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मरती हुई झीलों को मिल रही जिंदगी--

ऐसे कई उदाहरण हैं, जब एक अकेले इनसान ने अपनी कोशिशों से अपने आसपास के सूरत-ए-हाल को बदल डाला है. आज की स्टोरी में हम आपको एक ऐसे ही ‌व्यक्ति के काम के बारे में बता रहे हैं, जिसने अपने अथक प्रयास से झीलों को पुनर्जीवन दे दिया.

 

क्या हम सिर्फ अपने लिए जवाबदेह हैं, या अपने परिवार के लिए या अपने समुदाय के लिए? तो फिर धरती, पहाड़ों, नदियों का क्या होगा? उनकी हिफाजत की जवाबदेही किसकी है? ऐसे सवालों से जूझते हुए तमिलनाडु के सलेम में पले-बढ़े पीयूष सेतिया ने अकेले दम पर न सिर्फ सलेम की झीलों को पुनर्जीवित किया, बल्कि बंजर पहाड़ों को भी हरा-भरा कर दिया. पीयूष ने अपने पर्यावरण संबंधी काम को अंजाम देने के लिए सलेम सिटिजन फोरम (एससीएफ) और सोशियो-इकोनॉमिक एनवायर्नमेंटल डेवलपमेंट (सीड) नामक संगठन बनाया और आसपास के इलाके में वृक्षारोपण का सघन अभियान चलाया. कई नेचर कैंप लगवाये.

 

उन्होंने अपने संगठन को पंजीकृत नहीं करवाया. उनको किसी सरकारी मान्यता की जरूरत कभी महसूस ही नहीं हुई. उनके घर के पास की मूकानेरी झील काफी गंदी और बेजान हो गयी थी. प्लास्टर ऑफ पेरिस और जहरीले रंगों की वजह से झील का पानी प्रदूषित हो गया था. वर्ष 2010 में मूकानेरी इको-रिस्टोरेशन प्रोजेक्ट का काम शुरू हुआ. हर रविवार को 150 महिला, पुरुष और बच्चे सुबह छह बजे झील के पास जमा होते और झील की सफाई करते, उसमें से गाद निकालने के काम में लग जाते. जब झील की एक बार पूरी तरह से खुदाई हो गयी तो लोगों ने उसमें एक टापू बना दिया और वहां 25,000 पौधे लगाये. बारिश के लिए प्रार्थना की गयी. बारिश के बाद सूखा पड़ा झील जिंदा हो गया. अभी इस टापू पर 50 किस्म के पक्षी हैं-देसी और प्रवासी दोनों. 20-20 फीट के लंबे पेड़ हैं. पीयूष बताते हैं कि इस झील के पुनरुज्जीवन के पीछे की वजह इसके गाद की सफाई है. नाबार्ड ने इसे डिसिल्टिंग का सबसे बेहतर प्रोसेस करार दिया है. इसी का नतीजा है कि वर्ष 2011 और वर्ष 2012 में कम वर्षा के बावजूद मूकानेरी झील के जलस्तर में कोई बड़ी कमी नहीं हुई.

 

पीयूष इसका असली श्रेय आम लोगों की कोशिशों को देते हैं. लोगों ने अपने बल पर इस काम के लिए सिर्फ जागरूकता अभियान ही नहीं चलाया, बल्कि खर्च के लिए चंदे के जरिये धनराशि भी इकट्ठी की. हर ‌व्यक्ति ने झील को अपना समझा, उसे साफ करने की जवाबदेही को अपना माना. कोष-संग्रह अभियान में युवाओं को उत्साह ने इसे आंदोलन का रूप दे दिया था.

 

पीयूष के संगठन को कई बार कई जगहों से बुलावा आया कि उनके जलाशयों के पुनरुद्धार में मदद करें. हर बार पीयूष उनलोगों को समझाते हैं कि वो बाहर से मदद लेने की बजाय उनके मॉडल का अनुसरण करें. किसी भी झील की सफाई का कोई क्विकफिक्स सॉल्यूशन नहीं होता है.

 

पीयूूष बताते हैं कि झीलों के पुनरुद्धार का काम हमेशा आसान नहीं होता है. उनका सामना कई बार जमीनों के दलाल और ‘रीयल एस्टेट शार्क' से होता है, जो ऐसी सूखी झीलों पर गिद्ध-दृष्टि रखते हैं. कई बार तो ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि हमारे काम को रुकवाने के लिए स्थानीय नेता फर्जी पिटीशन डलवा देते हैं. हमारे सामने भी इन सबका विरोध-प्रतिरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है.

सलेम सिटिजन फोरम ने अभी कुमारगिरि झील के पुनरुद्धार का काम हाथ में लिया है. पीयूष के दीर्घकालीन लक्ष्यों में से एक है खेती को टिकाऊ(सस्टेनेबल) बनाना. वे पलायन का रुख गांवों की तरफ करना चाहते हैं. इसी दिशा में उन्होंने ‘कोऑप फॉरेस्ट' बनाया है. ग्रीन आन्ट्रप्रीन्योर्स के लिए यह एक आर्थिक रूप से फायदेमंद प्रोजेक्ट है. सलेम शहर से 60 किलोमीटर की दूरी पर बनाया गया यह जंगल 180 एकड़ में फैला है. पहली नजर में देखें तो रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह है. इस जंगल में 11 साफ पानी के तालाब हैं. एक बायोमास गैसिफायर है और एक बायोगैस यूनिट है.

पीयूष ग्रीन आन्ट्रप्रीन्योर्स को इस जंगल में अपनी पसंद का प्रोजेक्ट लगाने के लिए आमंत्रित करते हैं. यहां लगी किसी भी फसल (सब्जी-फल) का एक हिस्सा प्रोजेक्ट लगाने वाले को मिल जाता है. अभी ऐसा प्रयोग एलोवेरा और अमरूद का जूस बनाने , सुपारी की छाल का प्लेट बनाने और बांस की खेती में किया गया, जो काफी सफल रहा. यहां बड़ी संख्या में बच्चे आते हैं, जो प्रकृति का आनंद लेते हैं. यहां मिट्टी का घर बनाते हैं. पौधे लगाते हैं. गड्ढे खोदते हैं. ऑर्गनिक फार्मिंग सीखते हैं. साफ तालाबों में तैरते हैं, खेेलते हैं. सारा कुछ प्रयोगात्मक है. उनके लिए यह जंगल आशा का द्वीप है.
(इनपुट: द बेटरइंडिया डॉट कॉम)