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भूमि-अधिग्रहण पर महाभारत- दिनेश त्रिवेदी

वर्ष 1989 में जब वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार सत्ता में आई थी तो उससे काफी उम्मीदें थीं। सरकार से आम लोगों की बहुत सारी अपेक्षाएं जुडी थीं। सामान्य धारणा यही थी कि वह लंबे अरसे तक सत्ता में बनी रहेगी, लेकिन यह सपना एक वर्ष में ही बिखरने लगा। मंडल आयोग का मुद्दा राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के लिए वाटरलू साबित हुआ और अंतत: सरकार धराशायी हो गई। 10 महीने पहले जब राजग सरकार की सत्ता में वापसी हुई थी तो एक बार फिर धारणा यही बनी कि यह सरकार एक लंबे समय तक बरकरार रहेगी। उस समय कोई यह कल्पना भी नहीं कर सका कि केंद्रीय सत्ता के इतने निकट स्थित दिल्ली राज्य के विधानसभा चुनावों में इस तरह के नतीजे सामने आएंगे। किसी भी सत्ताधारी राजनीतिक दल के लिए कोई एक मुद्दा निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे के मामले में हुआ। नंदीग्राम और सिंगुर में तत्कालीन सरकार द्वारा किसानों की जमीन का जबरन अधिग्रहण करने तथा ममता बनर्जी के नेतृत्व में उसके विरोध में चलाए गए शक्तिशाली जनांदोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन सरकार 2011 के विधानसभा चुनावों में पराजित हुई और 34 वर्षों से चले आ रहे वाम राज का अंत हुआ।

अध्यादेश के रूप में वर्तमान भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक में भी वे सभी संभावनाएं निहित हैं, जो केंद्र की भाजपा सरकार के लिए वाटरलू साबित हो सकती हैं। इस विधेयक ने न केवल बंटे हुए विपक्ष को एकजुट कर दिया है, बल्कि सत्ताधारी पार्टी के कुछ सांसदों और उसके अपने घटक दलों के बीच भी दरार पैदा करने का काम किया है। विशेषकर उन लोगों में, जो ग्रामीण क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कोई भी इस बात से शायद ही इंकार कर सके कि सार्वजनिक हित की विभिन्न् परियोजनाओं के लिए जमीन की आवश्यकता है। लेकिन लोकतंत्र में साध्य ही नहीं, बल्कि साधन भी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए बनाए जाने वाले कानून की निर्माण प्रक्रिया भी लोकतांत्रिक होनी चाहिए। वर्तमान मामले में एलएआरआर बिल अथवा भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना विधेयक को शीत सत्र के तत्काल बाद अध्यादेश के रूप में लाया गया, जिसकी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी आलोचना की। उन्होंने कहा कि जब संसद बिना किसी विचार-विमर्श के कोई कानून बनाती है तो यह उन लोगों के विश्वास का हनन है, जिन्होंने उस पर अपना भरोसा जताया है।

वर्ष 2014 में पूर्व विधायी परामर्श नीति मसले पर सचिवों की समिति ने निर्णय लिया था कि प्रत्येक मंत्रालय अनिवार्य रूप से प्रस्तावित विधेयकों के प्रारूप को सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित करेगा, जिसमें विधेयक के अत्यावश्यक प्रावधानों को भी शामिल किया जाएगा। इसमें व्यापक वित्तीय प्रभावों, पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन, लोगों के मौलिक अधिकारों तथा प्रभावित लोगों के जीवन और आजीविका पर भी प्रकाश डाला जाएगा। यह भी निर्णय लिया गया था कि सभी संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श किया जाएगा। और यह सब किसी भी विधेयक के प्रारूप को अंतिम रूप से संसद में पेश करने से पहले किया जाएगा। वर्तमान भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में भी न तो किसानों और भूस्वामियों से बात की गई और न ही प्रभावित होने वाले परिवारों से रायशुमारी की गई। इस विधेयक को मूर्त रूप देने से पूर्व आम चर्चा से भी बचा गया और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित पक्षों को बातचीत की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया।

