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महंगी चिकित्सा और मरते गरीब-- भगवती प्रसाद डोभाल

आज के दौर में अलग-अलग रोगों के लिए निजी अस्पतालों की पूरे देश में बाढ़-सी आ गई, पर इनमें इलाज कितना अच्छा हो रहा है, उसकी पड़ताल आवश्यक है। यह भी देखने में आया है कि इन अस्पतालों में इलाज कराना आम जनता के बस की बात नहीं है। दूसरी ओर, सरकारी अस्पतालों की दिनोंदिन खस्ता होती हालत से इलाज के अभाव में गरीब जल्द ही इस दुनिया से विदा ले रहा है। ऐसे भी निजी अस्पताल देखे गए, जहां धन के अभाव में गरीब अपना इलाज पूरा नहीं करवा सका और वहीं मृत्यु का शिकार हुआ। कई बार मृत शरीर को अस्पताल से छुड़ाने के लिए भी पैसे नहीं होते।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2010 की रिपोर्ट अभी पुरानी नहीं पड़ी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी अपनी रिपोर्ट जारी की है, जिसमें यूनिवर्सल हेल्थ केयर सिस्टम की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। पांच वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषणा की थी कि वर्ष 2020 तक स्वास्थ्य सेवाएं सबके लिए उपलब्ध हो जाएंगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े में कहा गया है कि दुनिया भर में एक अरब लोग आज की तारीख में स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं, जबकि दस करोड़ लोग हर साल गरीबी की ओर धकेले जा रहे हैं। भारी मेडिकल बिलों का भुगतान न कर पाने के कारण सब कुछ दांव पर लगाकर लोग घोर गरीबी की अवस्था में पहुंच रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक मार्गरेट चान ने घोषणा की थी कि 2010 से बहुत सारे देशों को यूनिवर्सल हेल्थ केयर के भीतर लाया जाएगा। इस संगठन के संविधान के मुताबिक, प्राथमिक स्वास्थ्य की सुविधा हासिल करना मनुष्य का मौलिक अधिकार है, जिसकी रक्षा करना हर सरकार का कर्तव्य है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के सभी देशों को, चाहे वे गरीब हों या अमीर, यूनिवर्सल हेल्थ केयर पर ध्यान देना चाहिए। चूंकि इसके लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता है, इसलिए सरकारें नई कर लगा सकती हैं, ताकि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए फंड इकट्ठा किया जा सके।
रिपोर्ट में स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए अधिक फंड उगाहने और वित्तीय अवरोधों को घटाने पर जोर दिया गया है। इसमें बताया गया है कि 20 से 40 प्रतिशत धन बिना वजह दवाओं में खर्च होता है। ऐसा अस्पतालों की अक्षमताओं के कारण होता है।
दूसरी ओर, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की जो वार्षिक रिपोर्ट विगत सितंबर में जारी हुई है, उसमें स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियां गिनाई गई हैं। इसमें औसत उम्र में वृद्धि और बच्चों व माताओं की मृत्यु दर में कमी को रेखांकित किया गया है। उल्लेखनीय है कि देश में औसत उम्र बढ़कर 63.5 वर्ष हो गई है, जबकि शिशु मृत्यु दर घटकर प्रति 1,000 पर 53, और माताओं की मृत्यु दर कम होकर प्रति एक लाख में 254 रह गई है। हालांकि शहरी भारत में जातिगत आधार पर लिंगानुपात में असंतुलन बताया गया है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरू किया गया। इसे देश के 18 राज्यों में पहले शुरू किया गया।
निजी अस्पतालों का आज भले ही पूरे देश में दबदबा है, लेकिन निजी मेडिकल केयर का सहयोग उत्साहवर्द्धक नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि आजादी मिलने के दौरान चिकित्सा क्षेत्र में निजी क्षेत्र का हस्तक्षेप महज आठ प्रतिशत था, जो आज बढ़कर 80 प्रतिशत हो गया है। मेडिकल की शिक्षा, प्रशिक्षण, मेडिकल तकनीकी और दवाओं पर नियंत्रण से लेकर अस्पतालों के निर्माण और चिकित्सा सेवाएं देने तक निजी क्षेत्र का बोलबाला है। लगभग 75 प्रतिशत से अधिक मानव संसाधन और उन्नत तकनीकी इसी के पास है। आज निजी क्षेत्र में देश के कुल अस्पतालों के 68 प्रतिशत अस्पताल हैं। हालांकि चिकित्सा क्षेत्र में निजी क्षेत्र का यह वर्चस्व अधिकांशतः शहरी क्षेत्रों में ही है।
निजी क्षेत्र के वर्चस्व का एक चिंतनीय पक्ष यह भी है कि सरकारी अस्पतालों की हालत निरंतर बिगड़ती जा रही है। मेडिकल पर्यटन पर भी इसका उलटा असर देखने में आ रहा है। पिछले दो दशकों से देश के अधिकांश राज्यों में अच्छी स्वास्थ्य सेवा सपना हो गई है। आज यदि स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करना है, तो सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति सुधारनी होगी। ग्रामीण भारत तभी स्वस्थ रहेगा, जब सरकारी चिकित्सा सुविधाएं चाक-चौबंद हों।