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भेदभाव का यंत्र नहीं मोबाइल- नीलांजन मुखोपाध्याय

करीब बीस वर्ष पहले की बात है। तब के केंद्रीय संचार मंत्री ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को हाथ से पकड़ने वाले एक यंत्र से फोन किया। बसु ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में उसी तरह से हाथ में पकड़ने वाले यंत्र से संचार मंत्री की बातें सुनीं। आखिर इस बातचीत में खास क्या था? असल में, दोनों व्यक्ति जिस यंत्र से बात कर रहे थे, वह न तो किसी तार से जुड़ा था, और न ही वह किसी बेस फोन से जुड़ा कॉर्डलेस था। दोनों पहली बार मोबाइल से बात कर रहे थे, जिसे वे अपने शहर के किसी भी हिस्से में ले जा सकते थे। सुखराम ने नई दिल्ली स्थित संचार भवन से कोलकाता फोन किया था, जबकि बसु राइटर्स बिल्डिंग के अपने कार्यालय में बैठे थे। तब अधिकांश लोगों के लिए मोबाइल फोन परिकथाओं जैसी कोई चीज था। मुख्यतः दो वजहों से लोग मान रहे थे कि मोबाइल जल्दी ही इतिहास के पन्नों में शामिल हो जाएगा। पहली वजह यह थी कि दूरसंचार क्रांति लाने वाली एसटीडी सुविधा को भारत में आए करीब एक दशक या उससे ज्यादा हो गए थे, इसके बावजूद बड़े शहरों तक में उसकी लोकप्रियता नहीं थी। इसलिए अनेक लोग मानते थे कि संचार के जनमाध्यम के रूप में मोबाइल शायद ही सफल होगा।

दूसरी वजह, इसके इस्तेमाल में आना वाला खर्च था। उस समय मोबाइल की कीमत कम से कम बीस हजार रुपये के आसपास थी और कॉल की दरें (तब इनकमिंग फ्री नहीं थी, इसलिए आने और जाने, दोनों ही स्थिति में उपभोक्ता को भुगतान करना होता था) भी काफी ज्यादा थीं। इतना ही नहीं, तब मोबाइल काफी बड़े-बड़े होते थे, अधिकतर में एंटीना लगा होता था, और उन्हें साथ लेकर चलना भद्दा दिखता था। बावजूद इसके यह यंत्र प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रतीक बना और लोग पार्टियों में या भीड़-भाड़ में अपनी उपस्थिति जताने के लिए मोबाइल हाथ में लहराने लगे। यानी मोबाइल के आगमन के साथ ही उपभोक्तावाद की समस्या सांस्थानिक रूप लेने लगी। यों कहें, कि दिखावे की प्रवृत्ति सिर्फ घरेलू महिलाओं तक ही सीमित नहीं रही है, जो नए किचेन सेट या नई टीवी, फ्रिज या नई कार की खरीदारी पर उत्साहित होती हैं। बहरहाल, शुरुआत में अगर मोबाइल संपन्न लोगों के लिए अपनी संपन्नता दिखाने का एक माध्यम था, वहीं जब इसकी कीमतें गिरीं, तो चर्चाएं हैंडसेट की किस्में और उनकी खूबियों पर होने लगीं। हाल के वर्षों में तकनीक ने प्रतिस्पर्धा को और भी नए आयाम पर पहुंचा दिया है। अब हम इसके पीछे भागते हैं कि कौन-सा मोबाइल हमें नया ऐप देता है। मैं यहां एक छोटी-सी बात स्वीकार करना चाहता हूं। पिछले चौदह वर्षों में, जबसे मैं 'मोबाइल क्लब' का सदस्य बना हूं, मैंने कभी अपने मोबाइल के सारे ऐप इस्तेमाल नहीं किए। ऐसा मत समझिए कि तकनीक के उपयोग में मैं कमजोर हूं। नहीं! मैं तकनीक के साथ निष्पक्ष तरीके से काम करता हूं।

