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मट्टो की साइकिल: ज़िंदगी के लॉकडाउन में फंसे मज़दूर की कहानी

-बीबीसी,

एक साइकिल. कहीं डंडे वाली तो कहीं बिना डंडे वाली. एक घंटी, कैरियर और सुंदर सी टोकरी लगी साइकिल... हो सकता है आपका बचपन इसकी सवारी के साथ बीता हो.

और बहुत मुमकिन है कि अब आपने ख़ुद को मोटरगाड़ी या बाइक तक अपग्रेड कर लिया हो और साइकिल से आपका शायद ही वास्ता पड़ता हो.

पर लॉकडाउन के दौरान बिहार की 15 बरस की एक लड़की ज्योति साधारण-सी साइकिल चलाकर 1200 किलोमीटर, गुरुग्राम से बिहार के अपने पुश्तैनी गाँव पहुँची थी.

निर्देशक एम. गनी की नई फ़िल्म 'मट्टो की साइकिल' ऐसे ही एक मज़दूर मट्टो (प्रकाश झा) और उसकी साइकिल की कहानी है.

फ़िल्म का एक सीन है जहाँ टूटी साइकिल की वजह से मट्टो रोज़ मज़दूरी पर देरी से आता है तो ठेकेदार पूछता है- "क्यों भई मट्टो जे कोई टाइम है आने का?"

तो मट्टो बड़ी लाचारी से जवाब देता है- "मेरो साइकिल में रोज़ कुछु न कुछु टेंटो लग जाए ठेकेदार."

मट्टो आज का वो मज़दूर है जो कोरोना वाले लॉकडाउन में नहीं बल्कि ज़िंदगी नाम के परमानेंट लॉकडाउन में फँसा है जहाँ उसकी 'नीची' जाति, उसकी ग़रीबी, सब जैसे वायरस बन उसे ज़हनी और जिस्मानी तौर पर बीमार कर रहे हैं.

दक्षिण कोरिया में हुए बुसान फ़िल्म फ़ेस्टिवल से चर्चा में आई फ़िल्म मट्टो की साइकिल में जाने-माने निर्देशक प्रकाश झा लीड रोल में हैं.

समाज पर प्रहार है फ़िल्म
कोरोना लॉकडाउन में इस साल मज़ूदरों की जो हालत हुई, फ़िल्म उससे पहले बननी शुरू हो चुकी थी. तो इस विषय पर एम. गनी ने फ़िल्म बनाने की क्यों सोची, इसका जवाब उनकी निजी ज़िंदगी में रचा बसा है.

बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया, "मट्टो जो इस फ़िल्म का मुख्य किरदार है, एक तरह से मेरे पिता का अक्स उनमें है. उत्तर प्रदेश में मेरा अपना परिवार भी ऐसा ही था, मज़दूरी की तलाश में परिवार घूमता था. इस कहानी का एक-एक किरदार मेरा देखा और जिया हुआ है."

"ये कहानी हमेशा मेरे इर्द-गिर्द थी, हमने तो कई असल किरदारों के नाम तक नहीं बदले हैं. ये बरसों पहले से तय था कि मैं इस पर कुछ करूँगा."

फ़िल्म देखकर आप महसूस करेंगे कि कहानी भले ही मट्टो नाम के एक मज़ूदर की है पर इस बहाने ये फ़िल्म समाज पर तीखा प्रहार भी है जो मेहनत-मजूरी करने वाले इस तबके को या तो हिकारत की नज़र से देखता है या उससे भी बदतर. ये सारे लोग हमारे बीच होते हुए भी ओझल ही रहते हैं.

मट्टो का रोल करने वाले प्रकाश झा इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "हम विकास की राह पर चल तो पड़े हैं लेकिन हमारी सामाजिक मानसिकता नहीं बदल पा रही. वो (मज़दूर) हमारे आलीशान घर बनाते हैं, और ख़ुद बिना आशियाने के रहते हैं और पैदल सड़कों पर चलने को मजबूर हैं. एक पूरा तबका है जिसका कोई मोल नहीं है समाज में."

"मुझे इस फ़िल्म की कहानी ने बहुत प्रभावित किया. एक मज़दूर और उसकी साइकिल की कहानी- वो साइकिल जिसकी उम्र उसकी बेटी की उम्र से बस एक साल ज़्यादा है."

वहीं निर्देशक एम. गनी मानते हैं, "दरअसल हमने अपने आसपास के मट्टो को देखना कम कर दिया है. मैं ख़ुद भी सोचने लगा था कि अब लोगों ने साइकिल चलाना कम कर दिया है. मैं कई दिन तक शहरों के बाहरी इलाक़ों में गया और मज़दूरों को देखता था, मज़दूर तो आज भी साइकिल पर ही चलते हैं. इस साल तो हमने देखा ही कि मज़दूर कैसे साइकिल, या पैदल चलकर लॉकडाउन में घर पहुँचे."

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