने की जुगाड़ ज्यादा। इस लिए किसी को भी यह उम्मीद नहीं करना चाहिए बच्चों को भूख से छुटकारा मिलेगा। दुष्यंत कुमार का शेर और बात खत्म कि- भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, आज कल दिल्ली में जेर-ए-बहस ये मुद्दा।