खैर, इसमें दोराय नहीं कि मोबाइल उद्योग राष्ट्र या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बड़ा वाहक बन गया है। ऐसी दुनिया में, जहां खपत आवश्यकता या जरूरत से जुड़ी हुई नहीं है, वहां मोबाइल फोन उपभोग का ऐसा प्रतीक बन गया है, जिससे सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन किया जाता है। इसमें भी शंका नहीं है कि मोबाइल फोन ने जीवन को काफी सरल बनाया है। इसने हमें अधिक सुरक्षित और सशक्त भी बनाया है। कुछ वर्ष पहले, मैंने एक टेलीविजन डिबेट शो (बहस से संबंधित कार्यक्रम) प्रस्तुत किया था। शो का विषय था, मोबाइल ने आखिर किस तरह हाशिये के लोगों को सशक्त बनाया। चर्चा के दौरान, एक विशेषज्ञ ने एक पर्यटन स्थल का वाकया सुनाया। उन्होंने कहा कि वह ट्रैफिक लाइट पर भीख मांग रहे एक व्यक्ति से बात कर ही रहे थे कि उसके गंदे थैले में रखा मोबाइल बज उठा। फोन उसके किसी सहयोगी का था, जो अगली गली या अगले चौराहे पर था। वह मोबाइल के जरिये अपने दोस्त को अपने पास बुला रहा था। उसका कहना था कि वह जहां है, वहां भारी भीड़ है, इसलिए अच्छी कमाई होने की उसे काफी उम्मीद है!

बहरहाल, हाल के आंकड़े बताते हैं कि भारत एक अरब मोबाइल उपभोक्ताओं वाला देश बनने वाला है। करीब एक दशक पहले फ्री इनकमिंग की सुविधा मिलने के बाद मोबाइल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। हालांकि 'मिस्ड कॉल' पूरी तरह से भारतीयों की संकल्पना है और एक तरह से यह वर्चुअल मोबाइल विजिटिंग कार्ड बन गई है। उदाहरण के लिए, घर से बाहर निकलने वाले बच्चों को उसके माता-पिता कहते हैं कि अपने गंतव्य पर पहुंचकर वे उन्हें मिस्ड कॉल दे दें। राजनीतिक दलों, सरकारों, अभियान-प्रबंधकों (कैंपेन मैनेजरों) और अनेक लोगों द्वारा अपने अभियान को गति देने के लिए भी इसे प्रयोग में लाया जाता है। लेकिन मोबाइल के अधिक से अधिक व्यावसायिक इस्तेमाल की इस दौड़ में उन लोगों को भी याद रखने की जरूरत है, जिनके लिए यह मात्र अपने प्रिय या करीबियों से बातचीत का एक माध्यम है, और इसलिए वे पुरानी तरह के हैंडसेट का ही इस्तेमाल करते हैं।

निश्चित तौर पर आज के दौर में प्रौद्योगिकी हमें सशक्त बनाने का बहुत बड़ा हथियार है, मगर इसे मानवीय होना चाहिए और असमानता फैलाने वाला नया यंत्र नहीं बनने देना चाहिए। मोबाइल की दुनिया को स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले और न करने वाले लोगों में नहीं बांटा जा सकता। यह ऐसा उपकरण नहीं है, जो तय करे कि कौन स्मार्ट है और कौन नहीं। भारत में मोबाइल की शुरुआत की बीसवीं वर्षगांठ पर यह हम सबको याद रखना चाहिए कि जो प्रौद्योगिकी का गुलाम बनता है, वह अंततः विफल होता है। जबकि सफलता उसे मिलेगी, जो प्रौद्योगिकी को अपना गुलाम बनाएगा।

वरिष्ठ पत्रकार और नरेंद्र मोदी- द मैन, द टाइम्स के लेखक