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मनरेगा के दस साल

दुनिया भर में रोजगार की सबसे बड़ी सरकारी योजना के रूप में प्रसिद्धि अर्जित कर चुके ‘मनरेगा' के दस साल पूरे होने पर नयी सरकार ने ठीक ही उसे राष्ट्रीय गौरव का विषय करार दिया है.

व्यापक भ्रष्टाचार, पारदर्शिता के अभाव, निर्धारित दिनों से कम रोजगार देने और सरकारी धन को बगैर किसी पूंजीगत हासिल के बांटने के आरोपों के बावजूद, मनरेगा ने अपने दस साल के सफर में विश्वव्यापी सराहना भी पायी है. नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लॉयड रिसर्च और यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार, 2004-05 से 2011-12 के बीच मनरेगा से काम पानेवाले लोगों के बीच गरीबी घटी है और उपभोग का स्तर बढ़ा है.

अगर यह उपभोग नहीं बढ़ता, तो मनरेगा में काम पानेवाले लोगों के बीच 2011-12 में गरीबी 38 प्रतिशत होती, न कि 31.3 प्रतिशत. हालांकि, नयी सरकार मनरेगा को लेकर शुरू में बहुत उत्साहित नहीं थी. उस वक्त मनरेगा को लेकर दो तथ्य नागरिक संगठनों के हवाले से समाचारों में आये. एक तो यह कि नयी सरकार देशव्यापी मनरेगा को सर्वाधिक गरीब 200 जिलों तक सीमित करना चाहती है. दूसरे, सरकार का इरादा मनरेगा के प्रावधानों में बदलाव करके उसमें निर्माण सामग्री पर होनेवाले खर्च को पहले की तुलना में बढ़ाने का है, जबकि मनरेगा की मूल भावना रोजगार गारंटी के तहत मजदूरी पर होनेवाले खर्च को यथासंभव ज्यादा रखने की है.

खैर, नागरिक संगठनों के प्रतिरोध के बीच मनरेगा के क्रियान्वयन में प्रस्तावित बदलाव टल गया. नागरिक संगठनों और जनभावी अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने उस वक्त ध्यान दिलाया था कि मनरेगा सर्वाधिक निर्धन व्यक्ति के लिए गरिमापूर्वक जीवन चलाने का अपर्याप्त ही सही, लेकिन एकमात्र सहारा है और ग्रामीण इलाकों में दूरगामी महत्व के संसाधनों के निर्माण में इसकी भूमिका असंदिग्ध है.

ऐसे में अब वित्तमंत्री का यह कहना कि मनरेगा का बजट घटाया नहीं, बल्कि बढ़ाया जायेगा, सचमुच सराहनीय है. सरकार की सोच में इस बदलाव की तात्कालिक वजह सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश में खोजा जाना चाहिए, जिसमें सूखे के हालात से उत्पन्न बदहाली का संज्ञान लेते हुए राज्यों से फटकार के स्वर में पूछा गया है कि आपने मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अमल में कोताही क्यों की है?

अब इस योजना को वित्त मंत्री द्वारा राष्ट्रीय गौरव का विषय करार दिये जाने के बाद उम्मीद है कि सरकारें मनरेगा के अमल में पारदर्शिता लाने, उसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाने और ग्रामीण क्षेत्रों में चल रही कृषि-विकास की अन्य योजनाओं से जोड़ने के ज्यादा से ज्यादा प्रयास करेंगी.

(प्रभात खबर का संपादकीय)