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भूमि अधिग्रहण और आदिवासी

जनसत्ता 1 मई, 2013: आजकल भूमि अधिग्रहण विधेयक की चर्चा जोरों से चल रही है। वन अधिनियम पहले ही पास कराया जा चुका है। ये दोनों ही कदम आदिवासियों के जीवन को प्रभावित करने वाले हैं। जयराम रमेश का मंत्रालय बार-बार बदला जाना एक विडंबना ही है। जब-जब उन्होंने अपने मंत्रालय से कोई जन-भावन कदम उठा कर हस्तक्षेप करना चाहा, उनका मंत्रालय ही बदल दिया गया! चाहे वह वन या पर्यावरण का मामला हो, चाहे भूमि अधिग्रहण का या फिर मलमूत्र ढोने की प्रथा के खात्मे का। इससे सरकार के इसी रवैए का पता चलता है कि वह जन-सरोकारों पर चिंता तो खूब दिखाती है, मगर चिंता का समाधान करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने नहीं देती।


यह तो भला हो सोनिया गांधी का, जिन्होंने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के मसविदे में एक संशोधन तो करवा ही दिया कि निजी उद्योग स्थापित करने के लिए भूमि अधिग्रहण करना हो तो अस्सी प्रतिशत जमीन-मालिकों की सहमति जरूरी है। लेकिन मंत्रिमंडल ने सार्वजनिक और निजी साझेदारी में स्थापित होने वाले उद्योगों के लिए सत्तर प्रतिशत सहमति को ही पर्याप्त समझा। हालांकि पहले इस अधिनियम के मसविदे में यह प्रावधान किया गया था कि निजी कंपनियां खुद जमीन मालिकों से सौदा करेंगी और सरकार को किसी भी निजी परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहीत नहीं करनी होगी। लेकिन लगता है मंत्रिमंडल ने यह सारी सिरदर्दी सिर्फ निजी क्षेत्र को खुश करने के लिए ही अपने सिर पर लेने का फैसला किया।


मूल विधेयक में यह भी प्रावधान था कि अधिग्रहीत किए जाने वाले क्षेत्र में ऐसे भूमिहीन लोगों की भी सहमति ली जाए जिनकी जीविका इस जमीन पर आधारित है। इस प्रावधान को भी मंत्रिमंडल ने मसविदे से हटा दिया। सरकार ने यह भी तय नहीं किया कि संयुक्त क्षेत्र के लिए अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन का मुआवजा कौन कितना देगा। इसे लेकर भी बाद में विवाद पैदा होंगे ही।


प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में अधिसूचित क्षेत्रों या वनभूमि अधिनियम के तहत आने वाली जमीन के अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी तो अनिवार्य की गई है लेकिन सार्वजनिक संस्थाओं या सरकारी परियोजनाओं की खातिर अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन के लिए ग्रामीणों की सहमति की यह शर्त नहीं रखी गई। यहीं पर पेच है। दरअसल यह एक बड़ा मुद््दा है, जिसे सरकार बड़ी चालाकी से विचार के दायरे से बाहर रखने में कामयाब हो गई है। देश की कोयला खदानों के वास्ते खनन के लिए ली जाने वाली जमीन के लिए 1894 का अधिग्रहण अधिनियम लागू ही नहीं होता। वह केवल भवन, सड़क, बांध, हवाई-अड््डे या अन्य उद्योगों और सामुदायिक विकास आदि के लिए ली जाने वाली जमीन के लिए ही लागू होता है। कोयला खनन के लिए तो जमीन केवल कोयला क्षेत्र अधिनियम, 1957 के तहत ही अधिग्रहीत की जा सकती है। इस अधिनियम के तहत सरकार जब चाहे किसी की भी जमीन पुलिस या सेना भेज कर ले सकती है। आज भी यह कानून लागू है।


इस बार भूमि अधिग्रहण के लिए पेश किए गए संशोधन में भी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के संदर्भ में जमीन मालिकों की राय लेना जरूरी नहीं समझा, जबकि सैकड़ों एकड़ जमीन कोयला खदानों के लिए कोयला क्षेत्र अधिनियम, 1957 के तहत ली गई और ली जा रही है, जिसके चलते लाखों आदिवासी और दलित विस्थापित होकर जबरन पलायन करने को मजबूर कर दिए गए हैं। इस बार भी सरकार ने कोयला क्षेत्र अधिनियम, 1957 को छुआ तक नहीं है। यह सर्वविदित है कि जहां-जहां आदिवासी बसे हैं वहां-वहां कोयला और अन्य खनिज हैं। इस अधिनियम से समस्या का कुछ समाधान तो हुआ है, लेकिन पूरा नहीं।


