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भ्रष्टाचार से लाचार लोकतंत्र!-- चंदन श्रीवास्तव

भ्रष्टाचार की बातें तो बहुत हैं, लेकिन शिकायतें बड़ी ही कम हैं! अब इस उलटबांसी की व्याख्या कैसे हो? क्या हम यह मान लें कि चलो फिर से इस नियम की पुष्टी हुई कि भारत विरोधाभासों का देश है?

सार्वजनिक जीवन में नजर आनेवाला विरोधाभास दोहरा अर्थ-संकेत होता है. उसका एक इंगित है कि हमारा तंत्र पाखंड से भरा है और दूसरा इंगित कि अन्याय आठो पहर आंखों के आगे मौजूद है, लेकिन हम उसके प्रतिकार में असमर्थ हैं. अन्याय से आंख चुराते हुए जीयें और ऐसा जीवन नैतिक गरिमा से हीन भी ना जान पड़े, इसकी भी तरकीब ढूंढ़ रखी है हमने. सार्वजनकि जीवन के अन्याय को ढांपने के लिए हम उसे सहनशीलता के चश्मे से देखते हैं. फिर, विरोधाभास अन्याय की सूचना नहीं रह जाते, वे सहिष्णुता के मूल्य के प्रतीक बन जाते हैं.

भ्रष्टाचार की समस्या के साथ हमारा बरताव कुछ ऐसा ही है.

आये दिन खबर बनती है कि ज्यादातर भारतीय अपने को भ्रष्टाचार का सताया हुआ मानते हैं. इस मान्यता की पुष्टी करते सर्वेक्षण आते हैं. मिसाल के लिए ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सालाना प्रकाशन करप्शन परसेप्शन इंडेक्स (सीपीआइ) को ही लें. इस संस्था ने भ्रष्टाचार की एक सरल परिभाषा बनायी है कि जब कोई अपने ओहदे (सरकारी) का दुरुपयोग निजी लाभ के लिए करे, तो इसे भ्रष्टाचार माना जायेगा. लोगों की राय और विशेषज्ञों के आकलन के आधार पर संस्था एक सूचकांक बनाती है.

सबसे कम (शून्य) अंक हासिल करनेवाले देश को सबसे भ्रष्ट और ज्यादा (100) अंक हासिल करनेवाले देश को सार्वजनिक बरताव के मामले में सबसे ‘पाक-साफ' करार दिया जाता है. संस्था की 2015 की रिपोर्ट में भारत 38 अंकमान के साथ 168 देशों के बीच 76वें स्थान पर है यानी भूटान , चिली, घाना , जॉर्डन , नामीबिया, पनामा और रवांडा जैसे डावांडोल लोकतंत्र का सीपीआइ पर दर्जा भारत से बेहतर है.

सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार ज्यादा है, तो मान सकते हैं कि इसकी शिकायतें भी ज्यादा होंगी. लेकिन, सच्चाई इसके एकदम उलट है. हाल में मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत संगठन कॉमनवेल्थ ह्युमनराइटस् इनिशिएटिव (सीएचआरआइ) ने नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के पंद्रह साल के आंकड़ों का अध्ययन किया, तो चौंकानेवाले तथ्य सामने आये. ऐसा एक तथ्य यह है कि बीते पंद्रह सालों (2001-2015) के बीच देश के 29 राज्यों और 7 संघशासित प्रदेशों में भ्रष्टाचार के केवल 54,139 मामले दर्ज हुए.

यह संख्या पंद्रह सालों में घूस देने की बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार करनेवाले लोगों की तुलना में आधी से भी कम है. लोकप्रिय वेबसाइट ‘आइ पेड ब्राइव' पर इस अवधि में तकरीबन सवा लाख लोगों ने यह स्वीकार किया है कि उन्हें किसी-ना-किसी काम के लिए सरकारी संस्था के अधिकारियों-कर्मचारियों को घूस देनी पड़ी. घूस देने को मजबूर लोगों की संख्या इससे भी ज्यादा हो सकती है, क्योंकि हर किसी के पास अपनी मजबूरी को सार्वजनिक रूप से दर्ज करने की हिम्मत या सहूलियत एक जैसी नहीं होती. ठीक यही बात भ्रष्टाचार की रपट लिखानेवालों पर भी लागू होती है.

तो भी, यह तो माना ही जा सकता है कि भ्रष्टाचार की व्याप्ति और उसके प्रतिकार में लिखायी गयी रपट की संख्या के बीच अंतर बहुत बड़ा है.

अंतर की एक बड़ी वजह लोगों में असहाय होने की भावना में छुपी हो सकती है. अगर इंसाफ मिलने की उम्मीद बहुत कम हो या फरियाद की सुनवाई बहुत देर से हो, तो लोगों में असहाय होने की भावना पनपेगी ही. सीएचआरआइ का आकलन कुछ ऐसे ही इशारे करता है. भ्रष्टाचार के दर्ज ज्यादातर मामले कोर्ट नहीं पहुंच पाते और दोषसिद्धि की दर भी बहुत कम है.

पंद्रह सालों में भ्रष्टाचार के कुल दर्ज 54,139 मामलों में 29,920 यानी केवल 55 फीसदी मामलों में अदालती सुनवाई पूरी हुई है और भ्रष्टाचार के दर्ज प्रत्येक 100 मामलों में औसतन केवल 19 मामलों में आरोपित पर दोष सिद्ध किया जा सका. गोवा, मणिपुर और त्रिपुरा में भ्रष्टाचार के शत-प्रतिशत आरोपित सबूत के अभाव में बरी करार दिये गये. इन राज्यों में भ्रष्टाचार के कुल 30 आरोपितों में किसी को सजा नहीं हुई.

हर भ्रष्टाचार के आखिरी सिरे पर कोई ना कोई मजबूर व्यक्ति होता है. हर भ्रष्टाचार इस व्यक्ति को हासिल भोजन, वस्त्र, आवास, सेहत, शिक्षा, रोजगार के एक ना एक अवसर से वंचित करता है.

तो भी यह व्यक्ति जानता है कि चुप रहने में ही उसकी भलाई है. निस्सहाय-निरुपाय यह व्यक्ति जानता है कि वह रोजमर्रा के तंत्र के भीतर एक कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं. कालाधन के खात्मे के लिए नोटबंदी से लेकर कैशलेस इकोनॉमी तक का नुस्खा सुझानेवाले लाल बुझक्कड़ों को चाहिए कि वे इस अंतिम आदमी को और ज्यादा असहाय बनाने की जगह भ्रष्टाचार-रोधी कानूनों को मजबूत करें!