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मजदूर के संघर्ष का प्रतीक- सिद्धेश्वर शुक्ला

सन् 1991 के बाद देश में आर्थिक सुधार के नाम पर बेतहाशा उदारीकरण की जो नीति अपनायी गयी, उसे सत्ता पक्ष और प्रमुख विपक्ष ने बड़ी मजबूती से केंद्र व राज्यों में लागू किया. उदारीकरण के दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं. उदारीकरण की नीतियों की वजह से न सिर्फ मजदूरों को नुकसान हुआ है, बल्कि परंपरागत उद्योग और कृषि बुरी तरह से चौपट होकर रह गये हैं. आज देश एक बहुत गंभीर संकट से दो-चार है.

1991 में शुरू की गयी उदारीकरण की नीति ने हायर एंड फायर, और निजी कंपनियों को लाभ देनेवाली नीतियों के कारण मजदूरों को काफी नुकसान हुआ है. सरकार द्वारा उदारीकरण के दौर के पहले बनाये गये श्रम कानूनों के जरिए मजदूरों के हितों को संरक्षण देने की कोशिश की जाती थी, लेकिन इसके उलट आज राजनीतिक दल मजदूरों के पक्ष में खड़ा होने के बजाय कॉरपोरेट के हित में खड़े होते हैं.

इसके बावजूद ट्रेड यूनियन आंदोलन मजदूरों को उस हद तक एकजुट करने में कामयाब नहीं हो पाता. हालांकि फरवरी में सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों द्वारा किये गये आंदोलन से एक बार फिर से मजूदर संगठनों के बीच मतभेदों से ऊपर उठ कर तालमेल नजर आया. इससे मजदूर आंदोलन को लेकर उम्मीद जगी है.

यह बात सही है कि आज काम की प्रकृति बदल गयी है, इसलिए मजदूरों को एकजुट करना भी पहले की तुलना में मुश्किल हो रहा है. पहले बड़े उद्योगों में बड़ी संख्या में मजदूर काम करते थे, लेकिन अब काम तो हो रहे हैं, लेकिन कंपनियों में मजदूर नहीं दिखाई देते. छोटी-छोटी कंपनियों को काम आउटसोर्स किया जा रहा है. व्यापार के नाम पर ज्यादातर असेंबलिंग का काम हो रहा है.

पहले सरकार का ध्यान सार्वजनिक उद्यमों के विकास पर था, तो आज सरकार का ध्यान निजी उद्यमों के विकास पर है. इसलिए मजदूर आंदोलन की व्यापकता में कमी आयी है. आज नौकरियों में कांट्रैक्ट लेबर का बोलबाला है. हालांकि जो श्रम कानून स्थायी मजदूरों को अधिकार देता है, वही कांट्रैक्ट लेबर को भी. लेकिन कांट्रैक्ट पर काम करनेवाले मजदूरों को डरा-धमका कर और नौकरी का भय दिखाकर उन्हें उनके वाजिब अधिकारों से वंचित करने का प्रयास होता है.

वैश्वीकरण के दौर का सबसे बड़ा खामियाजा मजदूरों को ही भुगतना पड़ा है. इन कंपनियों में न तो उसकी नौकरी की गारंटी है, न ही काम करने के घंटे तय हैं. वे रोजाना 8 घंटे की नियत सीमा के बजाय 12 से 14 घंटे तक काम करने को विवश हैं. हालांकि कुछेक क्षेत्र में रोजगार भी पैदा हुए है. मसलन सेवा क्षेत्र का विकास हुआ है, और बीपीओ आदि कंपनियों में नये तरह के रोजगार भी पैदा हुए हैं. लेकिन अगर यह कहा जाये कि इसका पूरा लाभ मजदूरों को हुआ है, तो यह झूठी दिलासा देना होगा.

न्यूनतम वेतन देकर अधिकतम लाभ के सिद्धांत का अनुकरण इस देश के मजदूरों की त्रासदी बन गयी है. संगठित क्षेत्र के मजदूरों को तो कुछ सुविधा मिलती भी है, लेकिन आज इस देश के समस्त मजदूरों का 92 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है. एक तो उन्हें न्यूनतम वेतन भी मिलता है, साथ ही उन्हें सरकार द्वारा चलायी जा रही सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं का लाभ भी नहीं मिलता. ऐसे में उनकी जिंदगी बहुत ही दुश्वार हो जाती है.

हालांकि सरकार ने पिछले बजट में रेहड़ी-पटरी और विनिर्माण मजदूरों के कल्याण के लिए कुछ प्रावधान किये हैं. सरकार को अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग नीतियां बनानी चाहिए. इसी तरह की व्यवस्था मनरेगा मजदूरों और खेतिहर मजूदरों के लिए भी की जानी चाहिए.

इस देश में मजदूरों ने बड़े-बड़े आंदोलन किये हैं. विगत एक दो वर्षो में देश में कई बड़े सामाजिक आंदोलन हुए. भ्रष्टाचार के लिए लंबी लड़ाई लड़ने का संकल्प व्यक्त किये गये. जनता के सड़क पर उतरने का दावा किया गया. आनन-फानन में व्यवस्था के परिवर्तन की लड़ाई का नायक बनने या खुद के नायकत्व की घोषणा करने की कोशिश भी हुई. लेकिन, ये आंदोलन इस बात को लोगों के सामने रखने में विफल रहे कि भ्रष्टाचार के मूल में उदारीकरण की नीतियां हैं.

भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में कॉरपोरेट को निशाने पर रखने के बजाय उनका सहयोग लेने की खबरें आयीं. यही कारण है कि इस पूरे आंदोलन से मजदूरों ने खुद को दूर रखा, और आंदोलन सिर्फ मध्यवर्ग के एक हिस्से तक सिमट कर रह गया, और आंदोलन को उस सीमा तक सफलता नहीं मिल पायी.