Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/भ्रष्टाचार-और-प्रदूषण-का-खनन-रामचंद्र-गुहा-10621.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | भ्रष्टाचार और प्रदूषण का खनन-- रामचंद्र गुहा | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

भ्रष्टाचार और प्रदूषण का खनन-- रामचंद्र गुहा

जब नई सदी की शुरुआत हुई, तो मेरे गृह राज्य कर्नाटक में आर्थिक उदारीकरण के ‘पोस्टर बॉय' थे- एन आर नारायण मूर्ति। मध्यवर्गीय परिवार से निकले इस शख्स के पास उद्यमशीलता का कोई पारिवारिक अनुभव नहीं था। नारायण मूर्ति ने अपनी जैसी सोच वाले छह अन्य लोगों को जोड़ा और इन्फोसिस की नींव रखी।

बहुत मामूली शुरुआत हुई थी इसकी, मगर साल 2000 तक इस कंपनी का मुख्यालय न सिर्फ बेंगलुरु के एक आलीशान कैंपस में था, बल्कि देश-दुनिया के कई शहरों में इसके ऑफिस भी खुल चुके थे। हजारों कुशल इंजीनियर इसमें काम कर रहे थे, नेसडेक (अमेरिकी शेयर मार्केट) में यह लिस्टेड थी और अरबों डॉलर का कारोबार कर रही थी।

इन्फोसिस की सराहना सिर्फ इसलिए नहीं हुई कि इसका कारोबार देश-दुनिया में फैला था या यह ज्यादा मुनाफा कमा रही थी। असल में, यह एक ज्ञान-आधारित कंपनी थी, जो कुशल इंजीनियरों की मदद से वैश्विक अर्थव्यवस्था के अवसरों से लाभ उठा रही थी। इसके संस्थापक बहुत साधारण जीवन जीते थे और उत्तर या पश्चिमी भारत के धनकुबेर उद्योगपतियों से बिल्कुल अलग थे। और वे कंजूस भी नहीं थे, क्योंकि सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को पर्याप्त दान दे रहे थे।

उस वक्त उन्हें अगर कोई टक्कर दे रहा था, तो वह थे अजीम प्रेमजी। प्रेमजी ने भी उद्यमशीलता में लंबी दौड़ लगाई और उनकी सॉफ्टवेयर कंपनी को देश-दुनिया में सम्मान मिला, जिसका मुख्यालय बेंगलुरु में है। उन्होंने भी साधारण जीवन जिया है और सामाजिक कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक योगदान दिया है।

नारायण मूर्ति और प्रेमजी जैसे लोगों ने कर्नाटक और भारत का नाम रोशन किया है। और साथ ही, बाजारवादी आर्थिक विकास की संकल्पना को भी साकार किया है। हालांकि, दशकों से हमारे देश में ‘पूंजीवाद' एक ऐसा शब्द माना जाता रहा है, जिसका लक्ष्य संदिग्ध है। लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे दो नेता, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी पूंजीपतियों को शक की निगाह से देखते थे और चाहते थे कि अर्थव्यवस्था पर राज्य का नियंत्रण रहे। दोनों ने खुद को ‘समाजवादी' कहा। 40 से ज्यादा वर्षों तक ‘समाजवादी' अर्थव्यवस्था बने रहने के बाद 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की ओर कदम बढ़ाए। उन्होंने लाइसेंस-परमिट-कोटा राज को खत्म करना शुरू किया और कंपनियों के बीच प्रतिस्पद्र्धा बढ़ाने पर जोर दिया। उसी वक्त उन्होंने तमाम आपत्तियों को दरकिनार करते हुए दुनिया के लिए देश के दरवाजे खोल दिए। विप्रो और इन्फोसिस जैसी कंपनियों की सफलता आर्थिक नीतियों में उस क्रांतिकारी बदलाव से ही संभव हो सकी।

जब नई सदी की शुरुआत हुई, तो कर्नाटक में हम लोगों के लिए उदारीकरण का अर्थ था संरचनात्मक, रचनात्मक, दूरंदेशी और सामाजिक रूप से जिम्मेदार। मगर पहले दशक के खत्म होते-होते ये तमाम चीजें बदल गईं। अब चर्चा बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं की शुरू हो चुकी थी। विप्रो और इन्फोसिस के उलट रेड्डी बंधु अपने राजनीतिक रसूख के कारण समृद्ध हुए। जहां सॉफ्टवेयर कंपनियों ने कानून का पालन किया, वहीं इन ‘खनन कारोबारियों' ने कानून का उल्लंघन किया। जहां प्रेमजी और नारायण मूर्ति साधारण जीवन जीने में विश्वास रखते थे, वहीं ये खनन आका महंगे आभूषण पहनते और बेशकीमती गाड़ियों में घूमते थे। अप्रैल, 2010 में मर्सिडीज बेंज ने तो अपनी लग्जरी गाड़ियों का स्पेशल शो बेल्लारी में आयोजित किया था।

