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महंगाई के पीछे गलत नीतियां- सी पी राय

समूचा देश आज महंगाई की समस्या से परेशान है। लेकिन सारी महंगाई अंतरराष्ट्रीय कारणों से नहीं है, जैसा कि सरकारी पक्ष बताता आ रहा है। साफ है कि 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाला यह देश सेंसेक्स और कुछेक लोगों को समृद्ध करने वाली नीतियों से नहीं चल सकता। कुछ तो है, जिसे हमारे तथाकथित अर्थशास्त्री नहीं समझ पा रहे हैं या नहीं समझने का नाटक कर रहे हैं या केवल तयशुदा फॉरमूले जानते हैं और मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित हैं।

तभी तो एक तरफ थोड़े ही समय में कुछ लोगों के पास देश के बजट से ज्यादा टर्नओवर हो गया है, दूसरी तरफ न केवल गरीबों की संख्या बढ़ी, बल्कि महंगाई से परेशान लोगों की संख्या भी बढ़ गई। सरकार द्वारा आजमाए गए सारे दांव उलटे ही पड़ते जा रहे हैं। देश यह समझ नहीं पा रहा कि ब्याज दर बढ़ा देने से महंगाई कैसे कम होगी!

अमेरिका सहित उन तमाम यूरोपीय देशों में, जिसके पिछलग्गू बनने में हम लगे हुए हैं, वहां की सदैव शांत रहने वाली जनता अपनी सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय व्यवस्था के भ्रष्टाचार, वायदा कारोबार सहित वॉल स्ट्रीट, मतलब कुछ बड़े व्यवसायियों के लिए लागू होने वाली आर्थिक नीतियों के खिलाफ सड़क पर आ गई। पता नहीं, हमारी सरकार यह देख और समझ पा रही है या नहीं? क्या हमारी सरकार यह समझ पाएगी कि अगर हमारे यहां 10 या 20 करोड़ लोग सड़कों पर उतर आए, तो क्या होगा?

यह तो साफ है कि कोई देश अपनी बड़ी जनसंख्या को छोड़कर सफलता की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता। बेशक कुछ देर तक अपनी जनता को रंगीनियां दिखाकर भ्रम में रख सकता है, लेकिन जैसे ही खुमारी टूटती है, वह देश यथार्थ के धरातल पर धड़ाम से गिर पड़ता है। कुछ ऐसा ही तेज दौड़ने वाले देशों के साथ हो रहा है और हमारे देश के साथ होने वाला है। यह सच है कि राजनीतिक लोग विशेषज्ञ नहीं होते, पर हमारे लोकतंत्र में व्यवस्था यही है कि जनता के प्रतिनिधि विशेषज्ञों से राय लेंगे और फिर अपनी बुद्धि और जमीनी हकीकत के ज्ञान से जनहित में निर्णय लेंगे। लगता है कि इस सिद्धांत में कोई कसर बाकी रह गई है, वरना जनाधार वाले जमीनी नेता जब शीर्ष पद पर होते हैं, तो इतनी लाचारी नहीं दिखती है। वे हर बात का कोई मजबूत हल निकाल ही लेते हैं।

दुर्भाग्य से आज हर वक्त अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की बात होती है, पर खाने-पीने की चीजें, जो हमारे किसानों ने भरपूर पैदा की हैं, उस पर दुनिया का असर कैसा? पेट्रोल पर भी असर इसलिए है कि हम आपराधिक स्तर तक पेट्रोल का दुरुपयोग करते हैं। यदि ऐसे इस्तेमाल को रोकने का कोई नियम बन जाए और उसके उल्लंघन पर एक निश्चित राशि देनी पड़े, तो शायद उसका दुरुपयोग नहीं होगा और हम उसका रोना भी बंद कर देंगे। इसी तरह सोना अंतरराष्ट्रीय मामला हो सकता है, पर वह हमारे देश में ही इतना छिपा है कि निकल आए, तो देश कर्जमुक्त हो जाए। ऐसा केवल कुछ मंदिरों के तहखाने खुलने और आयकर छापों से पता चलता है।

जनता रोजमर्रा की वस्तुओं की महंगाई से परेशान है। वह मिलावट और रोजमर्रा की तमाम जरूरी चीजों के नकली होने से परेशान है। आगरा के खंदोली में पैदा होने वाला आलू किसान से एक से तीन रुपये तक में लिया जाता है और दस किलोमीटर आगे आगरा पहुंचकर 30 रुपये किलो क्यों हो जाता है? जनता यह नहीं समझ पाती कि मात्र शहर तक लाने और बेचने पर व्यापारी इतना मुनाफा क्यों कमाता है, जबकि किसानों को उसके उत्पाद का सही मूल्य भी नहीं मिलता।

क्या यह जरूरी नहीं कि जिस तरह किसानों के उत्पादों के खरीद का मूल्य सरकार तय करती है, उसी तरह व्यापारी और उद्योगपति द्वारा तैयार चीजों सहित सभी वस्तुओं की अधिकतम कीमत सरकार ही तय करे। जैसा कि डॉ लोहिया ने दाम बांधो नीति सुझाई थी। इसके अलावा मिलावट तथा नकली सामान बनाने और बेचने को भी देशद्रोह की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। यही वक्त है कि जमीनी सचाई को समझा जाए और गरीब, मजदूर, किसान तथा बेरोजगारों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाएं। आज नहीं तो कल, सरकार को अपनी नीतियां जनता को ध्यान में रखकर सुधारनी पड़ेंगी।