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मनरेगा में पैसा खर्च करना सचमुच फिजूल की बात है?- ज्यां द्रेज

कॉरपोरेट प्रायोजित मीडिया की ओर से बनाई गई धारणा के उलट महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) से अहम नतीजे मिले हैं। अगर मीडिया की कुछ रिपोर्टों पर ग़ौर करें तो लगेगा कि मनरेगा के तहत शुरू हुए सार्वजनिक काम पूरी तरह बेकार हैं।

हाल में एक संपादकीय में कहा गया, "देश के ज्यादातर हिस्सों में इसका (मनरेगा) मतलब बेमकसद गड्ढे खोदना और उन्हें भरना है।" इस बयान के समर्थन में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं कराया गया। बीते कुछ वर्षों में मैंने मनरेगा के तहत सैकड़ों काम देखे हैं और मुझे ऐसा एक भी मामला याद नहीं है जो गड्ढे खोदने और उन्हें भरने से मिलता-जुलता हो। मैंने मनरेगा में कुछ बेवजह काम भी देखे हैं लेकिन इसे एकदम फ़िज़ूल कार्यक्रम कहना ठीक नहीं है।

डॉक्टर सुधा नारायण और उनके इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के साथियों ने अपने एक अध्ययन में महाराष्ट्र के सौ से ज्यादा गांवों में मनरेगा के तहत हुए कामों का परीक्षण किया। नमूने के तौर पर चुने गए कामों में से 87 फ़ीसदी सही तरीके से काम कर रहे थे और 75 फ़ीसदी काम ऐसे थे जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर बेहतर खेती में योगदान दे रहे थे।

मनरेगा के तरह हुए कामों से लाभान्वित लगभग 90 फ़ीसदी लोग इन्हें 'बहुत उपयोगी' या फिर 'कुछ हद तक उपयोगी' मानते हैं। डॉ. सुधा नारायण का मानना है कि महाराष्ट्र में मनरेगा कर्मियों ने दूसरे कामों के साथ 'झाड़-झंखाड़ की सफाई, पानी जमा करने की व्यवस्था, मिट्टी का क्षरण रोकना, ज़मीन की सफाई करके उसे समतल बनाकर खेती के लिए तैयार करना' जैसे काम किए हैं।

कॉरपोरेट प्रायोजित मीडिया की ओर से बनाई गई धारणा के उलट महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) से अहम नतीजे मिले हैं। अगर मीडिया की कुछ रिपोर्टों पर ग़ौर करें तो लगेगा कि मनरेगा के तहत शुरू हुए सार्वजनिक काम पूरी तरह बेकार हैं।

हाल में एक संपादकीय में कहा गया, "देश के ज्यादातर हिस्सों में इसका (मनरेगा) मतलब बेमकसद गड्ढे खोदना और उन्हें भरना है।" इस बयान के समर्थन में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं कराया गया। बीते कुछ वर्षों में मैंने मनरेगा के तहत सैकड़ों काम देखे हैं और मुझे ऐसा एक भी मामला याद नहीं है जो गड्ढे खोदने और उन्हें भरने से मिलता-जुलता हो। मैंने मनरेगा में कुछ बेवजह काम भी देखे हैं लेकिन इसे एकदम फ़िज़ूल कार्यक्रम कहना ठीक नहीं है।

डॉक्टर सुधा नारायण और उनके इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के साथियों ने अपने एक अध्ययन में महाराष्ट्र के सौ से ज्यादा गांवों में मनरेगा के तहत हुए कामों का परीक्षण किया। नमूने के तौर पर चुने गए कामों में से 87 फ़ीसदी सही तरीके से काम कर रहे थे और 75 फ़ीसदी काम ऐसे थे जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर बेहतर खेती में योगदान दे रहे थे।

मनरेगा के तरह हुए कामों से लाभान्वित लगभग 90 फ़ीसदी लोग इन्हें 'बहुत उपयोगी' या फिर 'कुछ हद तक उपयोगी' मानते हैं। डॉ. सुधा नारायण का मानना है कि महाराष्ट्र में मनरेगा कर्मियों ने दूसरे कामों के साथ 'झाड़-झंखाड़ की सफाई, पानी जमा करने की व्यवस्था, मिट्टी का क्षरण रोकना, ज़मीन की सफाई करके उसे समतल बनाकर खेती के लिए तैयार करना' जैसे काम किए हैं।

हाल में हुआ शोध बताता है कि मनरेगा को कैसे और उत्पादक बनाया जाए, इस बारे में केंद्र सरकार ग़लत विचार रखती है। बुनियादी धारणा यह है कि मनरेगा की उत्पादकता को बढ़ाने का सबसे बेहतर तरीक़ा है- सामग्री और श्रम का अनुपात बढ़ाना।

असल में इस बात का कोई सबूत नहीं है कि सामग्री केंद्रित काम (मसलन पक्का निर्माण कार्य) श्रम केंद्रित कामों (जैसे रास्ता या बांध बनाना) के मुक़ाबले अधिक उत्पादक है। कौशल निर्माण में मनरेगा की भूमिका को बढ़ाने का यह एक बढ़िया मौका होगा।

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि मनरेगा को सामान्य श्रम के कामों की बजाय कौशल निर्माण की ओर केंद्रित किया जाए। असल में यह उस तथ्य की अनदेखी करना है कि मनरेगा पहले से ही केंद्र सरकार का सबसे बड़ा कौशल निर्माण कार्यक्रम है।

लाखों महिलाएं और पुरुष मनरेगा के तहत ग्राम रोज़गार सेवक, प्रोग्राम ऑफिसर, इंजीनियर, डाटा एंट्री ऑपरेटर और सोशल ऑडिटर के रूप में तकनीक, प्रबंधन और सामाजिक कौशल सीख रहे हैं।

 

चूंकि मनरेगा में काम करने वाले अधिकांश ठेका मज़दूर हैं, इनमें से अधिकतर आखिरकार निजी क्षेत्र में जाएंगे जहां वे अपनी दक्षता का इस्तेमाल करेंगे। इसे बंद करने की योजना बनाने से बेहतर होगा कि मनरेगा में निहित कौशल निर्माण की गतिविधियों को आगे बढ़ाया जाए। इस पूरे प्रोग्राम को आगे ले जाने का यही सबसे बेहतर तरीका है।
(लेखक रांची विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफ़ेसर हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)