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भूखे रहने को मजबूर क्यों अन्‍नदाता? - देविंदर शर्मा

पिछले लगातार तीन वर्षों से गेहूं की खेती करने वाले किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 रुपए प्रति क्विंटल की मामूली बढ़ोतरी पाते रहे हैं। यह गेहूं के किसानों को भुगतान किए जा रहे दामों में तकरीबन 3.6 फीसद की बढ़ोतरी को दर्शाता है। यदि इसकी तुलना सितंबर में केंद्रीय कर्मचारियों को दिए गए 7 फीसद अतिरिक्त महंगाई भत्ता से करें तो पता चलता है कि असंगठित क्षेत्र में किसानों की बड़ी आबादी के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि केंद्रीय कर्मचारी वर्तमान में 107 फीसद महंगाई भत्ता पा रहे हैं। यदि और बारीकी से गौर करें तो हम पाते हैं कि जब भी महंगाई भत्ता 50 फीसद को पार कर जाता है तो कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा से संबंधित भत्ता, यात्रा भत्ता, परिवहन भत्ता, नकदी हस्तांतरण भत्ता, जोखिम भत्ता, दूषित जलवायु भत्ता, पहाड़ी इलाकों का भत्ता, दूरस्थ क्षेत्रों का भत्ता, जनजातीय क्षेत्रों में तैनाती का भत्ता समेत दूसरे अन्य तमाम भत्तों में 25 फीसद की स्वाभाविक वृद्धि हो जाती है। सभी कर्मचारियों को ये भत्ते भले न मिलते हों, लेकिन वे इनमें से कुछ भत्तों की सुविधा अवश्य पाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकारी कर्मचारी सभी तरह की महंगाई के मामलों में सुरक्षित होते हैं। निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों को भी एक सुनिश्चित आय का लाभ दिया जाता है, जिसमें ये सभी भत्ते समाहित होते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें आकर्षक बोनस आदि लाभ भी मिलते हैं।

लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि किसानों को भी बच्चों के लिए शिक्षा भत्ता, खराब जलवायु भत्ता अथवा उपरोक्त बताए गए भत्तों में से कोई लाभ दिया गया? किसानों के बारे में यही माना जाता है कि उनके सभी खर्चों, जिसमें बच्चों की शिक्षा, बेटियों की शादी, खराब मौसम आदि शामिल है, यानी सब कुछ न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के माध्यम से उन्हें हासिल हो जाता है। खाद्यान्न् कीमतों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए लगभग सभी सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर नियंत्रण रखती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कीमतों में बढ़ोतरी पर नियंत्रण का पूरा बोझ आसानी से पूरी तरह किसानों पर डाल दिया जाता है। आखिर ऐसा क्यों मान लिया गया है कि मध्य वर्ग को खुश रखने और उनकी भूख मिटाने अथवा खाद्यान्न् आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसानों को अनिवार्य रूप से गरीबी में रहना चाहिए? कोई आश्चर्य नहीं कि देश में 60 करोड़ किसान भूखे पेट सोने को विवश होते हैं।

कई बार संसद को सूचित किया जा चुका है कि औसत रूप से पांच सदस्यों से अधिक लोगों के एक कृषक परिवार की आमदनी महज 2115 रुपए प्रति माह तक सीमित है। इस आमदनी में गैर कृषि गतिविधियों जैसे मनरेगा आदि से 900 रुपए प्रतिमाह की आमदनी भी शामिल है। तमाम राज्यों जिसमें पंजाब और हरियाणा जैसे पहली कतार के कृषि प्रधान राज्य शामिल हैं, में किसानों की प्रतिदिन की आमदनी की तुलना में दिहाड़ी कामगारों की मजदूरी कहीं अधिक है। यह भी कम विचित्र नहीं है कि केंद्रीय सरकारी कर्मचारी संघ अस्थायी अथवा तदर्थ कर्मचारियों या अन्य असंगठित क्षेत्रों के कर्मचारियों के लिए न्यूनतम 15000 रुपए प्रतिमाह मजदूरी की मांग कर रहे हैं। इसी तरह उनकी मांग है कि केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों का न्यूनतम वेतन 26000 रुपए किया जाए।

लेकिन किसानों के लिए प्रति माह न्यूनतम पैकेज अथवा आमदनी की कोई चर्चा नहीं है। क्या देश के 60 करोड़ किसान अस्पृश्य बन गए हैं? इस संबंध में पंजाब के एक पूर्व मुख्यमंत्री रोचक विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि जब किसानों की बात आती है तो संप्रग और राजग सरकार में शायद ही कोई अंतर दिखाई देता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 2004 और 2014 में धान और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में 70 रुपए की वृद्धि की थी, जबकि इससे पहले 1998 से 2004 में पूर्ववर्ती राजग सरकार ने 11 रुपए की वृद्धि की थी। आने वाले समय में किसानों को और अधिक चिंताजनक खबरें सुनने को मिलेंगी। खाद्य मंत्रालय ने राज्य सरकारों को पहले से ही निर्देश दे रखा है कि केंद्र द्वारा घोषित किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर वे किसी तरह का अतिरिक्त बोनस नहीं प्रदान करें। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकारें पिछले कुछ वर्षों से 100 से 200 रुपए प्रति क्विंटल का बोनस देती रही हैं। अब इन्हें भविष्य में ऐसा नहीं करने के लिए कहा गया है। यदि वे ऐसा नहीं करती हैं तो केंद्र इन राज्यों में खाद्यान्न खरीदारी के काम को रोक देगा।

इस संदर्भ में यह कभी नहीं बताया जाता कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का लाभ महज 30 फीसद किसानों को मिल पाता है। गेहूं और चावल के मामले में भारतीय खाद्य निगम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मंडियों से खरीदारी करता है। मंडियों का यह नेटवर्क महज 30 फीसद गेहूं-धान की उपज वाले क्षेत्रों में स्थित है। शेष 70 फीसद उपज क्षेत्रों में कोई मंडी नहीं है, जिससे यहां के किसानों को संकट का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मंडियों और खरीदारी केंद्रों का अभाव है, जिसके चलते किसानों को गेहूं और धान को हरियाणा की सीमा के पास स्थित मंडियों तक अनाज ढोना पड़ता है। हरियाणा की नई भाजपा सरकार ने उत्तर प्रदेश से बिक्री के लिए आने वाले धान की आवाजाही को प्रतिबंधित कर दिया है। इससे उत्तर प्रदेश के किसानों की दुर्दशा बढ़ेगी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि न्यूनतम समर्थन मूल्य अथवा एमएसपी 24 फसलों के लिए घोषित किया जाता है, लेकिन इससे गेहूं और धान के किसानों को ही लाभ होता है।

कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यदि सीधे बाजार को इसमें शामिल किया जाए तो किसानों को लाभ होगा, लेकिन यह कभी नहीं बताया जाता कि भारत के 70 फीसद किसान निजी बाजार पर आश्रित हैं और इन क्षेत्रों में

बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करने को विवश हैं। यदि एमएसपी को खत्म किया जाता है तो बड़ी संख्या में किसान खेती छोड़ शहरों की तरफ पलायन करने लगेंगे। मोदी सरकार को चाहिए कि वह कृषि क्षेत्र के प्रति व्यावहारिक सोच अपनाए। आखिर देश में खेती करना भी 'मेक इन इंडिया" से कम नहीं है।

-लेखक कृषि व खाद्य नीतियों के विश्‍लेषक हैं।