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भ्रूण के लिंग परीक्षण पर बहस-- अंजलि सिन्हा

महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने पिछले दिनों कहा था कि हर गर्भवती महिला के भ्रूण का लिंग परीक्षण होना चाहिए तथा माताओं को उनके बच्चे का लिंग बता दिया जाना चाहिए, ताकि निगरानी हो सके कि माता-पिता कन्या को पैदा कर रहे हैं या नहीं. इस पर विपरीत प्रतिक्रिया मिलने पर मेनका गांधी ने सफाई दी कि यह ‘प्रस्ताव' नहीं, बल्कि ‘विचार' है.

इस बयान के बाद कन्या भ्रूण के गर्भपात की समस्या तथा उससे निजात पाने के उपायों पर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी है. महिला संगठनों, नारीवादी विचारकों ने जब मेनका के बयान का विरोध किया, तो उन्हें अपने सुर बदलने पड़े.

महिला संगठनों का कहना था कि अगर मेनका गांधी के इस विचार पर अमल हुआ, तो वह न केवल गर्भवती स्त्री की निजता के अधिकार तथा सुरक्षित गर्भपात कराने के उसके हक पर चोट करेगा और वह ऐसी महिलाओं के अपराधीकरण का काम करेगा, जो किन्हीं निजी वजहों से गर्भपात कराना चाह रही हैं.

यह भारत में विषम लिंगानुपात को लेकर मेडिकल उद्योग को किसी भी किस्म की जिम्मेवारी से मुक्त कर देगा. एक ऐसे समाज में जहां बेटे की जबरदस्त ‘चाहत' और कन्या के प्रति वितृष्णा दिखती है, वहां भ्रूण के लिंग का पता करना अनिवार्य हो जाये, तो इसके चलते गर्भपातों में उछाल आयेगा, कन्या भ्रूणहत्या को समाप्त करने के उद्योग में तेजी आयेगी.

नागरिक अधिकार कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव लिखती हैं कि लिंगनिर्धारण अनिवार्य किया जाना और सभी गर्भावस्थाओं की निगरानी शुरू करना संविधान की धारा 19 का साफ उल्लंघन होगा, जहां से निजता का अधिकार निकलता है. गौरतलब बात यह है कि गर्भजल परीक्षण से भ्रूण का लिंग बताने तथा कन्या भ्रूणहत्या की प्रक्रिया में संलिप्त डाॅक्टरों ने गांधी के विचार का समर्थन किया है.

कन्या भ्रूण का गर्भपात हमारे समाज में आज भी एक गंभीर समस्या बना हुआ है और इससे निजात पाने के कानूनी पक्ष के अलावा अन्य तरीकों को भी ढूंढने, कानूनी उपायों को अधिक प्रभावी बनाने के बारे में चर्चा तथा काम दोनों जरूरी हैं. किसी भी कानून का मूल्यांकन अपने आप में बुरा नहीं है.

प्रीकन्सेप्शन एंड प्रीनेटल डायगनास्टिक टेकनिक एक्ट1994 (पीसीपीएनडीटी एक्ट) को लागू हुए दो दशक से अधिक हो गये हैं, लेकिन चोरी-छिपे कन्या भ्रूण गर्भपात जारी है. इस बात से सरकार भी इनकार नहीं कर सकती कि कानून पर ठीक से अमल नहीं हो पा रहा है. अधिक विकसित इलाकों में कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े तेजी से बढ़ते दिखते हैं, जबकि पिछड़े इलाकों में तकनीकी सुविधाएं न होने से एक तरह से यथास्थिति बनी हुई है.

गर्भवती का लिंग परीक्षण एक मेडिकल प्रक्रिया है. अगर हम इस बात को थोड़ी देर के लिए मुल्तवी कर दें कि लिंग परीक्षण कराना या नहीं कराना उसकी निजता के अधिकार का मसला है, तो फिर गर्भवतियों का परीक्षण कराना सरकार की जिम्मेवारी बन जायेगी, जिसके लिए निश्चित ही मौजूदा स्वास्थ्य सेवाएं तैयार नहीं हैं. क्योंकि सरकार स्वास्थ्य बजट घटा रही है और स्वास्थ्य ढांचा चरमरा रहा है. यह समझना जरूरी है कि बेटी का वास्तविक जीवन में मान बढ़ता है, तो बेटी बोझ क्यों?

यदि सार्वजनिक जीवन में उसकी उपस्थिति बढ़ायी जा सके, आय के स्रोत उसके पास अपने हों, जिसके लिए नीति तैयार हो, रोजगार के स्रोत विकसित किये जायें, तो युवतियां एवं स्त्रियां घर से बाहर निकल कर सामाजिक जीवन मंे अपनी उपस्थिति बढ़ायेंगी. इससे उनका भी आत्मविश्वास बढ़ेगा तथा स्वावलंबी बेटियां अपनी माता-पिता की देखभाल करने में भी सक्षम हांेगी. लोग बेटा ही क्यों पैदा करना चाहते हैं, इसकी वजह भी जानना जरूरी है.

यदि अंधविश्वास का मसला है, तो उसके लिए जागरूकता अभियान चले. लेकिन, यदि वास्तव में बेटों के कंधों पर ही घर-गृहस्थी की जिम्मेवारी है, तो वह भी साझा करना होगा.

लड़की के लिए बने असुरक्षित वातावरण को भी चुनौती के रूप में लेकर उसे ठीक करना होगा, ताकि सार्वजनिक जीवन में बराबरी लायी जा सके. इसके लिए ढांचागत सुधार भी चाहिए.

सामाजिक वातावरण और सार्वजनिक दायरा यदि अधिकाधिक वूमेन फ्रेंडली बन सके, तो महिलाओं की भागीदारी स्वाभाविक बनने लगेगी. सरकार सहित समाज सुधार में लगे संगठनों तथा व्यक्तियों को समाज में यह जागरूकता लानी होगी कि लड़की परिवार की इज्जत नहीं, बल्कि बराबर की सदस्य है.

ये सारी बातें बहुत दूरगामी लग सकती हैं तथा हासिल होनेवाले लक्ष्यों में उन्हें आम तौर पर शामिल नहीं किया जाता, लेकिन ठीक से लक्ष्य निर्धारित हों तभी संभव है. इसके लिए सिर्फ ‘बचाओ' का एप्रोच पर्याप्त नहीं है, न ही निगरानी और दंडात्मक प्रावधान स्थायी समाधान है.