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भूखे बाघों से शांति की उम्मीद क्यों? - अनिल प्रकाश जोशी

आज हम 'विश्व बाघ दिवस" दिवस मना रहे हैं, जिसका मकसद जंगली बाघों के आवास के संरक्षण और विस्तार को बढ़ावा देने के साथ-साथ बाघ संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाना है। अच्छी बात है कि बाघ-संरक्षण के प्रयासों का असर भी दिख रहा है। एक-दो माह पूर्व ही यह खबर आई थी कि पिछले पांच साल में दुनियाभर में बाघों की संख्या 3200 से बढ़कर 3980 तक पहुंच चुकी है। उल्लेखनीय है कि इनमें से तकरीबन 70 फीसदी बाघ भारत में पाए गए। अकेले मध्य प्रदेश में ही तकरीबन 400 बाघ हैं। अच्छा है कि हमारे बाघ संरक्षण के प्रयास फलीभूत हो रहे हैं। लेकिन क्या हम उन्हें संरक्षण देने के साथ उनके समुचित रहवास, आहार की व्यवस्था भी कर पा रहे हैं? कदाचित नहीं। वरना क्या कारण है कि आज बाघ या अन्य जंगली पशुओं की हमारे रिहायशी इलाकों में घुसपैठ की घटनाएं बढ़ रही हैं? आज हमारे देश का ऐसा कोई भी कोना नहीं बचा, जहां पर इंसान और जानवर की आपस में भिड़ंत न हो रही हो। इन्हें अब ये अपने भोजन के रूप में देख रहे हैं।

हालात इतने गंभीर हो चुके हैं कि अब इसे हम राष्ट्रीय समस्या जल्दी मान लें, तो बेहतर होगा। आखिर जो समस्या सारे देश को दुखी किए हुए हो, उसे कैसे नकारा जा सकता है? कभी किसी बाघ के शहरी इलाके में आमद दर्ज कराने की खबर सुर्खियां बनती है, तो कभी किसी तेंदुए द्वारा ग्रामीण इलाकों में घुसकर मवेशी उठा ले जाने की घटना सामने आती है। पहले तो इस तरह की खबरें हमें चौंकाती भी थीं, लेकिन अब लगता है कि धीरे-ध्ाीरे हम इसके आदी होते जा रहे हैं। मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है, जहां इस तरह की घटनाएं सामने न आ रही हों। पहले यह लड़ाई गांवों और जंगली जानवरों के बीच ही थी, पर अब तो यह शहरों को भी खटखटा चुकी है।

जंगली जानवरों व इंसान के बीच बढ़ती मुठभेड़ दोनों के लिए हानिकारक है। शुरुआती दौर में जंगली जानवर घर, गांव, खेती के ही दुश्मन बने और इसमें भी हालात इतने गंभीर हो गए कि कई गांवों में तो लोगों ने तो खेती ही छोड़ दी, तो कहीं फसलें ही बदल दीं। पहाड़ हो या मैदान, बहुत से इलाकों में फसलों को ही बदलना पड़ा है। इस वजह से लोगों को कई तरह के नुकसानों का सामना करना पड़ा है। कई राज्यों के गांवों की पहली प्राथमिकता बंदर और सुअर को अपने खेतों से भगाने की रही है, क्योंकि पिछले दो दशकों में इस समस्या पर कोई गंभीर पहल नहीं हुई, इसलिए हालात बद-से-बदतर होते गए। मगर अब वन्य क्षेत्रों से सटे ग्रामीण इलाकों को एक नई बड़ी समस्या ने घेरना शुरू कर दिया है और वह है बाघ की आमद।

बाघों ने पिछले कुछ समय से पहाड़ हो या मैदान, हर जगह एक तरह का आक्रामक रुख अपनाया हुआ है। लगभग रोज ही देश के किसी न किसी इलाके से बाघ के हमले की खबर आ रही है। बाघ के आक्रमण लगातार बढ़ रहे हैं। बाघों का यह रुख उनके लिए तो आत्मघाती है ही, आने वाले समय में संपूर्ण पर्यावरण के भी हित में नहीं है।

