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मध्य वर्ग : सब कुछ है आशियाना नहीं - अभिषेक कुमार सिंह

अक्सर कहा जाता है कि पिछले एक-डेढ़ दशक से देश में मध्य वर्ग का दायरा तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि सरकार की नीतियों में उसका कहीं कोई प्रतिनिधित्व है। एक मिसाल अफोर्डेबल हाउसिंग जैसे नारे की है, जिसमें निचले तबकों की जरूरतों को तो ध्यान में रखा जा रहा है, लेकिन मध्य वर्ग उसमें कोई जगह नहीं हासिल कर पाया है। नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के आकलन के अनुसार देश की कुल आबादी में मध्य वर्ग का हिस्सा तकरीबन 20 फीसद है। उसकी अहम जरूरतों में एक मकान या फ्लैट को जोड़ा जा सकता है। लंबे अरसे से सरकारी आवासीय योजनाओं में जिस एमआईजी (मिडिल इंकम ग्रुप) फ्लैट या मकान का जिक्र होता रहा है, वह इसी मध्य वर्ग की जरूरत रहा है।

गौरतलब है कि अब दिल्ली, मुंबई ही नहीं, लखनऊ, कानपुर, चंडीगढ़, हैदराबाद, इंदौर, भोपाल जैसे शहरों में भी एमआईजी श्रेणी का एक अदद मकान खरीद पाना मध्य वर्ग के बूते के बाहर हो गया है। ऐसे फ्लैटों और मकानों की कीमत दिल्ली जैसे महानगरों में 50 लाख रुपए से ज्यादा है, जबकि दूसरी श्रेणी के शहरों में भी यह 35-45 लाख रुपए के आसपास ठहरती है। एक औसत मध्यमवर्गीय परिवार के लिए इतनी कीमत का घर ले पाना तकरीबन असंभव हो गया है। इसकी दो अहम वजहें हैं। एक तो एनसीएईआर के मुताबिक जिस मिडिल क्लास परिवार की आय 17 लाख रुपए सालाना है, उसका प्रतिशत मामूली ही है। इस वर्ग में ज्यादा संख्या उन परिवारों की है, जिनकी सालाना आमदनी 3.40 लाख से 6 लाख रुपए के बीच है। इस वर्ग के लोगों को न तो बैंक 50 लाख जितनी बड़ी रकम आसानी से दे पाते हैं और न ही यह वर्ग अपने स्तर पर इतने पैसों का इंतजाम कर पाता है। दूसरे, सरकारी आवासीय योजनाओं में इस वर्ग की जरूरतों का अब कतई ध्यान नहीं रखा जा रहा है। मिसाल के तौर पर हाल ही में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने अफोर्डेबल हाउसिंग के नाम पर अपनी 25 हजार फ्लैटों वाली जिस योजना का ऐलान किया है, उसमें दो कमरे के फ्लैटों की संख्या महज 561 है और उनमें भी ज्यादातर की कीमत ऐसी है कि सुनकर होश उड़ जाएं।

इस मामले में देश का मध्य वर्ग सरकारों से ही कुछ उम्मीद कर सकता है, लेकिन इधर सरकार की घोषित इच्छा ले-देकर गरीबी रेखा तक सिमटी हुई है, जिसके नीचे देश का सबसे बड़ा और सबसे आसानी से लुभाने लायक वोट बैंक बसता है। कुछ समय पूर्व एशियाई विकास बैंक (एडीबी) द्वारा एशिया में रहने वाले मध्य वर्ग को लेकर जारी रिपोर्ट में सरकारों की इस आर्थिक समझ की जमकर खिंचाई की गई। एशियाई अनुभवों के आधार पर रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि गरीबी से लड़ने का सबसे भरोसेमंद व टिकाऊ तरीका गरीबों को सीधे राहत पहुंचाने का नहीं, बल्कि मध्य वर्ग की ओर उन्मुख आर्थिक नीतियां बनाने का है। रिपोर्ट में मध्य वर्ग की परिभाषा उस तबके के रूप में की गई है, जो रोजाना 2 से 20 अमेरिकी डॉलर (2005 की कीमतों को आधार बनाते हुए 93 से 930 रुपए) खर्च कर सकता है। पांच लोगों के परिवार को औसत माना जाए तो हर महीने 14,000 से लेकर 1 लाख 40 हजार रुपया खर्च करने वाले यानी एक कमरे के फ्लैट से लेकर पेंटहाउस और छोटे-मोटे बंगलों तक के निवासी एडीबी के पैमाने पर खुद को मध्यमवर्गीय कह सकते हैं।

इस अध्ययन के मुताबिक भारतीय मध्य वर्ग की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इसका तीन चौथाई हिस्सा मात्र 2 से 4 डॉलर रोजाना खर्च पर गुजारा करता है। उसकी आमदनी भले पक्की न हो, लेकिन टैक्स कटना पक्का है। नौकरी चली जाने या किसी बड़ी बीमारी की गिरफ्त में आ जाने का डर हमेशा उसके हाथ बांधे रखता है, क्योंकि ऐसा एक भी झटका उसे न सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे पहुंचा देने, बल्कि मुख्यधारा से बाहर कर देने के लिए काफी होता है।

कहा जाता है कि यदि देश की विकास दर को स्थायी बनाना है तो सरकार को सबसे पहले इस निम्न मध्य वर्ग की जड़ें मजबूत करनी होंगी। लेकिन जिस तरह से उसे मकान जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित रखा जा रहा है, उन हालात में उससे किसी बेहतरी की उम्मीद करना बेमानी होगा। 20 से 25 करोड़ लोगों का यह तबका फिलहाल भारत में उपभोक्ता सामान, ऑटोमोबाइल उद्योग और हाउसिंग सेक्टर की बुनियाद है और अगले पांच सालों में इसके दो-तिहाई से भी ज्यादा बढ़ जाने की सूचना इन सारे क्षेत्रों का भविष्य उज्ज्वल बताती है। लेकिन इसका चिंताजनक पहलू यही है कि इतने बड़े मध्यवर्ग की जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा कर पाने के लिए देश की तैयारियां सही रफ्तार से आगे नहीं बढ़ रही हैं।

ध्यान रहे कि देश में उदारीकरण के बाद अर्थव्यवस्था में जो गति आई है, उसका सूत्रधार यही मध्य वर्ग है। इसने ही भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया मोड़ दिया है। इसने जोखिम लिया, जी-तोड़ मेहनत की और भूमंडलीकरण के नए अवसरों का लाभ उठाते हुए सफलता की नई कहानियां लिखीं। जाहिर है इसका रहन-सहन बदला है, उपभोग के स्तर में बढ़ोतरी हुई है। आज यह विश्व बाजार का एक अप-टु-डेट उपभोक्ता है। इसी को ध्यान में रखकर कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में कदम बढ़ाए हैं। इन कंपनियों को इसी वर्ग से न सिर्फ नई सूझबूझ वाले साझेदार मिल रहे हैं, बल्कि उन्हें तेज-तर्रार प्रोफेशनल्स की एक फौज भी मिली है। ये ऐसे लोग हैं जो रूढ़ियों से मुक्त और नई तकनीक और व्यापार के तौर-तरीकों से लैस हैं। हमारे देश में यह वर्ग पहले से रहा है, लेकिन अब वह एक नए विशिष्ट रूप में सामने आया है। लिहाजा कह सकते है कि इसकी अपेक्षाओं को हाशिए पर धकेलने की नीतियां ऐसे ही जारी रहीं, तो उसका बुरा असर देश की अर्थव्यवस्था और तरक्की पर भी पड़ सकता है।