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मंदी के सबक और भविष्य के अंदेशे-- मोंटेक सिंह अहलूवालिया

लेहमन ब्रदर्स के पतन की 10वीं वर्षगांठ पर उम्मीद के मुताबिक विचारों की बाढ़ दिखी है। गुणा-भाग इन सवालों पर हो रहे हैं कि इस संकट की वजह क्या थी? क्या बेहतर तरीके से इससे निपटा गया, और हमने इससे किस तरह के सबक सीखे? ज्यादातर लेखों की बुनियाद समान है, सिवाय एक को छोड़कर, जो पूरी तरह मूल विचार लग रहा है। इसे पेश किया है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीन लेगार्ड ने। उनका कहना है कि वित्तीय संस्थानों के शीर्ष पदों पर यदि महिलाओं की संख्या ज्यादा होती, तो इस संकट का खतरा कम होता।


बहरहाल, 2008 में जब यह संकट गहराया, तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने ‘नए ब्रेटन वुड्स' की जरूरत बताई थी। इसका अर्थ था कि हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पुनर्गठन के साथ-साथ नए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे की दरकार है। नए जी 20 की बैठक में यह एजेंडा रखा भी गया था कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में सुधार किए जाएं। आज सवाल यह है कि दुनिया को फिर से ऐसी किसी वैश्विक मंदी से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को मजबूत करना कितना फायदेमंद रहा? मेरी नजर में इसका संक्षिप्त जवाब यही है कि इन सस्थानों ने ज्यादा कुछ नहीं किया। अमेरिकी वित्तीय प्रणाली को स्थिर करने में जिन निर्णयों का बड़ा योगदान था, उनमें एक था- बेन बर्नान्के का फैसला कि नकदी से सिस्टम को भर दिया जाए और ब्याज दर कम रखे जाएं। और दूसरा- अमेरिकी ट्रेजरी विभाग का यह निर्णय कि मुश्किलों में पड़ी हुई परिसंपत्तियों को खरीदते हुए सिस्टम में 800 अरब अमेरिकी डॉलर झोंक देने चाहिए। ये कदम किसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान की सलाह पर नहीं उठाए गए थे। अगर ऐसा कोई मशविरा लिया गया होता, तो आसन्न खतरा बताकर कई चेतावनियां जरूर दे दी गई होतीं।


यूरोपीय बैंकिंग सिस्टम इसीलिए लगातार मुश्किलों से जूझता रहा, क्योंकि वह अपनी समस्याओं को दूर करने को लेकर ज्यादा संजीदा नहीं था। आईएमएफ को 500 अरब अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त सहायता देकर मजबूत जरूर बनाया गया था, और इसका इस्तेमाल यूरोजोन संकट के समय छोटे-छोटे यूरोपीय देशों को आर्थिक मदद देने के लिए किया भी गया। मगर पुर्तगाल, यूनान, इटली, स्पेन जैसे देशों की जरूरतें पूरी करने के लिए कोष के पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे और यह आमतौर पर यूरोपीय सेंट्रल बैंक के साथ मिलकर काम करता रहा। अंतत: यूरोपीय सेंट्रल बैंक ही बड़ी तब्दीली लाने में सफल रहा।


हालांकि अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में कुछ सुधार भी हुए। आईएमएफ के लिए 500 अरब अमेरिकी डॉलर का कोटा बढ़ाया गया और कोटे के शेयरों में भी बदलाव किए गए। इसके बोर्ड में यूरोपीय देशों की सीटें घटाकर दो कर दी गईं, ताकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल सके। ये सभी सही दिशा में उठाए गए कदम थे। हालांकि एक महत्वपूर्ण आयाम में कोई बदलाव नहीं किया गया। असल में, अमेरिका ने अपना 16 फीसदी वोट शेयर बरकरार रखा, जिसके कारण वह संरचनात्मक बदलावों पर वीटो कर सकता है। वित्तीय स्थिरता मंच में संशोधित करके उसे वित्तीय स्थिरता बोर्ड (एफएसबी) बनाना भी एक उल्लेखनीय सुधार था। इसमें भारत समेत तमाम उभरते देशों का प्रतिनिधित्व है।


रही बात आर्थिक नियमन की, तो इस क्षेत्र में भी कुछ अच्छे काम हुए हैं। बैंकिंग और वित्तीय संस्थानों को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए बने ‘बेसल-तीन' मानक का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि बैंकों में पूंजी बढ़ी है। ‘कैपिटल बफर' (पूंजी का भंडार) के महत्व की समझ भी पुख्ता हुई है, पर व्यवहार में यह कैसे अमल में लाया जाएगा, यह साफ नहीं हो पाया है। ‘क्रॉस बॉर्डर रिजॉल्यूशन' के क्षेत्र में भी मनमाफिक काम नहीं हो पाया। बैसल-तीन के तहत पूंजी-पर्याप्तता का मानदंड मार्च, 2017 तक लागू किए जाने की बात थी, पर इसे बढ़ाकर करके अब मार्च, 2019 कर दिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए इससे समस्या खड़ी हो सकती है, जो डूब कर्ज यानी एनपीए से बुरी तरह जूझ रहे हैं। एनपीए के खात्मे के लिए प्रावधान बनाने से पूंजी-प्रवाह पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। यह तो अभी नहीं कहा जा सकता कि मार्च 2019 तक पूंजी की कमी किस सीमा तक होगी, पर इतना तय है कि यह काफी बड़ी होगी।


2008 की वैश्विक मंदी की एक दिलचस्प बात यह थी कि अत्यधिक जोखिम लेने और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार करने के बाद भी किसी को आपराधिक गुनहगार नहीं ठहराया गया। क्रिस्टीन लेगार्ड ने इसकी ओर इशारा किया है, हालांकि मैं नहीं समझता कि सजा कोई बड़ी तब्दीली लाती। जिस लोकप्रियतावादी राजनीति का उभार हम हाल के वर्षों में देख रहे हैं, उसे बढ़ाने में आर्थिक प्रवृत्तियां शायद खुद सक्षम थीं। हां, भारत में बैंकों की जवाबदेही का मसला प्रासंगिक जरूर है, खासतौर से बढ़ते एनपीए को देखते हुए। रघुराम राजन ने बताया है कि सभी एनपीए धोखाधड़ी के कारण नहीं बढ़े हैं, बल्कि कई की वजह तो कमजोर बैंकिंग व्यवस्था है। इसीलिए इसे रोकने के लिए महज आपराधिक अभियोजन पर्याप्त नहीं होगा।


यह कहा गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वित्तपोषण का भार उठाने को तैयार नहीं थे। हमें यह जानना चाहिए कि क्या वाकई में ऐसा ही था? फिर इस कमजोरी को दूर करने की योजना पर गंभीर चिंतन भी जरूरी है। हमें यह भी सोचना होगा कि भविष्य में इन समस्याओं से कैसे बचा जाएगा? इतिहास गवाह है कि वित्तीय संकट आश्चर्यजनक रूप से नियमित तौर पर आते हैं; भले ही वे पहले जैसे गंभीर न हों। फिलहाल कई देश कर्ज-संकट से जूझ रहे हैं। हमें यह आकलन करना होगा कि क्या यह वैश्विक मंदी की आहट है? अगर यह स्थिति मंदी का कारण नहीं है, तब भी इसके असर की पड़ताल तो हमें करनी ही चाहिए। हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि मौजूदा स्थिति भारत को किस तरह प्रभावित कर सकती है? जी-20 को तो खैर इन सवालों से जूझना ही चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)