आज लगता है कि इंसान और बाघ के बीच अपना-अपना इलाका कायम रखने को लेकर एक किस्म की जंग शुरू हो चुकी है। हम इस बात को न भूलें कि पारस्थितिकी तंत्र के तहत पर्यावरण सुरक्षा की एक अहम कड़ी बाघ भी है। पर बाघ बड़ा या आदमी, इसकी बहस शुरू हो चुकी है। वन्य जीव विभाग की रोजी-रोटी तो इनसे ही चलती है तो बाघ बचाने का उनका धर्म स्वत: ही हो जाता है और साथ में जुड जाते हैं कुछ ऐसे शहरी वन्यपे्रमी जिन्हें किसी बाघ ने कभी दुखी न किया हो। फैशन बतौर वन्य प्रेमियों की एक नई पौध सच से अभी काफी दूर है और उन्हें तो बाघ की रूमानी शक्ल घेरे रहती है। और गरीबों के घर, गांव की सुरक्षा से उनका सीधा मतलब भी नहीं है। उनका सरोकार सिर्फ बाघ को बचाने तक ही सीमित है और वे उन परिस्थितियों से दूर हैं, जिनसे बाघ और इंसान के बीच एक संतुलित रिश्ता बन सकता है।

असल में सीधी-सरल बात यह है कि वन्यजीवों के आवास व भोजन का हनन हमने ही तो किया है, तो फिर ये बदला लेने परलोक तो नहीं जाएंगे! और यही हिसाब-किताब का खेल आज वन्यजीवों व इंसान के बीच चल रहा है। वन्यजीवों का जीवन एक खाद्य श्रंखला में चलता है। घास-पत्ते खाने वाले जीवों से लेकर मांसाहारी जीव तक सभी एक पारस्थितिकी संतुलन का हिस्सा हैं। ये भी वनवासी हैं और वो भी ठोस तरह के। जंगल की घास-पत्तियों का आहार लेने वाले खरगोश, हिरन या फिर अन्य शाकाहारी जीव और इन पर आधारित मांसाहारी जीव बाघ, तेंदुआ, शेर आदि सभी इस खाद्य श्रंखला का हिस्सा हैं। वनों के नुकसान या इनमें लगने वाली आग से शाकाहारी वन्य पशुओं की संख्या में कमी आई है और यही कारण है कि बाघ जैसे मांसाहारी पशु अब जंगलों से बाहर निकल अपने भोजन की तलाश मवेशियों व मनुष्य में कर रहे हैं। ऐसे ही हाथी, नीलगाय जैसे शाकाहारी जीव भी भोजन की तलाश में खेतों का रुख करने लगे हैं। पहले वन्य जानवरों की पीढ़ी ने मजबूरी में खेतों की ओर रुख किया, तो अगली पीढ़ी स्वत: ही खेतों में भोजन तलाशने लगी। और अब यह परंपरा का हिस्सा बन चुका हैं। शाकाहारी जीव घास व अन्य पौधों के अभाव में भोजन के लिए खेतो में ही आएंगे और बाघ आहार के लिए मवेशियों और मनुष्यों को निशाना बनाएंगे।

बाघ को बचाने से पहले उसके भोजन की चिंता बड़ी होनी चाहिए। पहले हम उनके लिए भोजन जुटाएं, फिर उनकी संख्या पर ध्यान दें। सही बात तो यह है कि एक बार बाघों की संख्या बढ़ भी जाए, पर उनके भोजन की व्यवस्था का क्या होगा, इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। हमने भौतिक विकास की इस अंधी दौड़ में सिर्फ मनुष्य व उसकी सुविधाओं को ही केंद्र में रखा, बाकी सब भूल गए। हमने अगर वनों के बारे में सोचा भी तो केवल अपने हितों के लिए। हमने वन्यजीव संरक्षण के लिए अभयारण्य व पार्क इत्यादि जरूर बना दिए, पर उनके हालात की कभी गहन समीक्षा नहीं की।

यदि हमें बाघ जैसे जंगली जानवरों को संरक्षित रखने के साथ-साथ इनके प्रकोप से बचना है तो इनके भोजन की भी चिंता करनी होगी। हम अपनी बढ़ती जनसंख्या की खाद्य सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित हैं, पर वन्य जीवों की घटती संख्या और बढ़ती हिंसा के सही कारणों से दूर हैं। इनकी खाद्य सुरक्षा की चिंता का समय सामने है। अगर समय रहते नहीं सोचा गया तो परोक्ष तौर पर हम खुद को ही लगातार असुरक्षित करते जाएंगे, क्योंकि बाघ को भूख लगेगी तो वह घास तो खाएगा नहीं, बल्कि हमें ही खाने आएगा। यह सब बिगड़ते पारिस्थितिकी तंत्र का ही परिणाम है कि जंगली जानवरों की इंसानी बस्तियों में घुसपैठ बढ़ती जा रही है।

(लेखक वरिष्ठ पर्यावरणविद् हैं और संप्रति हिमालयन एनवायरनमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन के निदेशक हैं।)