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मजबूरी में पलायन करते हैं झारखंडवासी

इटली, मलेशिया, चीन और अब साउथ कोरिया में जनसंख्या और पलायन जैसे विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत कर चुके कुणाल केसरी झारखंड के लोहरदगा जिले के रहने वाले हैं. वे इंटरनेशलन इंस्टीटय़ूट फोर पॉपुलशन साइंस मुंबई के सीनियर रिसर्च फेलो रह चुके हैं और फिलहाल मौसमी पलायना पर पीएचडी कर रहे हैं. वे झारखंड छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तरप्रदेश में हर साल होने वाले मौसमी पलायन पर रिसर्च कर रहे हैं. उनसे अभिषेक शास्त्री ने बातचीत की.                                           

सीजनल माइग्रेशन एक टेम्पररी माइग्रेशन है. यह एक तरह का लेबर माइग्रेशन है. इसमे अधिकतर रोजगार के लिए लोग माइग्रेट होते हैं. इसमें एक से छह महीने तक लोग अपना गांव, शहर, जिला या राज्य छोड़कर कहीं बाहर चले जाते हैं. अमूमन मौसमी पलायन खेती आधारित है. खेती की आवश्यकता के अनुसार लोग माइग्रेट करते हैं.

जब खेती का वक्त होता है तो वे घर पर होते हैं और बाकी समय घर से बाहर पलायन कर जाते हैं. एक निश्चित समय के बाद ये सभी वापस लौट आते हैं. बढते शहरीकरण के कारण इस तरह का माइग्रेशन तेजी से विस्तार कर रहा है. इस तरह का सीजनल माइग्रेशन झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में हो रहा है. मौसमी पलायान पर रिसर्च का विचार यूनाइटेड किंगडम के शोधकर्ताओं बेन रेगाली और डक्लस मौसी से आया. दोनों ने 20 से 25 वर्षो तक झारखंड के पलायन पर रिसर्च किया.

झारखंड में भी सीजनल माइग्रेशन की प्रवृत्ति है. झारखंड के किसान और अन्य ग्रामीण रोजगार की तलाश मे गांव से निकल कर शहरों की शरण लेते हैं. अधिकतर लोग दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, वाराणसी, और गुजरात जैसे जगहों पर साल के छह महीने तक के लिए काम पर जाते हैं. इन शहरों मे ईंट भट्ठों, ठेका मजदूरी, निर्माण कार्यों सहित रिक्शा चलाने जैसे काम ये ग्रामीण करते हैं. फिलहाल झारखंड से 80 प्रतिशत माइग्रेशन के मामले सीजनल माइग्रेशन के ही होते हैं.

राज्य के सीजनल माइग्रेशन में हाल के वर्षो में नकारात्मकता ज्यादा आयी है. जनसंख्या विज्ञान में इसे डिस्ट्रेस माइग्रेशन कहा जाता है. खाने-पीने की समस्या, आर्थिक तंगी और जीवन यापन की कठिनाइयों से तंग आकर लोग पलायन कर जाते हैं. एक प्रकार से यह मजबूरी में किया गया माइग्रेशन हैं. लोग बाहर जाकर ईंट-भट्ठा, घरेलू काम और निर्माण कार्यों में मजदूर का काम कर रहे हैं. एक समय बाद जब कुछ पैसा हाथ में आता है, तो ये वापस अपने घर लौट आते हैं. झारखंड से •यादातर आदिवासी ही माइग्रेट हो रहे हैं. इनकी महत्वाकांक्षाएं ज्यादा नहीं होतीं, इसलिए थोड़ा पैसा आते ही ये घर लौट आते हैं. आदिवासियों के पलायन के पीछे अशिक्षा और बेरोजगारी बड़े कारण हैं.