बेल्लारी के इन खदान मालिकों ने न सिर्फ कर्नाटक और भारत की छवि को धक्का पहुंचाया, बल्कि ‘पूंजीवाद' को भी दागदार किया, जिसका नाम आज पक्षपात, भ्रष्टाचार, हिंसा और कानून-उल्लंघन जैसे शब्दों से जुड़ गया है। दुर्भाग्य से, कर्नाटक इस मामले में अपवाद नहीं है। जहां-जहां खनन से समृद्धि आई, वहां लोकतंत्र कमजोर हुआ है। देश भर की यात्रा के बाद यहां मैं खनन के छह प्रभावों से आपको रूबरू कराता हूं।

पहला, खदानों पर अधिकार राज्य का होता है, इसलिए तकनीकी साख वाले लोगों की बजाय आमतौर पर उन्हें पट्टा दिया जाता है, जो नेताओं के करीबी होते हैं। इससे कारोबारियों और नेताओं के बीच एक नापाक गठजोड़ बनता है। गैर-कानूनी सौदों के लिए बेहिसाब रुपये खर्च किए जाते हैं। दूसरा, खनन कंपनियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है, लिहाजा वे न तो पर्यावरण का ख्याल करती हैं और न ही श्रम-नियमों का पालन। दूसरे राज्यों से मजदूर मंगाए जाते हैं, जो इतने संगठित भी नहीं होते कि काम के माहौल या अपने रहने-खाने की बेहतर व्यवस्था की मांग कर सकें। ऐसा नहीं है कि स्थानीय प्रशासन को इसकी जानकारी नहीं होती, मगर खनन मालिकों की मंत्रियों, यहां तक कि मुख्यमंत्री तक पहुंच को देखते हुए वे इसकी अनदेखी करते हैं।

तीसरा, खनन को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश का अभाव है, लिहाजा जैसे ही कच्ची धातुओं की कीमतें बढ़ती हैं, उनका खनन तेज कर दिया जाता है। जाहिर है, इससे हुआ फायदा खनन-मालिकों और राजनेताओं, दोनों में बंटता है। चौथा, खनन में नियमों की पर्याप्त अनदेखी होती है, लिहाजा खनन से पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचता है। जंगल काटे जाते हैं, नदियां व झरनें प्रदूषित होते हैं और कृषि-योग्य भूमि की पैदावार खत्म हो जाती है। वन्य-जीवन और जैव-विविधता पर यह बुरा असर तो डालता ही है, उन पर टिकी स्थानीय ग्रामीणों की अर्थव्यवस्था को भी इससे चोट पहुंचती है। पांचवां, खदानों के आसपास की आबादी इससे बुरी तरह प्रभावित होती है, इसलिए उनमें खनन उद्योग के प्रति असंतोष बढ़ता है।

यह महज संयोग नहीं है कि ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में, जहां कर्नाटक की तरह खनन में ‘तेजी' आई, नक्सली इतने अधिक सक्रिय हैं। और छठा, जब कमोडिटी की कीमतें बढ़ती हैं, तो बहुत कम समय में ही खनन से भारी मुनाफा होता है, लिहाजा असंतोष का कोई भी स्वर दबा दिया जाता है। नतीजतन, छत्तीसगढ़ में ‘सलवा जुड़ूम' जैसे कुख्यात गुट का उदय होता है, तो बेल्लारी में खनन माफियाओं का राज्य पुलिस पर प्रभाव दिखता है। इन इलाकों से स्वतंत्र व निष्पक्ष रिपोर्टिंग लगभग असंभव है। छत्तीसगढ़ में जहां सरकारी नीतियों पर सवाल उठाने वाले पत्रकार या शिक्षाविद जेल में डाल दिए जाते हैं, तो वहीं बेल्लारी में खनन माफिया इतने ताकतवर हैं कि अपने नियंत्रण वाले क्षेत्र में किसी को घुसने तक नहीं देते। बस्तर और बेल्लारी जैसी जगहों पर कायम अपराध व अराजकता दरअसल भारत के ‘सबसे बड़े लोकतंत्र' होने के दावे से मेल नहीं खाती।

ये खनन जिले 21वीं सदी की आधुनिकता से भी कोसों दूर हैं। 20वीं सदी के पहले दशक में दुनिया भर के बाजारों में कमोडिटी में दिखी तेजी ने भारत में खनन उद्योग को पंख दिए हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की अदूरदर्शिता से इसको खूब फायदा हुआ- कौड़ियों के भाव खदान देने से लेकर उनकी तमाम गड़बड़ियों पर आंखें मूंदने तक। जवाब में यह उद्योग देश भर में तबाही के निशान छोड़ रहा है। मैं यहां खनन-क्षेत्र पर राष्ट्र के नियंत्रण की वकालत नहीं कर रहा, न ही खनन को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने की मांग कर रहा हूं। मैं तो बस उन नुकसानों की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूं, जो अनियंत्रित व गैर-कानूनी खनन की देन हैं। बेशक अभी वैश्विक बाजार में कमोडिटी की मांग कम है, मगर भारत के लोगों पर, यहां के पर्यावरण पर और लोकतंत्र पर खनन का हमला जारी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)