यह विधेयक भाजपा के घोषणापत्र के भी विरुद्ध है, क्योंकि इसमें कहा गया है कि भाजपा राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति बनाएगी, जिसमें किसानों के हितों को संरक्षित किया जाएगा। और यह भी कि वह कृषि योग्य जमीन का औद्योगिक या व्यापारिक परियोजनाओं अथवा सेज के लिए अधिग्रहण नहीं होने देगी। सेज अथवा विशेष आर्थिक क्षेत्र का पूरा मुद्दा और औद्योगिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण कृषि क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा तथा कोशिश की जाएगी कि खाद्यान्न् उत्पादन में वृद्धि हो। लेकिन भूमि अधिग्रहण पर विधेयक लाकर सरकार न केवल अपने घोषणापत्र के खिलाफ चली गई, बल्कि उसने कानून मंत्रालय की उस सलाह को भी नजरअंदाज कर दिया, जिसमें उसने नया विधेयक लाने से पहले तमाम संबंधित पक्षों से बातचीत की सलाह दी थी। यह अलोकतांत्रिक है। चीनी मॉडल भारत में काम नहीं कर सकता।

विधेयक की बात करें तो इसके प्रावधान विवादपूर्ण हैं। एक प्रमुख प्रावधान है कि भूमि अधिग्रहण से पहले प्रभावित परिवार की सहमति की जरूरत नहीं है। यह तो भूमि अधिग्रहण के बजाय भूमि हड़पना हुआ। कोई व्यवहार तब तक न्यायपूर्ण कैसे हो सकता है, जब तक कि एक पक्ष की बात भी न सुनी जाए। इस मामले में तो न केवल किसानों, बल्कि जमीन पर निर्भर कामगारों का पक्ष भी सुना जाना चाहिए। इस प्रावधान से सरकार सत्ता की दबंगई से किसानों के अधिकारों को कुचलना चाहती है।

भारत में अमीर और शक्तिशाली लोगों का गुट बड़ा मजबूत है। जब किसी की जमीन लेने की बात आती है तो यह गुट बड़ा उदार हो जाता है। किंतु जब इनकी जमीन पर आंच आती है, तो वे उसे छोड़ना नहीं चाहते। दिल्ली गोल्फ क्लब का ही उदाहरण देखें। यह जमीन केंद्र सरकार की है। सरकार इस पर एम्स अस्पताल बनाना चाहती है, किंतु पूरा जोर लगाने के बाद भी क्या वह कामयाब हो पाएगी? वास्तव में भारतीय लोकतंत्र इस सिद्धांत पर चल रहा है कि वोट गरीब का और शासन अमीर का।

नए विधेयक से भूमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभावों के अध्ययन का प्रावधान भी हटा लिया गया है। इस अध्ययन में भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या, उनके जीविकोपार्जन पर पड़ने वाले असर आदि का आकलन किया जाता है। अगर इन बातों पर विचार ही नहीं किया जाएगा तो प्रभावितों के पुनर्वास और पुनर्स्थापना की योजना कैसे तैयार की जा सकती है? इसके अलावा विधेयक बहुफसली सिंचित भू्मि के अधिग्रहण को भी हरी झंडी देता है। इससे तो देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी!

जहां तक भूमि अधिग्रहण का सवाल है, हमें यह पूछना चाहिए कि हमने खुद को इस स्थिति में कैसे फंसा लिया। पहले भी विभिन्न सरकारें जमीनों का अधिग्रहण करती रही हैं। कभी कोई परेशानी नहीं आई। किसानों को सबसे कटु अनुभव हुआ है सेज के लिए भूमि छीन लिए जाने पर। पूंजीपतियों ने अपना साम्राज्य खड़ा करने के लिए गरीब किसानों की जमीन हड़प ली है। जमीन जैसे मुद्दे पर लोगों की याददाश्त बड़ी तेज होती है। हम कैसे भूल सकते हैं कि महाभारत का युद्ध जमीन के मुद्दे पर ही हुआ था। जब श्रीकृष्ण ने पांडवों के लिए कुल पांच गांव मांगे तो दुर्योधन ने सुई की नोंक के बराबर जमीन देने से भी इंकार कर दिया था। कौरवों के अहंकार के कारण यह महायुद्ध हुआ, जिसमें कोई भी विजेता नहीं था। दोनों पक्ष हारे थे। कितना विचित्र है कि महाभारत की भूमि पर ही हम इस महान ग्रंथ से कोई सीख नहीं ले रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि दूसरा महाभारत न छिड़े। इसमें कोई नहीं जीतेगा और सबसे बड़ी हार तो देश की होगी।