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महंगी पड़ेगी मुफ्तखोरी की राजनीति - हृदयनारायण दीक्षित

धनार्जन बहुत कठिन नहीं होता, लेकिन खर्च की प्राथमिकता तय करना बहुत कठिन है। राजकोष राष्ट्रीय संपदा है। भारत के लोगों की श्रम साधना से संचित निधि। इसका विनियोग-सदुपयोग राष्ट्रीय विकास के लिए ही किया जाना चाहिए। संविधान निर्माताओं ने बहुमत प्राप्त सरकार को भी मनमाने खर्च की छूट नहीं दी। संसद और विधानमंडल आय और व्यय के प्रत्येक बिंदु पर विचार करते हैं, बजट पारित करते हैं। खर्च अधिकार के लिए विनियोग विधेयक आते हैं। बजट के यथाविधि यथानियम व्यय की जांच के लिए सीएजी महालेखाकार हैं। कर संचय, राजस्व प्राप्ति, पूंजी संरक्षण और कर्ज लेने व अदा करने सहित विभिन्न् अवसरों के लिए स्पष्ट संवैधानिक निर्देश हैं।

यहां धन और उत्पादन के साधनों का केंद्रीकरण न किए जाने पर जोर है। आर्थिक समानता के लक्ष्य हैं, लेकिन राजनीतिक दलतंत्र में चुनाव के समय वोट दिलाऊ घोषणाएं होती हैं। इन घोषणाओं में लैपटॉप, टीवी जैसी वस्तुएं बांटने और पानी, बिजली जैसी आवश्यक सेवाओं को भी नि:शुल्क देने की प्रतियोगिता होती है। चुनावी घोषणापत्र ही विजेता सरकार के नीति-निर्देशक तत्व हो जाते हैं। राष्ट्रीय विकास के योजनागत लक्ष्य पीछे धकेल दिए जाते हैं।

राजकोष का वोट दिलाऊ दुरुपयोग संविधान विरोधी है। आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बिजली की घोषणा की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक कार्यक्रम में कहा कि मुफ्त बिजली की घोषणा वे राज्य भी करते हैं, जो बिजली उत्पादन नहीं करते। इसमें गलत क्या कहा? वित्तमंत्री अरुण जेटली ने मुफ्त बिजली के नारे को अव्यावहारिक बताया और कहा कि एक तरीका यह है कि राज्य सबसिडी देकर बिजली सस्ती करें, लेकिन यह तरीका टिकाऊ नहीं है। प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री की टिप्पणियां सैद्धांतिक के साथ व्यावहारिक भी हैं। मतदाताओं को आकर्षित करना हरेक दल का अधिकार है, लेकिन मुफ्त बिजली, टीवी और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की भेंट अर्थव्यवस्था को विकासोन्मुख नहीं बनाती। करदाताओं के धन को दलीय वोट बैंक बढ़ाने में इस्तेमाल करना सामाजिक-आर्थिक न्याय के उद्देश्यों में बाधक है। ब्रिटिश अर्थशास्त्री पीकाक-वाइजमैन ने इसे सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी का कारण बताया था।

दलतंत्र राजकोष का स्वामी नहीं। राजस्व राजव्यवस्था का ही सर्वस्व है। अर्थशास्त्र को इसीलिए महत्वपूर्ण विद्या कहा गया। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र" में लिखा है कि यह विद्या धान्य, पशु, सोना, ताम्र आदि खनिज और श्रमिक कर्मचारी आदि देने वाली परम उपकारिणी है। इस ज्ञान से उपार्जित राजकोष के बल पर राजा स्वपक्ष व शत्रुपक्ष को वश में कर लेता है। कौटिल्य ने बताया है अर्थनीति ही अप्राप्त को प्राप्त कराती है, प्राप्त की रक्षा करती है, रक्षित की वृद्धि करती है और संवद्र्धित संपदा को समुचित कार्यों में लगाती है। राष्ट्रीय पूंजी और राजकोष का संरक्षण, संवर्द्धन और उसका जनहितकारी प्रयोग भारत की प्राचीन अर्थनीति है। राजकोष को मनमाने तरीके से उड़ाना और दलहित में खर्च करना विश्व लोकवित्त के किसी सिद्धांत में नहीं मिलता। भारत लोककल्याणकारी राज्य है। समाज कल्याण के कार्य बेशक स्वागतयोग्य हैं। वृद्धावस्था, विकलांग पेंशन, असहाय और अभावग्रस्त या आपदा पीड़ितों को सहायता हमेशा स्वागतयोग्य रहे हैं, किंतु उपभोक्ता वस्तुओं के उपहार समाज कल्याण की किसी परिभाषा में नहीं आते। पर यही हो रहा है।

इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। ऐसी घोषणा उचित थी। संवैधानिक लक्ष्यों से भी संबद्ध थी, पर सोनिया की कांग्रेस ने 2009 के चुनावों के ठीक पहले कृषि कर्ज माफी की घोषणा कर दी। आर्थिक मामलों के अनेक विशेषज्ञों ने भी इसे गलत बताया था। चुनाव में इसका लाभ मिला, लेकिन इससे कर्ज वापसी की इच्छा घटी। चुनाव के बाद भी बैंकों को नए कर्ज वापसी में कठिनाइयां आईं। कृषि सबसिडी की बात अलग है। कृषि क्षेत्र को लगातार सबसिडी चाहिए, लेकिन कर्ज माफी वोट लुभावन थी। औद्योगिक घरानों पर बकाया अरबों रुपए बिना वसूली के ही माफ किए गए। वे इस सहायता के पात्र नहीं थे।

'आप" की घोषणाएं ताजा उदाहरण हैं। यूपी में सपा ने भी ऐसी ही घोषणाएं की थीं। तमिलनाडु की घोषणाओं के क्रियान्वयन सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे थे। दरअसल हरेक योजना का लक्ष्य राष्ट्रीय विकास करना होता है। समाज कल्याण का भी एक लक्षित वर्ग होता है। उसे सहायता देना उचित भी है, लेकिन वंचित को स्वावलंबी बनाना ही राष्ट्र-राज्य का मुख्य कर्तव्य है और स्वावलंबन का कोई भी कार्य मुफ्त की उपभोक्ता सेवा या वस्तुओं को देकर पूरा नहीं हो सकता।

विधानसभा चुनावों में ऐसी प्रतिस्पर्धी घोषणाओं के अंबार देखे गए हैं। जीते दल सरकार में आकर अपनी लोकलुभावन घोषणाओं की गेंद केंद्र पर फेंकते हैं। वे केंद्र से धन मांगते हैं, केंद्र पर आरोप भी लगाते हैं। सर्वोच्च न्यायपीठ ने भी ऐसी चुनावी घोषणाओं को अनुचित बताया था। न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से आग्रह किया था कि घोषणापत्र की विषय वस्तु को विनियमित करने की कोई नीतिगत रूपरेखा अभी नहीं है। आयोग को ऐसी रूपरेखा बनानी चाहिए। तमिलनाडु सरकार के विरुद्ध उपभोक्ता वस्तुएं मुफ्त में बांटने को लेकर याचिका थी।

कदाचित न्यायालय के समक्ष घोषणापत्र की संवैधानिक प्रतिबद्धता का प्रश्न विचारणीय नहीं था।

संविधान में चुनावी घोषणापत्रों का उल्लेख नहीं है, लेकिन लोकवित्त पर सुस्पष्ट प्रावधान हैं। राजकोष का संग्रह और व्यय संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही संभव है। घोषणापत्रों के उद्देश्य चुनावी जीत होते हैं। बेशक घोषणापत्रों की अपनी महत्ता है। यह दलीय नीति के दस्तावेज होते हैं। इनमें नीतिगत मुद्दों का समावेश होना चाहिए। अर्थव्यवस्था पर दलीय दृष्टिकोण का खुलासा होना चाहिए। राजकाज संचालन पर नीति वक्तव्य चाहिए। लेकिन अधिकांश दल ऐसा नीतिगत घोषणापत्र नहीं बनाते। इनमें मतदाताओं के लिए व्यक्तिगत प्रलोभनों की भरमार होती है। ऐसी घोषणाओं का कोई औचित्य नहीं बनता।

-लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्‍य हैं।