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मैं बिहार चुनाव को लेकर उत्साहित क्यों नहीं हूं: योगेंद्र यादव

-द प्रिंट,

इन पंक्तियों को जब आप पढ़ रहे होंगे तो बिहार विधानसभा के चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान समाप्त हो चला होगा. अब अचरज कहिए कि इस बार बिहार के चुनाव को लेकर अपने मन में मैं पहले जैसी तरंग महसूस नहीं कर पा रहा और, मुझ जैसे चुनाव-आसक्त आदमी के लिए जिसने जिंदगी के तीन दशक चुनावों को पूरे दिल-ओ-जान से पेशेवर और सियासी तौर पर परखने-समझने में बिताये हैं. यह बड़ा अजीब सा अहसास है.

चुनावी चर्चा से मेरा जी उकता गया हो, ऐसा भी नहीं. वजह ये भी नहीं कि शुरु-शुरु में लगा कि नतीजे से पहले से ही अपना पता दे रहे हैं तो फिर इसमें क्या दिल लगाना! दरअसल, आज की घड़ी में जब बिहार में चुनावी लड़ाई कांटे की टक्कर में बदलती जान पड़ रही है, तब भी उसे लेकर मेरे दिल में कोई उमंग नहीं जाग रही. अब ये बात तो मैं समझता ही हूं कि इस चुनाव का एक ना एक नतीजा निकलना ही है. कोरोनाबंदी के बाद का यह पहला चुनाव है और अगले कुछ वक्तों के लिए मोदी सरकार किस तर्ज पर चलेगी यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि बिहार विधानसभा के इस चुनाव में एनडीए सरकार बना पाती है या नहीं. चुनाव के नतीजों को जानने की उत्सुकता तो मैं अपने अंदर महसूस कर पा रहा हूं लेकिन चुनाव के रंग-ढंग परखने की तरफ जी जरा भी नहीं जा रहा.

और, जो जी की हालत ऐसी है तो उसकी वजह भी है. बिहार विधानसभा का यह चुनाव अगर पहले की तुलना में खास अहमियत नहीं रखता तो इसकी तीन वजहें दिख रही हैं : एक तो राष्ट्रीय जीवन-जगत में बिहार की अहमियत पहले की तुलना में कम हुई है. दूसरे, सूबों की सियासत भी अभी राष्ट्रीय राजनीति में पहले जितनी महत्वपूर्ण नहीं रही और तीसरी बात ये कि देश की दशा-दिशा तय करने के ऐतबार से अब चुनाव पहले जैसे अहम नहीं रह गये हैं.

बिहार अब मुख्यकेंद्र नहीं रहा
हिन्दी-पट्टी के राज्यों में बिहार का एक खास मुकाम हुआ करता था. हिन्दीपट्टी के राज्यों मे बिहार अपनी अनूठी सांस्कृतिक, भाषायी और सियासी पहचान के कारण खास नजर आता था. माना जाता था कि उत्तर भारत की राजनीति की नब्ज और धड़कन बिहार से तय होती है. जेपी के आंदोलन के दिनों से ही बिहारियों की साख-धाक बनी चली आयी है. एक दौर वह भी गुजरा है जब बिहारवासी गर्वभाव से कहा करते थे कि अगर देश के मन-मिजाज और सियासत को बदल देने वाला कोई आंदोलन होता है तो समझिए उसकी शुरुआत बिहार में हुई है.

हिन्दीपट्टी के राज्यों की सियासत में क्या कुछ होने जा रहा है, वह बिहार के चुनावों के सहारे बहुत पहले पता चल जाया करता था. साल 1990 तथा 1995 में बिहार विधानसभा के चुनाव एक तरह से देश में ‘मंडल’ राजनीति के उभार की पूर्वपीठिका कहे जायेंगे. साल 2005 और 2010 के चुनावों में नीतीश कुमार की जीत ने संकेत दिया कि ‘गवर्नेंस’ को तिलांजलि देते हुए सामाजिक न्याय की जो राजनीति चल रही है, उससे लोग उकता चुके हैं और चुनावी राजनीति में अब एक नये मुहावरे ‘बिजली, पानी, सड़क’ ने अपनी पैठ बना ली है.

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