कई खदानों के लिए हजारीबाग जिले में 1963-65 में जमीन ली गई थी, लेकिन उन्हें चालू किया गया 1980 में। खदानें चलाने के बाद मुआवजे की दर 1960-63 के अनुसार ही देने के पेशकश की गई। इसी के विरुद्ध हजारीबाग और गिरिडीह जिलों के किसानों ने, जिनमें अधिकतर आदिवासी और पिछड़े थे, हमारी कोलफील्ड लेबर यूनियन के नेतृत्व में आंदोलन छेड़ दिया था। हजारीबाग और गिरिडीह में अवस्थित खदानों के इर्दगिर्द के विस्थापित किसान हल-बैल लेकर खदानों में घुस गए। दो हजार लोगों ने गिरफ्तारी दी। मैंने जेल से ही सुप्रीम कोर्ट को सारी स्थिति से अवगत कराते हुए एक पत्र लिखा। अखबारों में किसानों की गिरफ्तारी की खबर छपी। सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी की खबर पर स्वत: संज्ञान लेकर इस मुद््दे को याचिका के रूप में स्वीकार कर लिया और कपिल सिब्बल (वर्तमान यूपीए सरकार के मंत्री) को यह मुकदमा लड़ने के लिए सौंप दिया। वे किसानों की तरफ से वकील नियुक्त किए गए थे। शीबा सिब्बल उनकी कनिष्ठ सहयोगी थीं।


सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार, शीबा ने ग्रामीणों से सब सूचनाएं एकत्रित कीं और हजारीबाग और कुजु क्षेत्र में स्थित तेरह खदानों के गिर्द बसे तीन हजार किसानों के दावे दायर किए। दो महीने बाद बिहार सरकार ने मुझ सहित दो हजार किसानों पर से मुकदमे वापस ले लिए। जेल से छूटने के बाद हमने कोल इंडिया द्वारा मजदूरों खासकर महिला कामगारों के लिए शुरू की गई स्वैच्छिक अवकाश योजना और कोल बियरिंग एरिया एक्ट, 1957 के विरुद्घ इस क्षेत्र के किसानों से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करवा दी। दूसरी याचिका मैंने मांडू की विधायक होने के नाते, इन्हीं मुद््दों को लेकर दायर की, जिसमें सीसीएल के साथ-साथ कोल इंडिया को भी पक्षकार बनाया। सुप्रीम कोर्ट ने हमारी याचिका पर स्थगन आदेश देकर, स्वैच्छिक अवकाश   और भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पर रोक लगा दी।


इधर लोक हितकारी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने का प्रचार हो रहा है, तो उधर सरकार खदानों के राष्ट्रीयकरण कानून को पिछले दरवाजे से खत्म करने की मुहिम चला रही है! बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों को कोयले की खदानें देना इसका प्रमाण है। कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण इसलिए किया गया था कि निजी मालिक राष्ट्र की इस मूल्यवान संपत्ति का दोहन अवैज्ञानिक तरीके से करते थे। वे खदानों को सीधा (वर्टिकल) काटते थे और कोयले का अनंत भंडार मिट््टी-पत्थर के नीचे दबा रहने देते थे। जितना नीचे खदान जाती है, कोयले की लागत या उत्पादन-मूल्य उतना ही बढ़ जाता है और खदान चलाने वाले, चाहे वे विदेशी कंपनी के थे या स्थानीय ठेकेदार या कंपनी के देसी मालिक या माफिया, सब तुरंत मुनाफा कमाने के लिए खदानों को अनुत्पादक बना कर छोड़ देते थे। उन्हें फिर से चालू करने के लिए दुगुनी-तिगुनी राशि खर्च करने की जरूरत पड़ती थी। 1965-1970 के बीच सरकारी पेशकश के बावजूद, कोयला खदानों के मालिक खदानों को वैज्ञानिक तरीके से चलाने के लिए अतिरिक्त धन निवेश करने को तैयार नहीं थे।