ह्यूमन ट्रैफिकिंग को जनसंख्या विज्ञान फरेस्ड माइग्रेशन के रूप में परिभाषित करता है. इसमें जबरन लोगों का कहीं बाहर पलायन कराया जाता है. इस तरह के पलायन में समाज के गरीबों से भी गरीब लोगों को टार्गेट किया जाता है. इसमें  मिडील मैन जिसे दलाल कहा जाता है वह आदिवासी या अन्य महिला कामगारों को बड़े निर्माण कार्यों में सस्ते मजदूर के रूप में काम करने के लिए ले जाता है.

राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में लड़कियां और बच्चे ज्यादातर ट्रैफिकिंग का शिकार होते हैं. उन्हे लोकलुभावन बातें बता कर दलाल अपने चंगुल में फांसते हैं. इस तरह के पलायन के शिकार लोगों को कई तरह के शोषण  का समाना करना पड़ता है जिसमे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और लैंगिक शोषण भी शामिल है. इनकी स्थिति बंधुवा मजदूर की हो जाती है. इस तरह के पलायन में शासन व्यवस्था की कमजोरी भी झलकती है. व्यवस्थित जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से  इसे प्रशासन रोक सकती है.

मनरेगा कुछ हद तक पलायन रोकने में सफल रहा है. इसकी सफलता और असफलता इसके क्रि यान्वयन से जुड़ी है जहां इसे बेहतर तरीके से संचालित किया जा रहा है और खास कर पलायन करने वाले वर्ग को टार्गेट किया जा रहा है, वहां इस योजना की सफलता भी दिख रही है. झारखंड देश के माइग्रेशन चार्ट में दूसरे स्थान पर है. मनरेगा योजना का यहां अच्छे ढंग से संचालन नहीं हो पा रहा है. लोगों को व्यवस्थित तरीके से योजना में जोड़ने का काम नहीं हो रहा है जिस कारण मनरेगा यहां से पलायन रोकने में विफल रही है. हालांकि बिहार और उत्तर प्रदेश में मनरेगा की सफल क्रियान्वयन से काफी हद तक पलायन रोका जा सका है.

जनसंख्या विज्ञान और अर्थशास्त्र में जीडीपी और प्रतिव्यक्ति आय के सामंजस्य को पलायन रोकने का संतुलन बिंदु माना जाता है. झारखंड खनिज संसाधनों मे समृद्ध राज्य है. इसलिए यहां जीडीपी के आंकड़े बेहतर हो सकते हैं. लेकिन जहां बात करेंगे प्रतिव्यक्ति आय की तो यह काफी कम बैठता है. यहां खनिज संपदा का वितरण सही से नहीं है. कुछ लोग हैं जो इसका लाभ उठा रहे हैं. जबकि आबादी का अधिकतर हिस्सा इससे कहीं दूर है. खास कर ग्रामीण और आदिवासी आबादी अब भी खनिज संसाधनों के लाभ से वंचित है. झारखंड में काफी यंग  पापुलेशन है. लिंग अनुपात भी बेहतर है. यहां कमी है तो मिनरल रिसोर्स और पापुलेशन मैनेजमेंट की.

आज कश्मीर सरकार के प्रयासों, आश्वसनों और सुरक्षित व्यवस्था के भरोसे पर बड़ी संख्या मे कश्मीरी पंडित लौट रहे हैं. बिहार के विकास और भयमुक्त वातावरण की चर्चा से माइग्रेट लोग इन्वेस्टमेंट के लिए लौट रहे हैं. झारखंड सरकार राजनीतिका स्थिरता, बेहतर माहौल, रोजगार के साधन और शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ कर पलायन को रोक सकती है. मालूम हो कि चीन ने गांव से शहर में पलायन रोकने के लिए कठोर कदम उठाया है.

चीन ने पलायन रोकने के लिए उठाए हैं कड़े कदम
बढ़ते शहरीकरण और ग्रामीण क्षेत्रों से शहर की ओर रु ख करते लोगों को रोकने के लिए चाइना ने सख्ती का सहारा लिया है. चाइना ने गाँव से शहर की ओर होते पलायन को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए हैं. वहाँ गाँव में रहने वाले लोगों को शहर जाने पर मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है. इससे पलायन काफी हद तक कम हुआ है.