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मजदूर को मजबूर बनाने की नीति- सुभाष चंद्र कुशवाहा

विगत कुछ महीनों से देश में मजदूर आंदोलन की सुगबुगाहट निजी सेवा के अमानवीयकरण की व्यथा-कथा उजागर करने के लिए पर्याप्त है। हुंडई, अशोक ली-लैंड और मारुति-सुजुकी के मजदूर आंदोलनों ने औद्योगिक नीति की खामियों और मजदूरों के शोषण को उजागर किया है। यह तब हो रहा है, जब वैश्वीकरण ने मजदूर चेतना को न केवल कुंद किया है, बल्कि तमाम मजदूर संगठनों को उत्पादक विरोधी बताते हुए हाशिये पर डालने की ऐसी अर्थनीति स्थापित की है, जहां सरकारी और स्थायी नौकरियों के लिए जगह न बचे।

नौकरियां घरेलू नौकरों की तरह बना दी जाएं और पूरी तरह नियोक्ता की मरजी पर निर्भर रहें। कानून सम्मत व्यवस्था का हस्तक्षेप समाप्त कर दिया जाए। सरकारें दायित्वविहीन, लाचार या मौन सहमति देती नजर आएं। दरअसल यह दास प्रथा का एक ऐसा रूप है, जहां नौकरी छोड़ने का अधिकार तो है, पर सेवा में रहकर स्वतंत्र सोच, सुविधा, मनुष्यता, घर-परिवार, समाज, भविष्य और राष्ट्रहित के लिए सोचने का अवसर समाप्त कर दिया जा रहा है।

वैश्वीकृत अर्थनीति में औद्योगिक क्षेत्रों में स्थायी कर्मचारियों की नियुक्तियां नहीं हो रहीं। संविदा के तहत सस्ते मजदूर रखे जा रहे हैं। कंपनी कर्मचारियों के हितों की सुरक्षा यथा-पेंशन, बीमा, शिक्षा और चिकित्सा से पूरी तरह मुक्त हो गई है। निजी सेवाओं में प्रबंधकों की अच्छी पगार जल्दी-जल्दी बदलते मातहतों से हाड़तोड़ मेहनत करा लेती है। वहां सेवा की अनिश्चितता के चलते नौकरी बचाने के लिए सेवक दिन-रात कार्य करते हैं। कार्य के लक्ष्य ऐसे निर्धारित किए जाते हैं कि 16 से 18 घंटे कार्य करने पर ही नौकरी सुरक्षित रहे । घर पर भी लैपटॉप पर काम करते हुए भोजन करना, चार से पांच घंटे सोना और संयुक्त परिवार से तौबा कर लेना नई सेवा नीति का अमानवीय चेहरा है।

लंबे आंदोलन के बाद दुनिया के मजदूरों ने एक दिन में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल किया था। आज वह अधिकार बेमानी साबित हो रहा है। विकास की नई प्रक्रिया इतनी अमानवीय बना दी गई है कि निजी सेवाओं से संबद्ध सेवक अपने मां-बाप की मृत्यु पर श्राद्ध जैसे कामों को पूरा नहीं कर पाते। पत्नी और बच्चों के लिए समय की गुंजाइश ही नहीं है। फिर तो अन्य सामाजिक अभिरुचियों यथा, खेल-कूद, कला, संस्कृति, साहित्य के लिए समय के बारे में सोचना ही बेमानी है। यही नहीं, निजी सेवाएं डायबिटीज, ब्लडप्रेशर जैसी घातक बीमारियाें का तोहफा सौंप रही हैं।

अपने देश के निजी क्षेत्र में कर्मचारियों से कितना काम लिया जाता है और बदले में उन्हें क्या दिया जाता है, इस संबंध में अर्थशास्त्री सुरजीत मजूमदार कहते हैं-1998-99 की तुलना में वर्ष 2008-2009 में प्रति मजदूर शुद्ध मूल्य सृजन (नेट वैल्यू एडेड) दो लाख रुपये से बढ़कर छह लाख रुपये हो गया। जबकि इसी अवधि में नेट वैल्यू एडेड की तुलना में उसका वेतन 18 प्रतिशत से घटकर 11 प्रतिशत हो गया।

अपने देश में ज्यादातर मजदूर असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं और लचर श्रम कानून की सीमा से परे होते हैं। केवल आठ-नौ प्रतिशत मजदूर ही श्रम कानून के अंतर्गत आते हैं। इसके बावजूद हमारे उद्योगपतियों का नजरिया यह है कि फिक्की के श्रम ब्यूरो प्रमुख बी.पी. पंत कहते हैं कि श्रम कानून अंगरेजों के जमाने का है। तब की परिस्थितियां ऐसी थीं कि मजदूर हितों की हिफाजत की जरूरत थी। अब इसकी जरूरत क्या है, यह तर्क गले नहीं उतरता।

न्यायपरक औद्योगिक नीति का दायित्व होता है कि सेवक और स्वामी का संबंध, कार्य की गुणवत्ता, दायित्वबोध, सेवाभाव और कुल मिलाकर राष्ट्र सेवा की संस्कृति निर्धारित करे। पर संविदा सेवाएं सेवा और समाज से जुड़ाव नहीं पैदा कर रहीं, यहां तक कि कार्यरत संस्थान से भी नहीं। जब सेवा शर्तें लोकतांत्रिक हों, तो सेवक भी लोकतांत्रिक व्यवहार करता है, अन्यथा तात्कालिक लाभ के लिए वह अलोकतांत्रिक तरीके अपनाता है। सेवक के अंदर दायित्वबोध का आभास तभी होता है, जब उसे लगता है कि नियोजक उसके सुख-दुख का साथी है। इसलिए औद्योगिक विकास और तालाबंदी से बचने के लिए जरूरी है कि प्रबंध तंत्र मजदूर को परिवार का हिस्सा समझे और तदनुसार मानवीय व्यवहार करे।