दूसरा बड़ा कारण था कोयला खदानों के माफिया और ठेकेदारों के माध्यम से, खासकर धनबाद में एकत्रित धन से, बिहार की सरकारों को अस्थिर करना। उन दिनों सरकार कांग्रेस की ही होती थी। कांगे्रस के मंत्री और मुख्यमंत्री बदलने के लिए हर छह महीने बाद इस पैसे के बल पर कोई न कोई मुहिम शुरू हो जाती थी। कोकिंग कोल का राष्ट्रीयकरण कर धनबाद में बीसीसीएल बनाने के यही दो मुख्य कारण थे। इस्पात संयंत्रों और कई ऊर्जा परियोजनाओं के लिए भारत में कोयला ही एकमात्र स्रोत था। संयंत्रों का चलना जरूरी था। इसलिए राष्ट्रीयकरण हुआ। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि उसे खत्म किया जा रहा है?
सरकार जो कानून पास करने की योजना बना रही है उससे कुछ राहत तो जरूर मिलेगी, लेकिन किसानों, आदिवासियों और दलितों को पूरा न्याय देने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। आज भी स्थानीय समुदाय, विशेष रूप से आदिवासी आबादी विस्थापन ही नहीं बहु-विस्थापन झेल रही है।


अधिकतर कोयला क्षेत्र आदिवासी बहुल हैं। अब भी इन क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची लागू नहीं की गई है। इन दोनों प्रावधानों के तहत राज्यपाल को हस्तक्षेप करने का अधिकार है। सरकार ने वनभूमि अधिनियम या अनुसूची के तहत आने वाली जमीन के अधिग्रहण के लिए केवल ग्राम-सभा की मंजूरी को अनिवार्य माना है। वनों में बसने वालों की सहमति लेना आवश्यक नहीं माना। वन अधिनियम के कई प्रावधान विवादित हैं और उनके चलते वनों में निवास करने वालों के लिए दावे दायर करना या फिर उनके दावों को मंजूरी मिल पाना बहुत मुश्किल हो गया है।


जमीन पर मिल्कियत का दावा करने वाले गैर-आदिवासियों या अन्य परंपरागत निवासियों के लिए सरकार ने पचहत्तर वर्षों से उस जमीन पर निवास के प्रमाण देने की शर्त रखी है। इससे भी कठिनाइयां आ रही हैं और उनके दावे अस्वीकृत हो गए हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आदिवासियों के दावे अस्वीकृत होने की दर काफी ऊंची है। सरकार ने अलग से आदिवासियों के अस्वीकृत दावों की संख्या नहीं दर्शाई। पर उसने यह स्वीकार किया है कि कुल दावों में से साठ प्रतिशत नकार दिए गए हैं।


यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस और भाजपा के शासन वाले राज्यों में दायर दावों की संख्या काफी कम है। कांग्रेस शासित राज्यों में स्वीकृत दावे आंध्र प्रदेश में इक्यावन फीसद, महाराष्ट्र में उनतीस फीसद और राजस्थान में पचास फीसद हैं। जबकि भाजपा शासित राज्यों की स्थिति इस संदर्भ में काफी बदतर है। छत्तीसगढ़ में चौवालीस प्रतिशत, मध्यप्रदेश में साढ़े छत्तीस प्रतिशत और गुजरात में बीस प्रतिशत दावे ही स्वीकृत किए गए हैं। हालांकि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी अच्छी-खासी है। जबकि वामशासित राज्यों में स्थिति इससे बेहतर है। त्रिपुरा में पैंसठ प्रतिशत दावे स्वीकृत किए गए हैं। केरल में यह आंकड़ा बासठ प्रतिशत है जहां वाम मोर्चा की सरकार थी।


वन अधिनियम के तहत तो आदिवासियों की जमीन लेनी ही नहीं चाहिए, चूंकि यह जमीन पांचवीं अनुसूची में आती हैं। भू-अर्जन अधिनियम पांचवीं अनुसूची को भी नजरअंदाज करता है। ऐसी जमीन जो पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत हैं, उस पर भी धड़ल्ले से करार किए जा रहे हैं। फलत: भारी संख्या में आदिवासी विस्थापन का दंश झेलने को अभिशप्त हैं।


वनों में रहने वाले आदिवासियों की जमीन जहां पांचवीं अनुसूची में आती है वहीं वन अधिनियम के तहत भी। सरकार ने इस जमीन की बाबत आदिवासियों की सहमति की शर्त नहीं रखी। यह एक प्रकार से आदिवासियों को पांचवीं अनुसूची में दिए गए उनके अधिकारों से वंचित रखना है। जंगल सीमांकन के विवाद अलग से आदिवासियों को आतंकित किए रहते हैं।